नायक जिसकी ट्रैजेडी नजर नहीं आती

प्रताप सोमवंशी

किसान हमारी अर्थव्यवस्था के असली नायक हैं। वित्त मंत्री की भूमिका में प्रणब मुखर्जी ने अंतरिम बजट पेश करते हुए जैसे ही यह कहा संसद में तालियां गूंज उठीं। प्रभारी वित्त मंत्री आगे के वक्तव्य में इन दिनों इश्तहार में आ रही योजनाओं के आंकड़ों को संसद के समक्ष रखते हैं। किसानों को श्रेष्ठ बताते हुए हर साल औसत एक करोड़ टन की दर से रिकॉर्ड उत्पादन बढ़ोतरी की बात जोड़ते हैं। वह बताते हैं कि अनाज उत्पादन 23 करोड़ टन पहुंच चुका है। सरकार ने वर्ष 2003 से 2008 के बीच कृषि पर बजट को 300 प्रतिशत बढ़ा दिया है। सहकारी ऋण ढांचे को मजबूत करने के लिए 13,500 करोड़ रुपये की विशेष वित्तीय सहायता दी गई है।
इस तरह खेती पर एक-एक करके वह सारे विवरण गिनाते हैं।सरकार की घोषणाएं किसानों के बारे में किए गए प्रयासों को बताने के साथ एक भ्रम भी फैलाती हैं, जैसे जाने किस-किस के हिस्से का पैसा किसानों को बांट दिया गया। बजट से यह पता ही नहीं चलता कि वित्त मंत्री का यह नायक कहानी के किस क्लाइमेक्स पर है। किस-किस तरह की ट्रैजेडी से उसे जूझना पड़ रहा है। खेती को लेकर गुजरे बरस में क्या नहीं हुआ, क्या गलत हुआ, इसे इंगित करने की जिम्मेदारी जिस विपक्ष पर होती है, उसका पूरा ध्यान मात्र इसी में रह गया कि एनडीए के समय में क्या हुआ था। अंतरिम बजट की आंख से देखें, तो देश के किसानों की कोई खास समस्या बची ही नहीं। हकीकत यह है कि सरकार किसी की भी रही हो, नेशनल सैंपल सवेü, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो, राष्ट्रीय किसान आयोग और दूसरे सरकारी तथ्यों की रोशनी में भी किसानों की समस्या को देखने की जरूरत नहीं समझी जाती। उद्यमी हो या कर्मचारी, उनसे जुड़े संगठन अपनी बातें समय-समय पर सरकार तक पहुंचाते रहते हैं। बजट से पहले वित्त मंत्री तरह-तरह के प्रतिनिधिमंडल से मिलते हैं। खेती की मुश्किलों का हर कोई जानकार हो जाता है, सो ऊपर-ऊपर ही सब कुछ तय कर लिया जाता है। ऐसे में बजट में सरकार इतने चमकीले पैकेट में आंकड़े पेश करती है कि बाहर से देखने वाले को सब कुछ हरा ही हरा नजर आता है। इस साल के अंतरिम बजट में भी वही हुआ। विरोधाभास आंकड़ों की तह के नीचे दबे पड़े हैं। अंतरिम बजट में 2003 से 2008 के बीच के तुलनात्मक विवरण पर सरकार ने सारे तथ्य दिए हैं। मीठा-मीठा गप के आंकड़े तो वहां मौजूद हैं, कड़वा-कड़वा जाने कहां थूक दिया गया है। बजट में खेती की विकास दर 2।6 की तुलना में 3।7 प्रतिशत का होना पाया गया। यहां साल के बेहतर मानसून से उत्पादन में आंशिक सुधार को भी सरकार ने अपने लाभ के खाते में गिन लिया। खाद के सवाल पर किसान पूरे साल रात-रात भर जागकर सहकारी समितियों में लाइन लगाते रहे। कालाबाजारी होती रही। सरकार ने इस बजट में भी उर्वरक सबसिडी के लिए कहा है कि पहले की भांति जारी रहेगी। इसके साथ वैकçल्पक व्यवस्था को प्रोत्साहित करते हुए आने वाले दिनों में खाद पर सबसिडी और कम की जाएगी। वैकçल्पक क्या होगा और कैसे, इसे पिछले किसी बजट में स्पष्ट नहीं किया जाता, भाषा अवश्य एक जैसी रहती है। फसल के लिए किसानों को तीन लाख रुपये तक के ऋण सात प्रतिशत वार्षिक ब्याज की दर से अगले वर्ष भी जारी रखने की प्रतिबद्धता जताई गई है। किसान अरसे से रटते आ रहे हैं कि प्रोसेसिंग खर्च और रखरखाव के नाम पर लगभग दो प्रतिशत और रिटनü ब्याज लगता है, जो सरकार की ओर से आने पर खाते से çक्लयर किया जाता है। कुल मिलाकर, ब्याज 11 प्रतिशत बनता है। इसी तरह राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) की राशि में 88 प्रतिशत की बढ़ोतरी को तीसरी बड़ी उपलçब्ध बताया गया है। पहले इसे 596 जिलों में लागू किया गया था, अगले वित्त वर्ष से इसे सभी 623 जिलों में लागू किया जाना है। नरेगा के तहत शहरी क्षेत्र को शामिल किए जाने से लगभग डेढ़ गुना ज्यादा लोग कवर किए जाएंगे। नरेगा को देश में आर्थिक विषमता दूर करने के प्रयास की उस कड़ी में तो देखा जा सकता है, जिसमें अर्थशास्त्री जान मेनार्ड कींस कहते हैं कि गड्ढे खोदने और पाटने का काम भी किया जाए, तो उसे भी सरकार को करना चाहिए। लेकिन किसानों को मजदूर बनाकर किस तरह से खेती का उद्धार किया जा सकता है? बजट में नरेगा की सफलता के कसीदे पढ़े गए, पूरे साल कहा जाता रहा कि राज्य सरकारों की तरफ से अनुपालन में çढलाई बरतने के कारण वांछित नतीजे नहीं मिल पा रहे हैं। दोनों बातें एक साथ सही कैसे हो सकती हैं? नरेगा को लेकर कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की बुंदेलखंड-यात्रा के बाद ही हजारों जॉब कार्ड की कलई खुली थी। वहां ज्यादातर लोगों को काम नहीं मिला और कई जगह जॉब कार्ड ग्राम प्रधान ने ही रख लिए थे। अंतरिम बजट में सबसे अधिक जिस उपलçब्ध पर सरकार अपनी पीठ ठोंक रही है, वह किसानों की ऋण माफी है। यह निश्चित है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के समय 15 हजार करोड़ रुपये की कर्ज माफी के बाद 65 हजार करोड़ रुपए की सबसे अधिक राशि इस मद में दी गई। लेकिन यह इस बार भी नहीं देखा गया कि इस ऋण माफी के बावजूद किसानों की आत्महत्याएं रुक क्यों नहीं रहीं? राष्ट्रीय किसान आयोग के अनुसार, 47 प्रतिशत लोग साहूकारों से कर्ज लेते हैं। 12 प्रतिशत लोग अपने परिजनों और परिचितों से। ऐसे में, बैंक ऋण का प्रतिशत 41 रहा। उसमें भी यह छूट उन्हें ही मिली, जो 31 मार्च, 2007 से पहले के पांच एकड़ से नीचे के जोत वाले कर्जदार थे। ऐसे में, बहुत सारे किसान बचे रह गए। यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी ऋण माफी की शतोZ में संशोधन के लिए कहा था।आंकड़ों की सफेदी से कालिख ढकने की कोशिश की जगह होना यह चाहिए था कि राशि आबंटन के साथ योजनाओं की समीक्षा और अपेक्षित संशोधन को तवज्जो दी जाती। इस समझदारी पर भी भरोसा करने का साहस दिखाया जाता कि क्षेत्रवार योजनाओं का स्वरूप बदलकर लागू किया जाए। योजनाएं वहीं से आएं, जहां की दिक्कतें है, तो शायद आंकड़ों से ज्यादा गांव की खुशहाली बोलने लगे।
(लेखक अमर उजाला से जुड़े हैं)

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