लोकतंत्र में राजशाही के नामलेवा

विजय प्रताप

राजस्थान में आजादी पूर्व कोटा रियासत के महाराव थे, बृजराज सिंह। आजादी के बाद जब सभी रियासतों के अधिकार छीने जाने लगे तो इसका सबसे ज्यादा व संगठित प्रतिरोध राजस्थान के रजवाड़ों ने किया। यहां राजाओं ने न केवल चुनाव लड़ा बल्कि कई आम चुनावों तक राजस्थान में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुलने दिया। उसी दौरान बृजराज सिंह भी अखिल भारतीय स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर झालावाड़ से सांसद चुने गए। स्वतंत्र पार्टी का सूरज अस्त होने के बाद जनसंघ से राजनीति की और फिर राजनीति से सन्यास ले लिया। बृजराज सिंह कहने को तो लोकसभा में जनता का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, लेकिन वास्तव में वह आजादी के बाद नई राजनैतिक व्यवस्था में अपनी रियासत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। यही हाल राजस्थान के अन्य सांसद रूपी राजाओं का भी था। अस्सी वर्शीय बृजराज सिंह अपनी जीवन शैली व कार्यप्रणाली में अभी भी 60 साल पहले के भारत में जीते हैं। अपने महलों की चारदीवारी से बाहर सार्वजनिक जीवन में भी एक राजा से कम जैसा बर्ताव नहीं करते। प्रषासन को विभिन्न समस्याओं पर अपने विषेश लेटर पैड जो उनकी पूर्व रियासत व उन्हें महाराव के रूप में प्रतिबिम्बित करता है पर रोजना एक पत्र लिखते हैं, और जनता के समस्याओं पर ध्यान देने की सलाह देते हैं।
पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के टिकट से उनके पुत्र इज्यराज सिंह संसद पहुंचे। वेषभूशा में अत्याधुनिक से दिखने वाले युवा इज्यराज सिंह ने विदेष से पढ़ाई की है। सार्वजनिक सभाओं में खुले दिल से प्रगतिषील बातें करते हैं। लेकिन यह विचारों का खुलापन उनके महल की चारदीवारियों में जाते ही जड़ हो जाता है। फिर वह लोकतंत्र प्रतिनिधित्व करने की बजाए एक पूर्व रियासत के ‘महाराज कुमार’ होते हैं। उनकी कार्यप्रणाली व जीवनषैली भी बृजराज सिंह का अनुषरण करती दिखती है। पिछले दिनों हमारे एक मित्र ने उनकी कुछ तस्वीरें दिखाई। यह नवरात्र के दौरान उनके महल में देवी पूजन से पहले की तस्वीरें थी। पूजा स्थल पर लग्जरी वाहन से उतरने के तुरंत बाद एक वृद्ध दिखने वाला व्यक्ति, उनका थाली में पैर धुलकर स्वागत करता है। हमारे यहां पैर धुलने की परंपरा काफी पुरानी है। वह उसी का निर्वहन करते दिखता है। लेकिन आष्चर्य तब होता हैै, जब दूसरी तस्वीर में वह उस पैर धुले पानी को मुहं से लगाकर पी जाता है। उस दौरान भी इज्यराज सिंह के चेहरे पर कोई शिकन नहीं पड़ती बल्कि उसकी जगह हमेशा तैरने वाली एक हल्की ‘निर्लज्ज’ मुस्कान दिखती है। एक सांसद का ऐसा व्यवहार मुझे लोकतंत्र के लिए घातक लगता है। यह तस्वीर अखबार में प्रकाषित हो जाती तो एक राजनैतिक तूफान जरूर खड़ा करती। तस्वीर हमारे अखबार के मुख्य संवाददाता भी देखते हैं, लेकिन उन्हें उसमें कोई खास बात नजर नहीं आती। वह इसे परंपरा बता आया-गया कर उन्हें ऐसा करते देख मुझे बड़ी कोफ्त होती है, लेकिन मैं कुछ नहीं कर पाता।
इज्यराज सिंह के लिए भी यह एक सामान्य राजषाही परंपरा थी। वह सार्वजनिक जीवन में ऐसी कई और परंपराओं का निर्वहन बेहिचक करते हैं, जिसे गणतंत्र की स्थापना के समय लोकतंत्र विरोधी मानकर त्याग ने का संकल्प लिया गया था। वह आज भी दषहरे के दिन अपने महल में शहर के सभी बड़ी हैसियत वाले लोगों को बुलाकर उनका स्वागत करते हैं। इसे ‘दरी खाने’ की रस्म कहा जाता है। इस दौरान सभी राजशाही वेषभूशा में सजे ये लोग किसी पुराने राजघराने के राजा-महराजाओं की याद दिलाते हैं। कोटा में दशहरा के दिन रावण दहन से पहले राजघराने के राजकुमार द्वारा रावण के अमृत-कलश को तीर धनुश से वेधने की परंपरा है। इज्यराज सिंह सांसद बनने से पहले भी इस परंपरा का निर्वहन करते रहे हैं और सांसद बनने के बाद भी इस वर्श इस परंपरा का निर्वहन करते दिखे। वह जब कभी अपने संसदीय क्षेत्र में होते हैं तो एक पत्रकार के रूप में उनसे अक्सर सामना होता है, लेकिन मेरे लिए यह समझ पाना मुष्किल होता है कि वह एक सांसद के रूप में हैं या ‘महाराज कुमार’ के रूप में। इसके कुछ वाजिब कारण भी हैं। वह जितने दिन भी shहर में होते हैं सरकारी वाहन से चलने की बजाए अपने निजी वाहन से चलते हैं। सरकार का पैसा बचाने के लिए नहीं बल्कि कुछ और कारणों से। शायद यह भी उनके निजी जीवन का कोई राजशाही निर्णय हो। उनका वाहन चालक एक विशेष वर्दी में रहता है। उसकी वर्दी पर लगे सितारे और कुछ निषानों से यह जान पड़ता है किसी कोटा रियासत का कारिंदा है। सार्वजनिक सभाओं में छुट्टभैय्ये नेता एक सांसद के रूप में कम महाराज कुमार के रूप में ज्यादा जयकार करते हैं।
सांसद इज्यराज सिंह को इस रूप में देखकर मुझे अक्सर कांग्रेस के एक नेता की प्रेस वार्ता याद आती है। लोकसभा चुनाव में जीत के कुछ महीनों बाद कांग्रेस ने एक सरर्कुलर जारी कर अपने सभी नेताओं व सांसदों से अपील की थी कि वह पूर्व राजशाही व उससे जुड़े पदनामों का प्रयोग न करें। यह भारतीय संविधान की मूल अवधारणा के खिलाफ है। कांग्रेस ने मीडिया से भी ऐसे लोगों का नाम लिखते समय पूर्व महाराजा, राजकुमार या राजकुमारी षब्द का प्रयोग नहीं करने की अपील की गई थी। यह कदम कांग्रेस चुनाव से पहले नहीं उठा सकती थी क्योंकि उसी ने सबसे ज्यादा राजा-महाराजाओं और उनके परिवार वालों को टिकट दिए। उस समय राजपरिवार का सदस्य होना जीत की गांरटी की तरह थी क्योंकि ऐसे लोगों के पास इफरात में पैसा होता है जिससे वह किसी को भी खरीदने की हैसियत रखते हैं। ऐसे लोगों पर पार्टी को भी कम खर्च करना पड़ता है।
राजस्थान की 25 लोकसभा सीटों में से कांग्रेस ने करीब 6 व भाजपा ने 5 पूर्व राजपरिवार सदस्यों को टिकट दिए। इज्यराज सिंह उसी में से एक हैं। लोकतंत्र में आमजन या पार्टी कार्यकर्ताओं की बजाए ऐसे सामंती तत्वों को प्रश्रय देना राजनैतिक पार्टियों की आखिर कौन सी मजबूरी है? कौन सी मजबूरी कांग्रेस को इज्यराज सिंह जैसे राजशाही के गर्त में डूबे लोगांे को साथ लेकर चल रही है। दरअसल हकीकत में कांग्रेस का राजतंत्र विरोध केवल दिखावा मात्र है। संविधान की किताब में राजा-महाराजओं का वजूद तो खत्म हो गया लेकिन रस्सी की ऐंठन आज भी बाकी है। आज भी कांग्रेस के ऐसे नेता अपने क्षेत्रों में किसी सांसद या जनप्रतिनिधि की हैसियत की बजाए पूर्व महाराजा, राजकुमार, या राजकुमारी के रूप में ही जाना पसंद करते हैं। इसी में वह अपना वजूद तलाषते हैं।
तस्वीरे भी कुछ कहती हैं


2 comments:

रवि कुमार, रावतभाटा said...

अच्छी रिपोर्ट...
सही है बल बड़ी मुश्किल से जाता है..या नहीं...

हमारे व्यवहार से ही अभी सामंत गायब नहीं हुआ है..

Rahul Priyadarshi 'MISHRA' said...

शर्म आनी चाहिए सामंतवाद की शेखी बघारते इन राजनेताओं को.