विजय प्रताप
राजस्थान से लोकसभा चुनाव लड़ रहे राजपरिवारों के इतिहास पर एक सरसरी नजर दौड़ाई जाए तो देश से गद्दारी के अलावा कोई अच्छा उदाहरण देखने को ही नहीं मिलता। इस चुनावों में समाज सेवा की पीड़ा को लेकर उतरे राजाओं का इतिहास यही कहता है, कि इन्होंने समाज सेवा के नाम पर यह समाज का केवल शोषण किया है। अपने से बड़े शासकों के सामने घुटने टेकना व उनके जनविरोधी नीतियों को लागू कर उन्हें खुश रखना ही इनकी संपत्ति रही है। एक नजर डालते हैं विभिन्न रियासतों के महाराजाओं के 1857 से लेकर 1947 तक के संक्षिप्त इतिहास पर -
1857 में उत्तर भारत के अन्य रियासतों के साथ ही जोधपुर रियासत में भी क्रांति का बिगुल बजा था। यहां एरिनापुर छावनी में अंग्रेजी सेना के भारतीय सिपाहियों ने सर्वप्रथम विद्रोह का झंडा बुलंद किया। आउवा के सामंत कुशल सिंह ने सिपाहियों को नेतृत्व प्रदान किया। क्रांतिकारियों ने ‘चलो दिल्ली मारो फिरंगी’ का नारा लगाते हुए दिल्ली की ओर कूच कर दिया। जोधपुर में नियुक्त अंग्रेजों के पाॅलिटीकल एजेंट मोंक मेसन का सिर कलम कर दिया गया। यह घटना आज भी जोधपुर के लोकगीतों में कुछ इस तरह से दर्ज है-‘‘ ढोल बाजे चंग बाजे, भालो बाजे बांकियो। एजेंट को मार कर दरवाजे पर टांकियो।’’ उस समय यहां के महाराजा तख्त सिंह ने क्रांतिकारियों का साथ देने की बजाए उन्हें रोकने के लिए अंग्रेजों को दस हजार सेना व 12 तोपों की सहायता मुहैया कराई। भीषण संघर्श में क्रांतिकारियांें के नेता कुषल सिंह को जान गंवानी पड़ी। हजारों क्रांतिकारी माने गए और राजपरिवार की गद्दारी के चलते आंदोलन दबा दिया गया। जोधपुर की तरह ही कोटा में भी 15 अक्टूबर 1857 में विद्रोह की ज्वाला भड़की थी। यहां क्रांतिकारियांे ने अंग्रेजों को खदेड़ कर उनके पिट्ठू महाराज रामसिंह द्वितीय को 6 महीने तक उन्हीं के महल में कैद रखा। अंग्रेजों के पाॅलिटिकल एजेंट मेजर बर्टन की हत्या कर उसके सिर को पूरे शहर में घुमाया गया। बाद में करौली रियासत के राजा ने अपनी फौज यहां अंग्रेजों की सहायता के लिए भेजी जिसकी मदद से विद्रोह दबाया गया। हजारों विद्रोहियों को पेड़ों पर लटका दिया गया। झालावाड़ जिले में स्थित गागरोन का किला अभी भी इस बात का गवाह है।अलवर और धौलपुर में भी प्रथम स्वाधीनता संग्राम के सिपाहियों ने अंग्रेजों व गद्दार राजाओं के छक्के छुड़ा दिए थे। धौलपुर में क्रांतिकारियों ने पूरे दो महीने तक वहां के महाराजा भगवंत सिंह के महल पर कब्जा किया रखा। उस समय धौलपुर के राजा ने अंग्रेजों से अपनी वफादारी की मिसाल के लिए आगरा के किले में क्रांतिकारियों से घिरे अंग्रेजों को बचाने के लिए अपनी सेना भेजी। लेकिन क्रांतिकारियों ने इस सेना को भी अछनेरा से पहले ही ढेर कर दिया। कुछ ऐसा ही इतिहास डूंगरपुर, जयपुर व मेवाड़ आदि रियासतों में भी रहा। किसी भी रियासत के राजा ने इस जनविद्रोह का साथ नहीं दिया। और इन्हीं राजाओं की सहायता से पूरे देश में आजादी के सूरज को उगने से पहले ही अस्त कर दिया गया।
आजादी मिलने के बाद यहां के रियासतदारों ने एक बार फिर अपनी गद्दारी का सबूत पेश किया। वह भारत में रहने की बजाए खुद को स्वतंत्र रखना चाहते थे। राजाओं ने देखा कि लोकतंत्र में उनकी दाल नहीं गलने वाली तो अपनी सौ वर्षों की चापलूसी व वफादारी के एवज में अंग्रेजों से खुद को स्वतंत्र रखने का अधिकार प्राप्त कर लिया। आज जो राजघराने भारत की सेवा करने को राजनैतिक मैदान में हैं वही कभी खुद को भारत से अलग रखना चाहते थे। जोधपुर के महाराजा तो एक कदम आगे जाते हुए जनआंकाक्षाओं के विपरित अपनी रियासत को पाकिस्तान में विलय के लिए राजी हो गए थे। इसमें भोपाल नरेश हमिदुल्ला खां व धौलपुर के महाराजा ने उसका साथ दिया। इन राजाओं ने यहां के महाराज हुनंवत सिंह की मोहम्मद अली जिन्ना से भी मुलाकात कराई। जब इसकी भनक कांग्रेस के नेताओं को लगी तो सरदार पटेल ने वी पी मेनन को जोधपुर की भारत में विलय की जिम्मेदारी सौंपी। मेनन ने हुनंवत सिंह को कई तरह का लालच देकर भारत में विलय को राजी करा लिया। वायसराय के सामने विलय पत्र पर दस्तख्त के बाद हुनवंत सिंह को लगा कि उसे ठग लिया गया है तो उसने मेनन पर पेन पिस्टल तान दी। हुनवंत सिंह ने विलय पत्र पर दस्तख्त भी पेन पिस्टल से ही किए थे। अलवर, भरतपुर व धौलपुर के राजा हिंदू महासभा के ज्यादा करीबी थे। अलवर के महाराज ने आजादी के बाद डाॅ बी एन खरे को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया। खरे महात्मा गांधी की हत्या के षडयंत्र में भी षामिल था। उसकी इस भूमिका के चलते ही भारत सरकार को अलवर में हस्तक्षेप का मौका मिला और उसे हटाकर वी एन वेंकटाचार्य को यहां का प्रशासक नियुक्त किया गया। उधर भरतपुर का राजा जनसंघ का ज्यादा करीबी था। उसने 15 अगस्त 1947 में भरतपुर में आजादी की खुशियाँ न मनाने का ऐलान किया। भारत सरकार से हुई संधि का उल्लंघन करते हुए उसने भरतपुर में बडे़ पैमाने पर अस्त्र शस्त्र के कारखाने शुरू किए और वहां निर्मित हथियारों का प्रयोग जाटों व जनसंघ कार्यकत्र्ताओं के माध्यम से मुसलमान विरोधी दंगों में किया गया।
राजस्थान के राजाओं की गद्दारी का यह केवल नमूना भर है। इस लोकसभा चुनाव में राजस्थान की जनता ऐसे राजघरानों के हाथों में अपनी बागडोर सौंपने जा रही है जिनका पूरा इतिहास ही जनविरोधी रहा है।
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