फास्ट फूडडिया प्रेम पर एक टिपण्णी

प्रदीप कुमार सिंह
दुनियां जितनी खुल रही है, प्रेम उतना ही संकीर्ण होता जा रही है। पता नहीं कब कौन जला भुना आत्मलीन प्रेमी चेहरे पर तेजाब फेक दे य गोली मार कर हत्या कर दे। धैर्य के अभाव में आज की युवा पीढ़ी वह सब कुछ कर दे रही है,जो वह करना चाहती है। अभी हाल में जो घटना सुनने को मिली उसमें यही कहां जा सकता है कि इस तरह के प्रेम में न तो परिपक्वता होती है और न प्रेम की समझ। ऐसी धटनाओं के अध्ययन से यह बात देखने को मिलती है कि ऐसे युवा अपने भावनाओं को न तो अपनी प्रेमिका के पास तक पहुंचा पाते है और न तो अपने घर परिवार, दोस्तों को ही बताते है। धीरे धीरे वह आत्मलीन हो जाता है। इस किस्म के लोग यह समझने लगते है कि समाज उनके हिसाब से चलना चाहिएं। इसलिए यह विकृति मनोरोग बन जाता है। उनकी दबी हुई भावना अंततः उसे हिंसा की तरफ उन्मुख कर देती है। इस तरह के मामलों में एक समय ऐसा आता है जब प्रेमी एकदम अकेला हो जा ता है। उसके सोचने समझने की क्षमता समाप्त हो जाती है। दूसरा सबसे बड़ा कारण पुरूष वर्चस्व और मानसिकता का है। सदियों से पुरूष महिलाओं को दबा कर रखा है। पुरूषों के अंदर यह भावना है कि वह तो सदियों से महिलाओं को देता आया है। प्रेम जैसी नायाब तोहफा वह अपने प्रेमिका को देना चाहता है, इसकी ये मजाल की लेने से इंकार कर रही है। आज की युवा पीढ़ी प्रेम को फास्ट फूड की तरह चाहती है। हाईप्रोफाइल टीवी धारावाहिकों ने इस प्रवृत्ति को और बढ़ा दिया है। यदि गहराई से देखा जाए तो इसका एक सामाजिक कारण है। समाज और संस्कृति के निर्माण की जो प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है,वह एक स्थान पर आकर रूक गई है। विगत वर्षो में हमारे समाज पर पाश्चात्य संस्कृति का बहुत गहरा प्रभाव पड़ां। आज हमारा समाज न तो पूरी तरह पश्चिमी संस्कृति को अपना पाया है। और न तो अपने पुराने नैतिक मूल्यों पर ही खड़ा है। संयुक्त परिवारों के टूटने और व्यक्ति के अपने काम से ही मतलब रखने से स्थितियां और भयंकर हो गई है। युवा वर्ग का असहिष्णु होना इस बात का द्योतक है कि नई पीढ़ी के निर्माण में आत्मविश्वास और सामुदायिकता का बोध नहीं है। हमारा युवा आत्मकेंद्रित,अक्रामक,धैर्यहीन और असहिष्णु हो गया है। यह सब अधूरे समाजीकरण का नतीजा है। यदि आत्मविश्वास नहीं है तो धैर्य भी नहीं होगा। इसके अभाव में लोग प्रतिकूल परिस्थितियों में संयम से काम नहीं ले पाते है। जल्दी आपा खो देते है। वह धैर्य ही है जो सभ्य और असभ्य के बीच अंतर को स्पष्ट करता है। युवाओं म ंअहंकार,आत्मकेंद्रीयता और में हूं, मेरा कोई क्या कर लेगा,जैसे भाव अपनी सुदृढ़ जगह बनाते जा रहे है। इसके आलोक में मनुष्य की राक्षसी प्रवृति साधुता पर हावी होती जा रही है। सामाजिक विद्रूपता का एक कारण समाज में बहुत तेजी के साथ नवदौलतियां वर्ग का उभरना भी है। नव धनाड्य वर्ग में अपनी संतान का लालन पालन का तरीका बिल्कुल भिन्न है। उसमें समाज की जगह बहुत सिकुड़ी हुई है । सामाजिक सारोकारों से ऐसी संतानों का वास्ता सीमित है। कानून व्यवस्था के बारे में यही समझ विकसित होती चली जा रही है कि रसूख और पैसे के प्रभाव में कुछ भी किया जा सकता है। अपराधी छूट सकते है और छोटे मोटे अपराध की सजा से निजात पाई जा सकती है। इससे युवा के भीतर न तो कोई सामाजिक भय है और नही अपने दायित्व। तब फिर वह अपने प्रेमिका के शादी से मना कर देने पर तेजाब फेक दे रहा है,या गोली मार देने की घटनाओं को अंजाम देने से नहीं चूक रहा है। ठेठ उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में तो प्रेम करने पर जान से हाथ धेना पड़ता है। खुद परिवार वाले वहशियाने तरीके से इस क्रूरता को अंजाम देते है। वहां प्रेम विवाह करने वाले पति पत्नी को भाई बहन बना दिया जाता है। प्रेम,विवाह, समाज और कानून जब तक अपने संबंधों को की स्पष्ट सीमा रेखा का विभाजन नहीं कर लेते है। तब तक इस समस्या का कोई सार्थक हल नहीं निकल सकता है। भावना का यह रिस्ता कितने लोगों के लिए खेल है। प्यार जैसे नाजुक रिश्तों पर अति आधुनिक आदमी भी दोहरा मानदंड रखता है। जब तक इस पर स्वस्थ बहस और एक मानदंड नहीं तय होगा तब तक ऐसी विकृतिया जन्म लेती रहेगी।

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