विजय प्रताप
...तो मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल जी के पास भी इस बात का जवाब नहीं की इलाहबाद में पत्रकारिता की शिक्षा का नीजिकरण सही है या गलत. गुरुवार को नई दिल्ली में एक प्रेस कोंफ्रेंस में दैनिक जागरण के पत्रकार ने इलाहाबाद के पत्रकारिता विभाग के छात्रों का मुद्दा उठाया तो वह बगले झांकने लगे. मंत्री ने गोलमोल सा जवाब दिया "सभी को साथ लेकर चलने की जरूरत है।"
इसका क्या अर्थ लगाया जाना चाहिए. आन्दोलन कर रहे छत्र सभी को साथ लेकर चलने को तैयार हैं. क्या कपिल सिब्बल जी हमारे साथ चलेंगे? क्या उनकी सरकार अपने नुमाइन्दे कुलपति से यह पूछ सकती है की वह छत्रहितों के खिलाफ यह निजीकरण क्यों कर रहे हैं? क्या वह ये भी नहीं पूछ सकते की मीडिया को जो नया पाठ्यक्रम शुरू करने जा रहे हैं क्या वह यूजीसी के नियमों को पूरा करता है?
साथियों, इसका जवाब सिर्फ 'नहीं' होगा. क्योंकि यह वही कपिल सिब्बल साहब हैं जिन्होंने अभी थोड़े दिन पहले प्राथमिक शिक्षा को दूकान का माल बनाने के लिए "सबको शिक्षा का अधिकार" का नारा दिया. नीजि कम्पनिया भी कुछ ऐसा ही नारा दिया करती हैं. क्योंकि उनको पता है की इस "सब" का मतलब केवल उन्हीं से है जिनकी जेब में पैसा है. मुरली मनोहर जोशी के बाद निजी कंपनियों और पूंजीपति घरानों ने अब कपिल जी को अपना निजीकरण का रथ हांकने का ठेका दिया है. और कपिल सिब्बल उनकी उम्मीदों पर खरे उतरने की बखूबी कोशिश कर रहे हैं. इसलिए यह जानकर की इलाहाबाद में उनके चेलों ने उनके रथ से दो कदम आगे चलते हुए, पहले ही निजीकरण शुरू कर दिया है, तो वह नाराज कतई नहीं होंगे. यह जरुर है की सामने जनता हो तो वह कुलपति को दो-चार बातें सुना दें, उनके चाटुकार जी.के. राय को इतने छोटे स्तर पर निजीकरण करने के लिए हटा दे. लेकिन मकसद उनका भी कुछ ऐसा ही है. वह शायद इससे बड़े स्तर पर निजीकरण की आश लगाये हों.
मुख्य धारा की मीडिया भी आज यही चाहती है की समाज की बात करने वाले जीवजन्तु उससे सौ कोस दूर रहे. इसलिए वह खुद के मीडिया संसथान खोल रही है. वहां आप थैले भर पैसा लेकर जाईए, वह आपको सनसनाते हुए एक डिग्री पकडा देगें. अब यह आप पर है की उसके बाद अपना पैसा कैसे वसूल करते हैं. आप चाहे सनसनी बेचिए, आप अखबारों में खबरे बेचिए, लोगों की अस्मत बेचिए, उनके आंसू, बेडरूम-बाथरूम के सीन बेचिए और इससे भी दिल नहीं भरे तो पूरा अखबार या चैनल बेच दीजिये. आपको पूरा अधिकार है, आपने इतने पैसे खर्च कर डिग्री जो खरीदी है.
हालाँकि इलाहाबाद के छात्र आन्दोलन को देख ये साफ़ है की कुछ लोग हैं जो इस खरीद बेच के सौदे से दूर असल पत्रकारीता के लिए लड़ रहे हैं. यह छात्र आन्दोलन इस बात की तस्दीक है की, निजीकरण के इस रथ को रोकने का हौसला केवल यही युवा पीढी कर सकती है. वैसे भी इलाहाबाद की धरती ऐसे कई आंदोलनों का गवाह बन चुकी है. यहाँ के आन्दोलनों ने हर बार बदलाव की कहानी लिखी है. इस बार इस आन्दोलन की डोर समाज के सबसे सजग माने जाने वाले तबके ने संभाली है. इसे मिल रहे जनसमर्थन को देख ऐसा लगता है, की इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रशासन की अपने फैसले पर पछतावा हो रहा होगा, वह लगातार आन्दोलनरत छात्रों को डरा धमका उन्हें तोड़ना चाहता है. लेकिन यकीं मानिए ऐसे हौसलों के दम पर ही दुनिया टिकी है.
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