विजय
प्रताप
उत्तर प्रदेश में
राज्य सरकार ने प्राथमिक स्कूलों में 72,825 शिक्षकों की भर्ती की प्रक्रिया शुरू
की है। राज्य में हो रही इस भर्ती की आड़ में डिग्रीधारी बेरोजगार युवाओं से कई
तरह से बेलगाम लूट की जा रही है। मेरे अपने कई साथियों इस तरह के अनुभव बयां किए
की नौकरी की गारंटी करने के लिए वो सभी 75 जिलों में आवेदन भेज रहे हैं जिसमें हर
एक जिले के लिए 500 रुपए का बैंक चालान लगाना पड़ रहा है। अन्य स्तरों पर भी इस भर्ती
की प्रक्रिया लूट की खुली छूट देने वाली है।
पढ़े-लिखे और
बकायदे प्रशिक्षित युवाओं का बेरोजगार होना अपने आप में एक सामाजिक अभिशाप की तरह
है। चुनावों के दौरान सभी राजनीतिक पार्टियां युवाओं की इन भावनाओं को कुरेदती हैं
और नौकरी के वादे देकर अपने तरफ खिंचती हैं। हालांकि की जो जिम्मेदारी एक
कल्याणकारी राज्य की होनी चाहिए उसे यहां के राजनीतिक दल एक सौदेबाजी की तरह पेश
करते हैं। इस सौदेबाजी को चुनावी घोषणापत्रों में नौकरियों के वादे के रूप में
देखा जा सकता है। सरकार बनने के बाद कुछ युवाओं को नौकरियां देकर सत्ताधारी
राजनीतिक पार्टी उसे अपनी उपलब्धि के बतौर पेश करती है। इस उपलब्धि और बेरोजगार
युवाओं की नौकरी की गारंटी की होड़ में खुली लूट को वैधता मिल गई है। हालात ये हैं
कि बैंकों में चालान बनवाने के लिए युवाओं की लंबी लाईन लग रही है। 5-5 सौ के 70-75
चालान बनवाने के लिए अभ्यर्थी बैंकों में अलग से घूस भी दे रहे हैं। वहीं 10-15
रुपये घंटे के हिसाब से चार्ज करने वाले साइबर कैफे संचालक ऑनलाइन आवेदकों से
200-300 रुपये ऐंठ रहे हैं। इस भर्ती की प्रक्रिया में भ्रष्टाचार का यह सिलसिला
शुरुआत भर है क्योंकि इसके बाद आवेदकों को कई स्तरों पर बाबूओं-अधिकारियों को पैसे
देने होंगे। भ्रष्टाचारी इस अधिकार से पैसे मांगते हैं जैसे वही नौकरी दे रहे हों।
उस समय युवा की अपनी प्रतिभा ऐसे घिग्गी बांधे खड़ी होती है कि इसको पैसा नहीं
देंगे तो नौकरी नहीं मिलेगी और फिर भविष्य अंधकारमय बन रह जाएगा। कदम-कदम पर उसका
आत्मविश्वास डोलता नजर आने लगता है। नौकरी की प्रक्रिया को इस कदर जटिल, महंगी और
अमानवीय बना दिया गया है कि शिक्षक की नौकरी मिलने से पूर्व या तो युवा थक हार कर
बैठ जाएगा या फिर अपने सारे नैतिक ज्ञान ताक पर रख चुका होंगे।
उत्तर प्रदेश में शिक्षकों
की नौकरी की यह सारी कवायद वंचितों को और वंचित करने के उद्देश्य से भी काम कर रही
है। सत्ताधारी समाजवादी पार्टी ने चुनाव के दौरान ही अपने इरादे जता दिए थे कि वह सत्ता
में आने के बाद वंचित जातियों की बजाय अपने चुनावी आधार वाली जातियों को प्राथमिकता
देगी। इसे प्रमोशन में अनुसूचित जातियों/जनजातियों को आरक्षण के फैसले में देखा जा
सकता है। यह बात किसी से छिपी नहीं कि वंचित जातियों और ग्रामीण पृष्ठभूमि के युवा
अगर पढ़-लिख गए हैं तब भी वो तकनीकी ज्ञान और संसाधन के स्तर पर अन्य वर्गों की
बराबरी नहीं कर सकते। ना तो उन्हें इंटरनेट प्रयोग करने का अनुभव होता है ना ही
उससे आवेदन करने का पर्याप्त ज्ञान। इन संसाधनों का उनकी पहुंच में होना तो दूर की
बात है। ऐसे में ढेर सारे युवा अपनी काबिलियत के बादजूद जटिल प्रक्रियाओं के जरिये
वंचित कर दिए जाते हैं।
सरकारें एक तरफ
नौकरियों के लिए आवेदन मांगाकर वाह-वाही बटोरती हैं तो दूसरी तरफ प्रक्रियाओं को
जटिल बनाकर ढेर सारे काबिल युवाओं को हतोत्साहित और वंचित करती हैं। खाली शिक्षक के
पदों की भर्ती के लिए उत्तर प्रदेश की पूर्ववर्ती सरकार ने भी आवेदन मांगए थे, लेकिन
वह प्रक्रिया पूरी नहीं की जा सकी। उस समय आवेदन के लिए जो फीस वसूली गई थी उसे भी
नहीं लौटाया गया। इस तरह की लूट को सरकारें या समाज कभी भी ‘लूट’ के रूप में नहीं देखता। जबकि ऐसी प्रक्रियाओं के जरिये बेरोजगार युवाओं
से करोड़ों रूपयों लूटे जाते हैं। इस तरह की लूट के खिलाफ जब तक न्यायपालिका कोई
दखल ना दे, समाज में कहीं कोई आवाज भी सुनाई नहीं देती। कुछ छात्रसंगठनों के सीमित
विरोध को छोड़कर चुनावों में युवाओं को लुभाने वाले सभी दल इस पर मौन हैं। इसी तरह
तकनीक और प्रक्रियागत जटिलताओं के चलते वंचित होने को भी कोई राजनीतिक हलचल या
असंतोष नहीं देखा जाता। कुल मिलाकर इसे युवाओं की कमजोरी और तकनीक न जानने के
दुष्परिणाम को बतौर चिन्हित कर दिया जाता है। वंचित जातियों की राजनीति करने वाले
भी ऐसे मुद्दों पर मौन रहते हैं, जबकि यह नए दौर की वंचनाएं हैं।
विजय प्रताप
संप्रतिः लेखक शोध
पत्रिका जन मीडिया/मास मीडिया से जुड़े हैं।
संपर्कः सी-2,
पीपलवाला मोहल्ला
बादली एक्टसेंशन, दिल्ली-110042
मो. 9015201208
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