शाहनवाज आलम
पिछले दिनों भाजपा की कार्यकारिणी बैठक में लोकसभा चुनाव की समीक्षा पर जिस तरह की वैचारिक अराजकता दिखी उससे 14वें लोकसभा की हार के बाद उत्पन्न स्थितियों की यादें ताजा हो गई हैं। भाजपा इस बार भी पिछली बार की तरह ही अपनी हार की सही समीक्षा करने और भविष्य की दिशा तय करने में नाकाम साबित हुई है। इस बार भी उसके एक धड़े ने हार का कारण हिंदुत्व से विमुख होना माना और फिर से अपनी जड़ों की ओर लौटने पर जोर दिया तो वहीं दूसरे धड़े ने हिंदुत्ववादी अपील को ही चुनावी हार की वजह बताते हुए हिंदुत्व से दूरी बनाने की वकालत कर डाली। इस तरह मु य विपक्षी दल की कार्यकारिणी बैठक में अपनी हार की वजहें और भविष्य की दिशा को लेकर दो धुर विरोधी व्या याओं के साथ समाप्त हुए। लेकिन क्या ये अंतरविरोधी व्या याएं भाजपा जैसी कथित अनुशासित पार्टी के अंदरूनी अराजकता और पार्टी पर सवोüच्च नेतृत्व की कमजोर पकड़ का परिणाम है या बदले हुए राजनीतिक सामाजिक परिदृश्य में यह उसकी नियति बन गई है। अगर पिछले एक दशक के भाजपा की राजनीति पर नजर दौड़ाई जाए तो दूसरा मूल्यांकन ही ज्यादा सटीक लगता है।दरअसल भाजपा आज दो तरह की पृष्ठभूमि और कार्यशैली वाले लोगों का मंच बन गई है। एक तरफ स्वप्न दास, सुधीर कुलकणीü, जसवंत सिंह और यशवंत सिन्हा जैसे गैर संघी पृष्ठभूमि से आने वाले नेता हैं। जो कई मुद्दों पर जिसके लिए संघ परिवार जाना जाता है, भिन्न मत रखते हैं और भाजपा को किसी भी दूसरी पार्टी की तरह ही भारतीय लोकतंत्र की एक और सामान्य पार्टी मानते हैं। तो दूसरी ओर खांटी संघी पृष्ठभूमि के लोग हैं जो भाजपा को संघ के हिंदूराष्ट्र के एजेंडे को लागू करने का राजनीतिक हथियार मानते हैं। कार्यकारिणी की बैठक से पहले चुनाव में हार की समीक्षा न होने का आरोप पार्टी नेतृत्व पर पहला धड़ा ही लगाता रहा है। उसी ने मीडिया में संघ और हिंदुत्व के एजेंडे को हार का सबब बताते हुए लेख और पत्र जारी किए। इस धड़े को विश्वास था कि किसी भी सामान्य पार्टी की तरह भाजपा में भी हार के कारणों पर ग भीर समीक्षा हो सकती है। जबकि दूसरा धड़ा इस तरह के किसी समीक्षा का न तो पक्षधर है और न ही इसे वो जरूरी मानता है क्योंकि उसकी ट्रेनिंग ही इस तरह हुई है कि वो हार-जीत से बिना विचलित हुए भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए खटते रहना अपना धर्म मानता है।यह दूसरा खांटी संघी धड़ा ही चुनाव समीक्षा की मांग करने या हिंदुत्व से दूरी बनाने की वकालत करने वालों पर भाजपा का कांग्रेसीकरण करने का आरोप लगाता रहा है। यहां कांग्रेसीकरण का मतलब गैर हिंदुत्ववादी या सेकुलर सवालों जैसे विकास आदि को उठाने से है। यह धड़ा जानता है कि अगर भाजपा इन मुद्दों को उठाएगी तो उसमें और कांग्रेस में फर्क मिट जाएगा जिसके बाद भाजपा का अस्तित्व खटाई में पड़ना तय है। कार्यकारिणी की बैठक में यही वैचारिक टकराव खुलकर सामने आ गया। जिसके चलते पार्टी न तो अपने वर्तमान का मूल्यांकन कर पाई और न ही भविष्य के एजेंडे को तय कर पाई कि उसे अगले पांच वर्ष तक विपक्ष में बैठकर करना क्या है। ठीक ऐसी ही ऊहापोह की स्थिति 2004 के चुनावों में हार के बाद भी उपजी थी। एक तरह से भाजपा पिछले पांच सालों में मानसिक तौर पर जहां की तहां पड़ी हुई है और यह उसकी नियति भी है, क्योंकि दोनों में से किसी एक धड़े के एजेंडे पर बढ़ना उसके लिए आत्मघाती होगा। अगर वो हिंदुत्व से विमुख होने की कोशिश करती है तो उसे अपने पार परिक जनाधार से हाथ धोना पड़ेगा और अगर शुद्ध हिंदुत्ववादी नारों की तरफ लौटती है तो उससे जुड़ा नया मध्यवर्ग भाग जाएगा।ऐसे में यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि भाजपा इस बार भी विपक्ष में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा सकती। दरअसल संसदीय प्रणाली जिसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की ही समान रूप से महत्वपूर्ण भूमिका होती है, भाजपा जैसी फासिस्ट पार्टी के मिजाज के ही अनुरूप नहीं है। इसलिए एनकेन प्रकारेण सत्ता में पहुंच कर वो अपने गुप्त एजेंडे को तो लागू कर सकती है लेकिन भाजपा के लिए विपक्ष की भूमिका, खासतौर से अगर सत्ता पक्ष गैर सा प्रदायिक मुद्दों और आम आदमी के साथ होने की ल फाजी कर सत्ता में आई हो तो और भी दुरुह हो जाती है। इसलिए हमने देखा कि 2004 में सत्ता से हटाए जाने के बाद भाजपा आम आदमी के रोजमर्रा के किसी भी मुद्दे पर संप्रग को सड़क या संसद में घेरने के बजाय राष्ट्रपति के सामने सरकार के खिलाफ ज्ञापनों की झड़ी लगाती रही। उसे मालूम था कि आम आदमी से जुडे़ और गैर हिंदुत्वादी मुद्दों पर बोलने से जनता उसके इर्द-गिर्द नहीं आने वाली क्योंकि उसके और उसके द्वारा तैयार की गई जनता के बीच के रिश्ते की बुनियाद ऐसे मुद्दे नहीं हैं। इसलिए उसने एक तरफ तो संसदीय लोकलाज के चलते महंगाई और किसानों की आत्महत्या जैसे मुद्दों पर ज्ञापन सौंपकर अपनी जि मेदारी से बच निकलने की कोशिश की तो वहीं दूसरी ओर अपनी प्रासंगिकता और जनाधार बनाए रखने के लिए उसने रामसेतु और श्राइन बोर्ड जैसे हिंदुत्ववादी एजेंडे पर सरकार को घेरने के लिए संसद और उसके बाहर नाकाम कोशिशें कीं।दरअसल एक रचनात्मक विपक्ष की भूमिका कैसे निभाई जा सकती है, भाजपा के पास न तो इसका कोई इतिहास है और न ही अनुभव। अगर उसके पूर्ववतीü संस्करण जनसंघ के इतिहास को भी खंगालें तो उसमें कभी विपक्ष में रहते हुए आम जनता के मुद्दों को उठाने के नजीर नहीं मिलेंगे। उस समय भी उसके लिए देश के सबसे ज्वलंत सवाल गो हत्या और मुसलमानों की बढ़ती आबादी ही थी। उनके अटल-आडवाणी सरीखे पितामह भी इस मामले में अनुभव शून्य हैं। ऐसे में अगर कार्यकारिणी की बैठक में सतह पर आ गई अराजकता और ऊहापोह की स्थिति भाजपा में स्थायी स्वरूप लेकर उसे अगले पांच वर्षों तक मु य विपक्षी दल के बतौर अप्रासंगिक बना दे तो आश्चर्य नहीं होगा।
शाहनवाज़ स्वतंत्र पत्रकार हैं।
कार्टून - अभिषेक
2 comments:
अच्छा विश्लेषण...
शाहनवाज़ जी को बधाई...
bhadai ho bhadai
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