वैज्ञानिक शोध भी निजी क्षेत्रों के हवाले


विजय प्रताप

कोलकाता में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जनता के लिए विज्ञान और विज्ञान के लिए जनता के नारे के साथ नई विज्ञान नीति की घोषणा करते हुए इसे भी निजी हाथों में सौंप देने की शुरुआत कर दी है। नई नीति में समाज में वैज्ञनिक चेतना, सामाजिक-आर्थिक उन्नति, कृषि व अन्य विकास कार्यों में विज्ञान के योगदान पर बल दिया गया है। लेकिन वैज्ञानिक शोध और विकास के लिए धन जुटने के लिए निजी कंपनियों की भागीदारी सवाल खड़े करने वाली है।
वैज्ञानिक शोध के मामले में भारत दुनिया के दस देशों में गिना जाता है और नई नीति में इसे टॉप 5 में लाने का लक्ष्य रखा गया है। लेकिन जब हम समाज में विज्ञान की उपयोगिता के बारे में बात करते हैं तो एक भी ऐसी वस्तु या संसाधन नजर नहीं आता जिसकी खोज इस देश के वैज्ञानिकों ने की हो। ज्यादातर वस्तुओं की प्रारंभिक खोज विकसित देशों में हुईं और उन्हें यहां परिवर्धित किया गया। अभी तक यहां के वैज्ञानिकों की कुल उपलब्धि रही है वो या तो तकनीकी संवर्धन से जुड़ी है या फिर रक्षा प्रोद्यौगिकी के क्षेत्र में रहा है। संचार के क्षेत्र में भी वैज्ञानिक शोध के दावे किये जाते हैं, दरअसल वो नए शोध की बजाय दूसरे देशों में हो चुके शोध के आधार पर अपने देश में तकनीक विकसित करने से जुड़े होते हैं। कहा यह भी जाता है कि संचार के क्षेत्र में अहम प्रगति से कृषि को बढ़ावा देने में मदद मिली है। उत्तर भारत में कुछ वर्षों तक ग्रामीण क्षेत्रों में रिपोर्टिंग के दौरान मुझे एक भी ऐसा ग्रामीण किसान नहीं मिला जो कि उपग्रह आधारित मौसम पूर्वानुमान से अपने कृषि कार्यों को तय करता हो। भारत में विज्ञान की कुल मिलाकर उपयोगिता तकनीकी विकास के रूप में सामने आती है। हालांकि आम आदमी के प्रयोग की ज्यादातर तकनीक भारत के बाहर हुए शोध के आधार पर विकसित की गई हैं। भारत केवल उसका उपभोक्ता मात्र है और यहां के विज्ञान और प्रोद्यौगिकी विकास विभाग ऐसी तकनीकों के गांव-शहर तक पहुंचाने को ही अपनी उपलब्धि के तौर पर देखता है।
भारत में विज्ञान और प्रोद्यौगिकी विकास, एक ही विभाग के अंतर्गत आते हैं जिसका नतीजा ये होता है कि विज्ञान पर प्रोद्यौगिकी हावी रहती है। वैज्ञानिक शोध के नाम पर तकनीकी यंत्रों को सामने कर दिया जाता है। इससे समाज में वैज्ञानिक चेतना के प्रसार की जिम्मेदारी पीछे चली जाती है। नई नीति में वैज्ञानिक वातावरण बनाने को शामिल किया गया है, लेकिन इसके साथ ही निजी भागीदारी भी जोड़ दी गई है। अमूमन समाज और निजी कंपनियां के हित परस्पर विरोधी होते हैं। बल्कि यूं कह लें कि निजी कंपनियां, अपने लाभ के लिए समाज में मौजूद संसाधनों का दोहन करती हैं। इसलिए नई विज्ञान नीति में निजी भागीदारी के साथ वैज्ञानिक चेतना की बात बेमानी लगती है। इसके पर्याप्त आधार भी हैं। जब निजी कंपनियां वैज्ञानिक शोध के लिए धन मुहैया कराएंगी तो जाहिर सी बात है कि वो इससे लाभ कमाना चाहेंगी। कंपनियों का लाभ समाज को उन्नत बनाने वाले वैज्ञानिक खोजों में निहित नहीं है। वो ऐसे वैज्ञानिक खोजों पर ही जोर देंगी जो उनके उत्पादों के खपत को या तकनीकी मानसिकता बढ़ाने में मदद करे। तकनीक, विकास में सहयोगी होती हैं, लेकिन किसका कितना विकास होगा यह तकनीक नहीं तय करती। समाज में उत्पाद के साधनों पर जिसका जितना अधिकार होता है, उसे नई तकनीकों से उतना ही ज्यादा फायदा होता है। सरकार वैज्ञानिक शोधों को बढ़ावा देने के नाम पर दरअसल इस क्षेत्र का भी निजीकरण कर रही है जिसमें ज्यादा से ज्यादा फायदा केवल निजी कंपनियों का होगा।
पहले हो चुके शोध की नकल की संस्कृति ने भी नए शोध के लिए अनुकूल वातावरण को नुकसान पहुंचाया है। विज्ञान एवं प्रोद्यौगिकी विभाग ने भारतीय समाज में पहले से मौजूद वैज्ञानिक अनुभवों और अनुसंधानों को मान्यता देने या उनसे कुछ सीखने की कोशिश नहीं की। जबकि विविधता से भरे भारतीय समाज में लोगों ने बिना सरकार या उसके विभागों का मुंह देखे खुद अपनी जरूरत के मुताबिक खोज किया। सरकार की जिम्मेदारी समाज में वैज्ञानिक चेतना के प्रसार के साथ-साथ ऐसे आम जनजीवन में मौजूद वैज्ञानिक अविष्कारों को प्रोत्साहित और प्रचारित-प्रसारित करने की भी होनी चाहिए।


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