'वीकेंड प्रोटेस्ट प्रोग्राम' : विरोध की नौटंकी अब और नहीं


विजय प्रताप*
‘‘इस वीकेंड पर भी मैं एक प्रोटेस्ट मार्च में गया था। पिछली बार तो हमने मोमबत्तियां जलाई थी, लेकिन इस बार हमने काली पट्टी बांध थी। हाथों में तख्तियां लिए जब हम निकले तो बाहर पुलिस वालों ने हमें घेर लिया। लेकिन फिर भी हम चलते रहे। इस बार तो बड़ा मजा आया। वहां बहुत बड़े-बड़े लोग आते हैं, पत्रकार साहित्यकार टीवी चैनल वाले। अगले वीकेंड पर कोई प्रोटेस्ट होगा तो तुम भी चलना।’’ अगर मैं बच्चा होता तो अपने साथी से कुछ ऐसी ही बातें करता। लेकिन अफसोस की मैं बच्चा नहीं हूं।
अफसोस यह भी है कि इस वीकेंड प्रोटेस्ट मार्च के आयोजकों में मेरा भी नाम था। लेकिन मुझे उम्मीद नहीं थी कि कार्यक्रम की रूपरेखा ऐसी होगी। कहने को यह ‘विरोध मार्च’ था लेकिन इसमें विरोध जैसा कुछ नहीं था। प्रेस क्लब के तत्वावधान में आयोजित इस कार्यक्रम के सफल आयोजन के लिए क्लब के पदाधिकारियों में निश्चित तौर पर एक उत्साह था। क्लब के महासचिव पुष्पेन्द्र कुलश्रेष्ठ 'बेटी के ब्याह' जैसी तैयारियों में जुटे थे। उनके उत्साह का अंदाजा इन वाक्यों से लगाया जा सकता है ‘‘जब से यह कार्यक्रम तय हुआ है दिल्ली के सभी बड़े अधिकारी परेशान हैं। फोन कर-करके पूछ रहे हैं कि कितने लोग आएंगे, कहां तक रैली निकालेंगे।’’ वह उत्साहित इसलिए भी थे कि ‘‘पिछले चार सालों में प्रेस क्लब से इतना बड़ा विरोध मार्च नहीं निकला।(शायद आज से पहले पत्रकारों के सामने को संकट नहीं आया था-टिपण्णी मेरी) यहां जितने हम लोग इकट्ठे हैं उतनी ही बाहर पुलिस लगी है।’’
संख्या के लिहाज से कहें तो आयोजन सफल रहा। चूंकि साप्ताहिक छुट्टिी थी, स्कूल-कॉलेज, ऑफिस सब बंद थे। शाम का समय और मौसम भी अनुकूल था (दिन में तो आजकल कितनी धूप होती है, उस समय कौन बाहर निकलेगा, शाम को कुछ घूमना टहलना भी हो जाएगा, कुछ पुराने लोगों से मुलाकात भी हो जाएगी) सो, अच्छी संख्या में लोग पहुंचे। कुछ क्लब के आंगन में रखी कुर्सियों पर विराजमान थे तो कुछ पुराने बिछड़े लोगों से मिलने में व्यस्त थे। डेमोक्रेटिक चेहरे वाले लोग एक दूसरे को पहचान-पहचान का खुश थे,( ‘‘अरे आप भी आएं हैं। पिछली बार आपसे जन्तर-मन्तर पर मुलाकात हुई थी। या ‘‘अरे आप से तो फलां विरोध में भी मुलाकात हुई थी।’’) विभिन्न कैम्पसों से आए पत्रकारिता छात्र बड़े पत्रकारों को देखकर ही आह्लादित थे। लोग खुश थे कि देखो आज वो फिर विरोध करने आ गए हैं।
कार्यक्रम की शुरुआत हमेशा की तरह नियत से थोड़ा विलम्ब के बाद समय पर हो गया। जितने लोग कुर्सियों पर थे, उतने ही घेरा बनाकर खड़े थे। पहली कड़ी के रूप ‘‘एक मिनट में भाषण खत्म करो प्रतियोगिता’’ में बारी-बारी से वक्ताओं को बुलाया जाने लगा। वक्ताओं में से ज्यादातर प्रतियोगिता के नियम विरुद्ध एक मिनट के बाद अपना भाषण खत्म करने की जल्दीबाजी में दिखे। सभी को निरुपमा को न्याय दिलाने की चिंता थी। सीबीआई जांच की मांग रखी। वक्ताओं में मेरा नाम भी पुकारा गया। और जैसा कि मुझ आज तक जब भी बोलने का मौका मिला है या यूं कहें कि जब भी माइक पकड़ता हूं तो लगता है कि जन्तर-मन्तर पर माइक बंधा है और सामने जनता का हुजूम उमड़ा है। और उन्हें सिर्फ आक्रामक शैली में ही उन्हें कुछ समझाया जा सकता है। मेरा यही व्यवहार यहां भी दिखा। इलाहाबादी छात्रनेताओं की तरह सबकुछ उखाड़-पखाड़ कर फेंक देने के अंदाज में एक सज्जन को मेरा गृहमंत्री को युद्ोन्मादी कहना काफी नागवार गुजरा। चूंकि सज्जन प्रेस क्लब के बीयर बार(क्लब को लोग इस रूप ज्यादा जानते हैं ) से कुछ देर पहले ही निकले थे और इसका अंदाजा मुझ उनके पास खड़े होकर और उनके व्यवहार को देखकर पहले ही हो गया था, इसलिए मैंने भी उन्हें डांटकर चुप्प कराना ही उचित समझा। खैर मुझे अंदाजा तो यह भी नहीं था कि सामने बैठे लोग बुद्जिीवी और पत्रकार हैं जो शांति से कुछ कहने पर भी समझ सकते हैं। लेकिन मैं जितनी भी देर बोला तेज आवाज में ही बोलता रहा। भाषण के बाद उनका निरुत्साह देखकर मुझे अपनी गलती का कुछ ऐहसास हुआ। आईआईएमसी के प्रोफेसर आनंद प्रधान और एडवा की हरियाणा से आई एक महिला कामरेड को भी कुछ ऐसे ही अंदाज में बोलते देख मुझे लगा कि चलो ‘मैं ही अकेला नहीं हूं।’ और इस तरह 15-20 मिनट में "एक मिनट में भाषण खत्म करो प्रतियोगिता" भी खत्म हो गई। हां, प्रतियोगिता के दौरान ही फोटो सेशन भी शुरु हो चुका था। किनारे खड़े लोग हाथों में निरुपमा को न्याय (अंग्रेजी में) दिलाने की मांग लिखी तख्तियां व उसकी तस्वीर लिए फोटो खिंचाने लगे थे। भाषण देने के बाद में भी एक तख्ती पकड़कर खड़ा हो गया यह जानते हुए भी कि कल अखबारों में कुछ सुंदर लड़कियों की तस्वीरें ही आनी है। यह सर्वथा एक नियम बन चुका है। वहां मौजूद कुछ लड़के भी इस नियम को जान चुके थे सो वह लड़कियों के आस-पास जगह बनाने में जुटे थे।
कार्यक्रम की दूसरी कड़ी के रूप में क्लब के महासचिव पुष्पेन्द्र कुलश्रेष्ट ने घोषणा कि ‘‘हम क्लब के गेट से गृह मंत्रालय की ओर मार्च करेंगे। लेकिन रास्ते में हमें जहां पुलिस रोकेगी वहीं हम अपना मेमोरेन्डम दे देंगे। हमें नारा नहीं लगाना है (वरना कोई सुन लेगा की हम निरुपमा को न्याय दिलाने की मांग कर रहे हैं ). जब तक मैं जेयूसीएस के बुलावे पर जामिया व अन्य कैम्पसों से आए छात्रों को एकत्रित कर बाहर निकलता, जुलूस का अगला सिरा (जहां के वरिष्ठ लोग थे) इलेक्ट्ानिक व प्रिंट मीडिया के कैमरों के चुम्बकीय आकर्षण में चिपककर आगे बढ़ चुका था। खैर 15 अगस्त की प्रभात फेरी को याद करते हुए हम सभी लाइन में लग कर आगे बढ़ने लगे। केन्द्रीय सचिवालय चौराहे पर रूके ट्ैफिक को देखकर कर मैं मन ही मन खुश होने लगा ( जरा इन लोगों को भी तो पता चले कि वो क्यों रूके हैं और हम क्यों मार्च निकाल रहे हैं।) लेकिन मेरी यह ख़ुशी बहुत देर तक नहीं रही। अभी हमने सौ कदम चलकर सड़क पार ही किया था कि आगे पुलिस का बैरिकेड मिल गया और जब तक मैं उनके करीब पहुंचता जुलूस के खत्म होने की घोषणा हो चुकी थी। आयोजक-प्रायोजक टीवी चैनलों के कैमरों के सामने अपना विरोध दर्ज कराने में जुटे थे। बहुत निराशा हुई। जिस उत्साह से हम यहां पहुंचे थे वह पांच मिनट में ही खत्म हो गई। न नारा न स्लोगन. न पुलिस से कोई गुत्थम-गुत्था़। बैरिकेड हटाने की भी अपील नहीं की गई। और जुलूस खत्म हो गया। शायद पुलिस के सिपाहियों को ही ज्ञापन की कॉपी सौंप दिया हो । निराशा भरे स्वर में मैंने एक आयोजक से पूछा भी ‘क्या कोई डेलिगेशन मिलने जाएगा।’ उन्होंने इंकार कर दिया, ‘फैक्स से कॉपी भेज दी जाएगी।’ मन में यह सवाल उठा जब फैक्स से ही भेजना था तो हमें बुलाया क्यों। जामिया व नोएडा से आए हमारे साथियों को भी ऐसे कार्यक्रम की उम्मीद नहीं थी। उनकी भाषा में कहें तो '‘पैसा डांढ गया।'’
कुल मिलाकर इस वीकेंड का प्रोटेस्ट भी कुछ-कुछ पिछले वीकेंड जैसा ही था। पिछली बार हम ‘‘रंग दे बसंती’’ स्टाइल में इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाने वाले थे, लेकिन पुलिस ने वहां ऐसा करना से माना कर दिया। हम अच्छे बच्चों की तरह मान गए। लेकिन उसी दिन और उसी समय हमने जन्तर-मन्तर पर मोमबत्तियां जलाई और मीडिया वालों के कैमरे जिधर इशारा करते गए हम उधर बढ़ चले। निरुपमा को न्याय दिलाने के लिए यह लगातार दूसरा "वीकेंड प्रोटेस्ट प्रोग्राम" था। इन दोनों में भाग लेने और काफी सोच विचार के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि अगले वीकेंड पर अगर कोई फिर प्रोटेस्ट होगा तो मैं वहां नहीं जाउंगा। निरुपमा को न्याय दिलाने के नाम पर अब मैं उसके साथ और अन्याय नहीं कर सकता। निरुपमा की हत्या के बाद ऐसी कितनी घटनाएँ सामने आ चुकी हैं, लेकिन लोग निरुपमा के दायरे से बाहर ही नहीं निकलना चाहते. हमारे इन वीकेंड विरोधों से ही सरकार अभी तक इस पर चुप्पी साधे हुए है. सुविधाजनक विरोध की यह नौटंकी हमशे अब और नहीं होगी.

* यह एक स्वतंत्र पत्रकार के बतौर मेरे निजी विचार हैं। यह मेरी डायरी के कुछ फुटनोट्स हैं, मैं जिस संगठन (जेयूसीएस) से जुड़ा हूं उसका इन विचारों से कोई लेना देना नहीं है।

4 comments:

Randhir Singh Suman said...

nice

रवि कुमार, रावतभाटा said...

दोस्त अपनी बखिया उधेड़ना इसे ही कहते हैं...
बिना इस तरह के जमीनी विश्लेषण के सही दिशा तय नहीं की जा सकती...

बहुत अच्छा लगता है...सचेत रहना...

नवीन कुमार 'रणवीर' said...

साथी ये बात सही है कि पहले से तय प्रोग्राम में था कि हम क्या करेंगे और क्या नहीं।
अगर जनता की आवाज़ और सरकार में दूर केवल प्रेस क्लब से गृह मंत्रालय की गली तक ही होती तो प्रेस क्लब की आवश्यकता ही नहीं होती। सब आलसी हो गए है, गेट-टूगेदर करनें आए थे।

नवीन कुमार 'रणवीर' said...

साथी ये बात सही है कि पहले से तय प्रोग्राम में था कि हम क्या करेंगे और क्या नहीं।
अगर जनता की आवाज़ और सरकार में दूर केवल प्रेस क्लब से गृह मंत्रालय की गली तक ही होती तो प्रेस क्लब की आवश्यकता ही नहीं होती। सब आलसी हो गए है, गेट-टूगेदर करनें आए थे।