दुनिया का सबसे बडा पब्लिक रिलेशन स्कैम है

भारत को विश्र्व का सबसे पसंदीदा लोकतंत्र बनाना : अरुंधती राय
परमाणु करार पर हुई पूरी नाटकबाजी और तमाशे के दौरान यह भी हुआ-संसद में वह बात सबके सामने ला दी गयी, जो ढंके छुपे अरसे से होती रही है। हम संसद के प्रति इसलिए आभारी हैं की उसने एक बार फिर, और इस बार बिना किसी छिपाव के, अपने को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर दिया। हमने लोकतंत्र को एक बार फिर एक बेहद मंहगे तमाशे के रूप में घटित होते देखा। एक ऐसा लोकतंत्र, जिसमे देश को गुलामी की कुछ और सीढियां चढानेवाले समझौते पर उस देश की तथाकथित सर्वोच्च संस्था-ख़ुद संसद को ही कुछ कहने-करने का अधिकार नहीं है। और दूसरी बात यह की, भले संसद को कुछ करने का अधिकार भी होता, फिर भी क्या एक ऐसी व्यवस्था स्वीकार्य हो सकती है, जिसमें वोट खरीद लिए जाते हों और इस आधार पर संसद चलती हो? इस पर आगे भी कुछ आयेगा, अभी हंस के अप्रैल अंक में छपे अरुंधती राय के इंटरव्यू, जिसे पुण्य प्रसून वाजपेयी ने लिया

प्रसून वाजपेयी : सबसे पहले यही जानना चाहेंगे...जो कुछ हमारे इर्द-गिर्द हो रहा है...अचानक एक बडा सवाल आ गया है कि देश बांटा जा रहा है भाषा के नाम पर, रोजगार के नाम पर...देश बांटा जा रहा है अपनी राजनीति के अस्तित्व के नाम पर कि हम हैं...यह कैसा संकट...?
अरुंधति राय : इसके बीज बहुत पहले ही हमने जमीन में गाड दिये थे...हमने से मतलब हमारे बडे सरकारी लोग...उसका पूरा परिणाम अब सामने आ रहा है...लेकिन 1990 में जब मनमोहन सिंह ने उदारीकरण की तैयारी शुरू की, उसी समय 1989 में राजीव गांधी ने बाबरी मसजिद का ताला खोल दिया...इसी समय से ये दोनों साथ-साथ चले आ रहे हैं...और अब उसका नतीजा बहुत ही पास आ गया है...उदारीकरण का परिणाम यह हुआ कि हमारा अपर कास्ट और मिडिल एंड अपर क्लास भारत से अलग हो गया...उनका अपना एक पूरा यूनिवर्स बन गया...उसमें अपना मीडिया, अपनी कहानी, अपनी अर्थव्यवस्था, अपना सुपर मार्केट, अपना मॉल, अपनी ट्रेजेडी और अपना आंदोलन भी है...जैसे यूथ फॉर इक्वलिटी जैसे संगठन...जो समझते हैं कि निचली जातियों के लोग ऊंची जातियों को दबा रहे हैं...या जस्टिस फॉर जेसिका जैसा आंदोलन जो इंडिया गेट पर मोमबत्तियां जला कर अपना विरोध दर्ज कराता है...तो इनकी एक अलग दुनिया बन गयी है...वहीं बाकी लोग एक दूसरी तरह की लडाई लड रहे हैं. इनमें मतभेद भी हैं. जैसे गांधीवादी आंदोलन, नक्सलवादी व माओवादी आंदोलन...इनमें बहस चल रही है. कुछ साल पहले मैं संयुक्त राष्ट्र के एक कार्यक्रम में गयी थी. मैंने उनसे कहा कि पिछले दिनों भारत में लाखों लोग विस्थापित हुए हैं. तो उन्होंने कहा कि आप इंडिया के बारे में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ न कहें...क्योंकि यह विश्र्व का पसंदीदा लोकतंत्र है...मुझे लगता है कि जो सबसे बडा एक पब्लिक रिलेशन स्कैम हुआ है...वह इस बात का प्रचार है कि दुनिया में इंडिया ही एकमात्र वह देश है, जहां सबसे जीवंत लोकतंत्र है...
पुण्य प्रसून वाजपेयी : आपने एक अच्छी बात कही है कि लोकतंत्र के पैमाने से संयुक्त राष्ट्र भी मानता है और दुनिया भी...कि सबसे बेहतरीन लोकतांत्रिक देश भारत है...आपने मनमोहन सिंह का नाम लिया...राजीव गांधी और अयोध्या मुे का जिक्र किया...आपको नहीं लगता कि भारत की संसदीय राजनीति में उस क्लास का भी प्रतिनिधित्व है...फिर उसमें गडबडी कहां पर आ रही है....वह भी उसी राजनीति का हिस्सा बनना चाहता है, जिस राजनीति में आप बता रही हैं कि अपर और मिडिल क्लास की एक अलग दुनिया हो चली है...और दूसरी ओर लोअर क्लास है, जिसकी दुनिया बिल्कुल अलग है...उसके इरादे अलग हैं...
अरुंधति राय : नहीं...पर इनको मैनेज करने का तरीका निकाला है...जो लोअर क्लासेज हैं...जैसे आप इतिहास में देखें...तो उपनिवेशवाद क्या था...जब यूरोप में औद्योगिक क्रांति हुई...तो रॉ मेटेरियल निकालने अफ्रीका और अमेरिका गये...जहां पर बडे-बडे जेनोसाइड (नरसंहार) हुए...इंडिया में दूसरे तरह से एक तरह का रिवोल्यूशन हो रहा है...यहां पर जो क्लास आगे बढा है, वह ऊपर आसमान से नीचे देख रहा है...कि हमारा बॅक्साइट, हमारा आयरन, हमारा पानी...और जब आप यह सब निकालोगे तो जो लोग वहां रह रहे हैं...वे इस इकोनॉमी के काम के नहीं है...क्योंकि पूरा मेकैनाइजेशन चल रहा है...जितना ग्रोथ है, उतना रोजगार का ग्रोथ नहीं है...अभी हाल ही में एक अर्थशास्त्री बता रहे थे कि टाटा आर्थिक रूप से पांच गुना बडा हो गया है, लेकिन काम करनेवालों की तादाद आधी हो गयी...
पुण्य प्रसून वाजपेयी : न्यू इकोनॉमी को पूरी दुनिया में इसी रूप में डिफाइन किया जा रहा है.
अरुंधति राय : इस नयी इकोनॉमी के लिए ये लोग फालतू हैं, ये उसके किसी काम के नहीं हैं. अब इनका किया क्या जाये. बहुत-सी चीजें हैं. प्राथमिक स्तर पर उनको, उनकी जमीन, उनके संसाधनों से बेदखल कर गांवों से शहरों की ओर विस्थापित कर दिया जाये.
पुण्य प्रसून वाजपेयी : आपने इन चीजों को सामाजिक नजरिये से बहुत देखा है...राजनीतिक नजरिये से हम समझना चाह रहे हैं. आज अचानक नजर आ रहा है बीजेपी और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियां फेल हो रही हैं. क्षेत्रीय पार्टियां अचानक आगे बढ रही हैं. और देश में गंठबंधनवाला पहलू भी सामने आता है. क्या यही सारी गडबडियां हैं. जिस दिशा में आप ले जा रही हैं...जो एक बडी वजह है कि जो क्षेत्रीय पार्टियां हैं, उनमें से मायावती निकल कर आती हैं, पासवान और लालू निकल कर आते हैं, उधर करुणानिधि निकल कर आते हैं...नरेंद्र मोदी भी एक झटके में नेशनल बजट को खारिज करते हैं और वे इसकी बात करते हैं कि यह राज्य का बजट है...स्टेट डेवलपमेंट का पहलू यह है...केंद्र से वित्त मंत्री जाते हैं और बोलते हैं कि मोदी जो गुजरात को दिखा रहे हैं, वह फेक है. असल विकास तो केंद्र ने किया है. तो जो टकराव शुरू हुआ है...उसकी वजह क्या है?
अरुंधति राय : ये जो पूरे संसाधनों पर कब्जा हो रहा है...उसका नतीजा यह होगा कि बहुत तरह की क्षेत्रीयता उभर कर सामने आयेगी. गुजरात को देखें तो नर्मदा की लडाई और वहां पर फासीवाद का उभर कर सामने आना...यह अकस्मात नहीं हुआ...आप कह सकते हैं कि मुझे पूरे देश से मतलब नहीं...हमें तो केवल इससे मतलब है. और हमें अधिकार है कि हम यह हासिल करेंगे. तो यह जो पूरा विभाजन हो रहा है, उसमें रिजनल पार्टियां एक लेवल पर, हिंदू-मुसलिम का सवाल दूसरे लेवल पर...जातियों का विभाजन, माओवादियों की लडाई सब शामिल हैं...
पुण्य प्रसून वाजपेयी : नर्मदा की लडाई जो लडते हैं, वे सरकार की नजर में माओवादी भी हो गये थे. लेकिन अलग-अलग आंदोलन जहां भी चल रहे हैं, आपको क्या लगता है. आपके कई अस्पेक्ट हमने देखे हैं...आपके लेखों में आता है कि जहां भी आंदोलन हो रहा है, उसको स्टेट डिफाइन करता है आतंकवाद के पहलू से...आंतरिक सुरक्षा के नाम पर आतंकवादी भी हो जाते हैं...नक्सलवादी भी हो जाते हैं...क्या यह पॉवर्टी है? यदि आपके साथ पॉवर्टी जुडी है, तो आपको आतंकवादी के तौर पर लिया जा सकता है.
अरुंधति राय : अभी तक आतंकवाद को इसलामिक आतंकवाद के लिए प्रयोग किया जाता रहा है. लेकिन अब स्थिति यह आ गयी है कि केवल इसलामिक आतंकवाद का नाम लेने से काम नहीं चलेगा. क्योंकि किसी को आतंकवादी कहने के लिए उसका मुसलमान होना जरूरी है...अब जब आप किसी को माओवादी कहते हैं तो वह कोई भी हो सकता है. मैं भी हो सकती हूं, आप भी हो सकते हैं. जैसे पूरी तरह से गलत आरोप लगा कर विनायक सेन को जेल में रखा गया है. ये जो एक्सटैक्टिव/डिस्टैक्टिव इकोनॉमी है, जिस दिन टाटा और एस्सार ने छत्तीसगढ सरकार के साथ एमओयू साइन किया...उसके अगले दिन सलवा जुडूम घोषित हो गया. और अभी हमने सुना कि एक कानून आनेवाला है कि अगर आपने दो साल तक अपने खेत में खेती नहीं की तो इस जमीन को गैर कृषि कार्य के लिए डाइवर्ट कर दिया जायेगा...अब 640 गांवों को खाली करके लोगों को पुलिस कैंप में रखा गया है. कहा गया, या तो आप हमारे साथ सलवा जुडूम में हैं...नहीं तो आप माओवादी हैं...जिन गांवों को खाली कराया गया है, वहां आयरन ओर के लिए मल्टीनेशनल्स की निगाहें बॅक्साइट की खानों पर हैं...लोगों को वहां घरों से निकाला जा रहा है...अब क्या होगाङ्क्ष किसी भी प्रतिरोध को आप कहेंगे कि आतंकवाद है...कहा जा रहा है कि या तो आप हमारे साथ हैं, नहीं तो विरोध में...तो आप ऐसी स्थिति के लिए मजबूर कर रहे हैं...उसके बाद आप खतरनाक कानून पास कर रहे हैं...जैसे छत्तीसगढ स्पेशल सेक्योरिटी एक्ट...जिसके आधार पर हर व्यक्ति को अपराधी ठहराया जा सकता है...सरकार को केवल यह तय करना है कि किसको गिरफ्तार करना है...इस एक्ट में कोई भी नहीं बच सकता...इसमें यह साबित नहीं करना होगा कि अरुंधति राय माओवादी हैं...आप किसी को भी उठा सकते हैं...किसी को मृत्युदंड दे सकते हैं...सात साल की जेल भी दे सकते हैं...यहां तक कि स्टेट के खिलाफ सोचना भी अपराध है इस एक्ट में...तो एक ऐसा माहौल आ गया है कि किसी भी तरह के प्रतिरोध को माओवादी आतंकवाद कहके आपलोगों को बंद करा सकते हैं...
पुण्य प्रसून वाजपेयी : हमने जहां से बात शुरू की है कि भारत में लोकतंत्र दुनिया देखती है...और हिंदुस्तान में जिस रूप में संसद बनती है...उसमें तो आमलोगों की भागीदारी होती है...क्या यह पूरा फेक प्रोसेस है...
अरुंधति राय : हम यह नहीं कह सकते कि सब कुछ फेक है...यह बहुत ही एक्स्ट्रीम पोजीशन होगी...पर मैं सोचती हूं कि 1970 में लैटिन अमेरिका में जब यूएस सरकार ने डेमोक्रेसी को ध्वस्त किया...तो उस समय उसको रियल डेमोक्रेसी से डर था...अब सबने सीख लिया कि डेमोक्रेसी की जो पूरी संस्था है, उसको खोखला कैसा किया जा सकता है...जैसे जब हमलोग छोटे थे तो खेत में जाकर एक बार मैंने पूरी गाजर खींच कर निकाल दी और ऊपर का डंठल वापस डाल दिया तो लग रहा था कि खेत में गाजर है...पर नहीं, पानी भी दो तो कुछ नहीं होगा...तो ऐसा ही हो गया है हमारा लोकतंत्र...जो कोर्ट है, मीडिया है, जो चुनावी प्रक्रिया है, सबको खोखला कर दिया गया है...तो अभी डेमोक्रेसी से कोई डर नहीं है...चुनाव से मायावती और लालू जैसी ताकतें आगे आ रही हैं, यह अच्छी बात है...कम से कम निचली जातियों के लोग आगे आकर प्रतिनिधित्व कर रहे हैं...पर वास्तविक पावर शिफ्ट नहीं हुआ है...यह ऊपर से दिखाई देता है...अंदर से खोखलापन कहीं ज्यादा इसी दौर में बढा है.
पुण्य प्रसून वाजपेयी : मतलब क्या यह इकोनॉमिक टेररिज्म है...जो स्टेट को लगातार चला रहा है?
अरुंधति राय : यह इस्ट्रैटिक्टव कैपिटलिज्म की प्रक्रिया है...जहां कुछ को अधिक...और अधिक मिलता रहेगा वहीं एक बडे तबके से सब कुछ छिनता जायेगा.
पुण्य प्रसून वाजपेयी : यानी सरकार किसी को लेकर कुछ परिभाषित कर सकती है...चाहे वह नर्मदा की बात हो, चाहे इंटरनल सेक्योरिटी के मेनजर...आम जरूरत के लिए जो लडाई लड रहे हैं...उनकी बात हो या फिर रह मुे की...मतलब आप विरोध करेंगे तो स्टेट को बरदाश्त नहीं होगा...
अरुंधति राय : और फिर बाकी चीजें भी हैं जैसे रोजगार गारंटी योजना...एक तरह से आप देखेंगे कि यह बहुत अच्छी चीज है...लाखों लोगों को रोजगार का अधिकार मिला...लेकिन वास्तव में हो क्या रहा है...कुछ जगहों को छोड दिया जाये, जहां अरुणा राय जैसे कमिटेड एक्टिविस्ट काम कर रहे हैं. बडे औद्योगिक घरानों ने कहा था कि हमें लाइसेंस राज नहीं चाहिए. पर सारे गरीबों को आप लाइसेंस राज के हाथों धकेल देते हैं. रोजगार गारंटी योजना क्या है...100 दिन के पैसों के लिए पूरे साल लडना पडता है फिर भी संभावना यही कि वह नहीं मिलता...और उसकी डील क्या है? अपनी जमीन...अपनी जिंदगी...अपना पानी सब कुछ स्टेट को दे दीजिए...उसके बदले आपको पत्थर तोडने का हक मिला 100 दिन के लिए...और जो आपको मिलेगा नहीं...पूरे भ्रष्टाचार में यह योजना फंस गयी है...गरीबों को देने के लिए पूरी तरह स्टेट को कंट्रोल और अमीरों व पूंजीपतियों के लिए पूरी तरह मुक्त इकोनॉमी, जहां वह स्टेट के सहयोग से सब कुछ कर सकते हैं... अपना सेज बनाने के लिए स्टेट के सहयोग से वे जमीन भी छीन सकते हैं...आमलोगों की कोई सुननेवाला नहीं है. केवल यही विकल्प बचता है कि वे हथियार उठा लें...यह हल नहीं है, पर सरकार केवल यही रास्ता छोड रही है.
पुण्य प्रसून वाजपेयी : भूमि सुधार सबसे ज्यादा बंगाल में शुरुआती दौर में हुआ...लेकिन अब उसी राज्य में सब कुछ पलटा जा रहा है...इसका मतलब क्या है...?
अरुंधति राय : ये गलत है. सबसे ज्यादा कश्मीर में हुआ...शेख अबदुल्ला ने कश्मीर में रैडिकल लैंड रिफार्म किया था...इसके बाद बंगाल और केरल का नंबर आता है...
पुण्य प्रसून वाजपेयी : लेकिन एक समय के बाद स्टेगनेंसी (जडता) आयी. हमारा कहना है कि संसदीय सिस्टम में भी एक स्टेगनेंसी आयी है...
अरुंधति राय : स्टेगनेंसी नहीं कह सकते, क्योंकि जो सेज हो रहा है वह पूरे भूमि सुधार कार्यक्रम को रिवर्स (पलट) कर रहा है.
पुण्य प्रसून वाजपेयी : इसके विकल्प क्या बचेंगे...ऐसे में चाहे वह राइट हो या लेफ्ट?
अरुंधति राय : लेफ्ट हो, राइट हो या फिर सेंटर, सभी ने सेज को मंजूर कर लिया है...जहां तक विकल्प की बात है, यदि आप कई सालों में लिये गये निर्णयों की निर्णय प्रक्रिया को नहीं समझते...तो कोई विकल्प नहीं दे सकते...विकल्प यही है कि आप बडे डैम न बनायें...आप सेज न बनायें...विकल्प हैं पर हमारी सरकारों ने सबसे खराब विकल्प को चुना है...
पुण्य प्रसून वाजपेयी : संसदीय सिस्टम का विकल्प क्या है...क्योंकि संसदीय राजनीति की जरूरत है सेज...संसदीय राजनीति की जरूरत है कैपिटलिज्म...संसदीय राजनीति की जरूरत है कि वह सोसाइटी को विभाजित करे...राजनीतिक दल इसी रूप में काम कर रहे हैं...इसका मतलब यह है कि क्या राजनीति अपने आपको बनाये रखने के लिए इस पूरे स्ट्रक्चर को अपना रही है...
अरुंधति राय : यह सही है कि कम लोग ही समझते हैं कि यह जो विभाजित करने की राजनीति है...यह लोकतंत्र की वजह से है...यह राजनेताओं का बिजनेस है...अपनी कंस्टीट्यूएंसी को बनाने के लिए...ये जो हमारे देश का जातिवाद है, यह हमारी संसदीय राजनीति का हार्ट है. इसको दूर नहीं किया गया. इसको पूरा एक इंजन बना दिया गया...इस सिस्टम को समझना होगा कि हाऊ डू यू हैव अ पार्लियामेंट, डेमोक्रेसी ह्वेयर द इंजर ऑफ इट इज नाट डिसीसिव पॉलिटिक्स.
पुण्य प्रसून वाजपेयी : लेकिन यह नहीं लगता कि सारी चीजें जो ऑक्सीजन दे रही हैं, इस सोसाइटी को...इस सोसाइटी में उसके पास अपने विकल्प नहीं बच रहे हैं...जितने भी आंदोलन चल रहे हैं...या जहां पर आंदोलन हुए हैं...वे अपने खास स्पेस में विकल्प नहीं दे पाये कि वहां इकोनॉमी को वे उसी रूप में डेवलेप कर लें...बस्तर के इलाके को लेकर कहा जाता है कि वहां पर माओवादियों ने अपने स्तर पर समानांतर सरकार गठित की...पर इकोनॉमी अपने अनुकूल हो पाये यह प्रयोग तेलंगाना, छत्तीसगढ, झारखंड- कहीं नजर नहीं आता...इसकी वजह फिर क्या है...
अरुंधति राय : अपने आपको बचाने में ही ज्यादा समय लग जाता है...इनकी अपने इलाके को बचाने में ही पूरी ऊर्जा जा रही है...आपका हेलीकॉप्टर ऊपर चल रहा है...आर्मी ऊपर आ रही है...आप अपना विकास कैसे करेंगे?
पुण्य प्रसून वाजपेयी : नहीं हमारा सवाल था...हम नेपाल देख रहे थे...नेपाल में एक परिवर्तन आया...इसके मेनजर यहां पर जितने भी अल्ट्रा लेफ्ट संगठन थे, उनके लगातार बयान सामने आये...और उसके जरिये वे हिंदुस्तान की तसवीर देखने लगे...कि इस तरह हम संसदीय राजनीति का चेहरा बदल सकते हैं...हमारा कहना है कि क्या जो नेपाल में हो रहा था...वह बहुत जल्दबाजी थी...तमाम बातचीत होने लगी थी उस दौर में...लेकिन ये तसवीर जो उभर कर सामने आ रही है...यह हम इसलिए कह रहे हैं कि नेपाल में एक प्रक्रिया चली...हिंदुस्तान में भी वो शुरुआती दौर में चली...सत्तर, अस्सी और नब्बे तक एक प्रक्रिया नजर आती है...लेकिन क्या लग रहा है कि वे स्टैगनेंसी (गतिहीनता) वहां भी आयी है...?
अरुंधति राय : हो सकता है, क्योंकि आप जहां पर भी देखें...जैसे कश्मीर जहां मैंने काफी समय बिताया है...मुझे पता है जैसे छत्तीसगढ और झारखंड में अभी हो रहा है...जब कन्फ्लिक्ट (टकराहट) होता है तो फिर दोनों तरफ एक स्टैगनेंसी आती है, यथास्थिति बनाये रखने के लिए. क्योंकि कन्फ्लिक्ट में ही बहुत पैसा बन जाता है...फिर अभी एक स्थिति है. कश्मीर में अगर आतंकवाद खत्म हो जाये और आर्मी को वहां से निकलना पडे तो वे आतंकवाद को फिर से खडा कर देंगे. यह अब पैसा बनाने का व्यापार बन गया है.
पुण्य प्रसून वाजयेपी : हमारे देश में जो साहित्य लिखा जा रहा है...रचा जा रहा है...शायद सरोकारों से कटता जा रहा है...इसलिए आज भी लोग प्रेमचंद का नाम बोल देते हैं...कि एक प्रेमचंद थे...फणीश्वरनाथ रेणु को याद कर लेते हैं...लगता क्या है कि साहित्यकार, लेखक भी समाज से कट रहे हैं...
अरुंधति राय : हां कट तो रहे हैं...महाश्वेता देवी हैं जो नहीं कटीं...साथ में चलती हैं...पर दिक्कतें बहुत हैं, क्योंकि मुझे लगता है कि 'गॉड ऑफ स्माल थिंग्स' के बाद पिछले 10 साल मैंने बहुत कुछ लिखा...पर अब उसका भी शायद अलग वक्त आ गया है...10 साल पहले मैंने लिखा कि हमारा काम है...दुश्मन की पहचान करना...कि यह ग्लोबलाइजेशन है क्या...हमारा शत्रु है कौन...ऐसा नहीं कि पहले अंगरेज थे....जो खराब थे, उनको भगा दिया...अब स्थितियां बहुत ही जटिल हैं...अभी तक लेखकों और कलाकारों का काम था स्थितियों को सामने लाने का...अब चीजें साफ हो गयी हैं...जिसको जानना था उसने जान लिया है और अपना पक्ष भी चुन लिया है...अब मुझे यह नहीं लगता कि मैं लोगों से यह कह सकती हूं कि वे कैसे लडें...मैं छत्तीसगढ के आदिवासियों को नहीं बोल सकती कि आप उपवास पर बैठो...गांधीवादी बनो या माओवादी...यह निर्णय वे खुद लेंगे...मैं नहीं कह सकती...मैं नहीं बता सकती...यह मेरा काम नहीं है...मैं सिर्फ लिख सकती हूं....कोई सुने या न सुने...मैं वही कर सकती हूं...वही करूंगी....क्योंकि मैं कुछ और नहीं कर सकती.
हंस, अप्रैल, 2008 से साभार

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