रोशनी खोजने गये थे, अंधेरा लेकर लौटे

तारागढ़ ब्यावर की दाखू देवी वहां के एक निःशुल्क नेत्र शिविर में आँख का जाला हटवाने गई थीं - "लेकिन मुझे क्या पता था की आँख की रोशनी ही चली जायेगी. पहले तो कुछ दिखता भी था, अब तो बिल्कुल अंधी हो गई हूँ. " कुछ ऐसा ही गवरी देवी, पुष्पा, रामी, पूनम देवी, भगवान दास के साथ भी हुआ. यह सभी उस शिविर में अपनी आँख का इलाज कराने गए थे. आंख की रोशनी खोजने गये ये लोग हमेशा के लिए अपनी आंखों में अंधेरा लेकर लौटे. आपरेशन के बाद पहले इनकी आंखों से लगातार पानी गिरना शुरू हुआ फ़िर आँखों में मवाद भर गया, जिसके बाद इन्हे फ़िर से अस्पताल ने भरती करना पड़ा है.
राजस्थान में पिछले दिनों निःशुल्क नेत्र चिकित्सा शिविरों में आँख का ओपरेशन कराने के बाद करीब ३० लोगों ने अपने आंखों की ज्योति खो दी. ७० से भी अधिक लोग आँख में संक्रमण की शिकायत लिए अस्पतालों में भरती हैं. यह शिविर बीकानेर जिले के सूरतगढ़, अजमेर के ब्यावर और पाली जिलों में वहां की अलग-अलग स्वयंसेवी संस्थाओं की और से आयोजित किए गए थे. इस घटना के बाद राज्य की अशोक गहलोत सरकार ने फिलहाल और शिविरों पर रोक लगा दी है. लेकिन एक के बाद एक हुई इस तरह की घटना ने कई सवाल जरुर खड़े कर दिये हैं. रोशनी का सपना लिए इन गाँव के गरीब लोगों की जिन्दगी में अँधेरा फैलाने के लिए आख़िर कौन जिम्मेदार है?
यह मामला उस समय सामने आया जब सूरतगढ़ के एक चिकित्सा शिविर में आपरेशन कराने के दो दिन बाद ही करीब ४३ लोगों की आंखों से मवाद आने की शिकायत मिली. इस शिविर में ७२ मरीजों की आंखों का आपरेशन हुआ था. शिविर एक स्वयंसेवी संस्था एपेक्स क्लब और चिकित्सा विभाग की भ्रमणशील शल्य चिकित्सा इकाई के संयुक्त तत्वावधान में लगा था. इसके करीब २० दिन बाद ब्यावर से १४ लोगों के अंधे होने की ख़बर आई. इन सभी लोगों ने वहां के एक व्यापारी संगठन की ओर से लगे नेत्र शिविर में अपनी आंखों का आपरेशन कराया था. इस शिविर में करीब ७० मरीजों की आँख के आपरेशन हुए थे. ऐसे ही पाली जिले में एक निजी चिकित्सालय के निःशुल्क नेत्र चिकित्सा शिविर में ३ लोगों ने अपनी दुनिया में अँधेरा कराया. इन सभी मामलों में प्रारंभिक तौर पर संक्रमित दवाई और साफ सफाई के बिना ही ओपरेशन करने की बात सामने आई है. पहले तो डॉक्टरों ने गंवार लोगों द्वारा असावधानी बरतने को इसका कारन बताया लेकिन जब ऐसे कई मामले सामने आने लगे तो सच्चाई फ़िर किसी के छुपाये नहीं छुपी.
पैसे के अभाव में अपने रोगों का सही इलाज नहीं करा पाने वाले लोगों के लिए अभी तक ऐसे शिविर एक वरदान की तरह हुआ करते हैं. लोग भीड़ लगाकर वहां अपना इलाज कराने पहुचंते हैं, लेकिन इस घटना के बाद ऐसे शिविरों पर से लोगों का विश्वास उठा है. देखा जाए तो यह विश्वास काफी पहले ही उठ जाना चाहिए था. इन शिविरों में लोगों के विश्वास से साथ कैसा मजाक किया जाता है इसका अंदाज इस बात से ही लगाया जा सकता है की ब्यावर के शिविर में दो डॉक्टरों ने ४ घंटे के भीतर ४० लोगों की आंखों का आपरेशन किया. यहीं नहीं यहाँ प्रयोग की गई दवाई भी प्रथम दृष्टया संक्रमित पाई गई. इनके प्रयोग की अवधि भी बीत चुकी थी, आपरेशन थियेटर का फोर्मोलईजेशन (कीटाणु रहित करना) तो दूर की बात है. अब यह सवाल तो पूछा ही जा सकता है की लोगों की जिन्दगी के साथ एसा मजाक कर ये स्वयम सेवी संस्था किस तरह का समाज सेवा कर रही थी. और वह डॉक्टर जो इन शिविरों में कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा लोगों को निपटा रहे थे, क्या वह अपने क्लिनिक में भी इन मरीजों के साथ ऐसा ही सुलूक करते ? अगर नहीं तो फ़िर यह समाज सेवा का ढोंग कैसा?
राजस्थान में ऐसे 'निःशुल्क चिकित्सा शिविर थोक के भाव में आयोजित किए जाते हैं. यहाँ की कई कथित स्यवं सेवी, निजी व जातिगत संस्थाएं ऐसे शिविरों के माध्यम से सस्ती लोकप्रियता बटोरने के चक्कर में रहती हैं. एक शिविर में मरीज की आँख में टॉर्च जलाये डॉक्टर को संस्थाओं के दस पदाधिकारी घेर कर फोटो खीचने में लगे होते हैं. इससे भी लोगों का भला हो जाता तो ठीक था लेकिन व्यवस्था करने के नाम पर संस्था के बड़े पदाधिकारी भारी मात्रा में पैसों का गोलमाल करते हैं. कहीं भी न तो इनका कोई लेखा - जोखा होता है और न ही उनके इस पुन्य कार्य में कोई दखल देने वाला. इस घटना से पहले तो राज्य सरकार के पास ऐसे शिविरों के लिए कोई दिशा निर्देश भी नहीं बने थे. जैसा कि इस घटना के बाद डॉक्टरों की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं. यह सवाल एक तरह से लाजिमी भी है क्योंकि जिसे अभी तक इस देश की भोली-भली जनता भगवान मानती थी उसने एक बार फ़िर लोगों को धोखा दिया है. क्या यह डॉक्टर तब भी उन ख़राब हो चुकी दवाओं का ही प्रयोग करते जब ये लोग उनकी मंहगी फीस चुका उनके क्लिनिक में अपना इलाज करते. शायद कभी नहीं? क्योंकि उनके मंहगे क्लीनिकों में आने वाला तबका यह कत्तई नहीं बर्दाश्त करता. दरअसल अपने मंहगे क्लीनिकों में मरीजों की जेब तराशने वाले डॉक्टर भी ऐसे शिविरों के माध्यम से समाज सेवा का सुख बटोरने में लगे होते हैं. यह अलग बात है की यहाँ उनका उद्देश्य समाज सेवा से ज्यादा उसका दिखावा करना होता है. वह केवल पैसों की भाषा समझते हैं इसीलिए वह अपने कीमती समय में ज्यादा से ज्यादा लोगों को निपटा एक साथ ढेर सारा पुन्य बटोर लेना चाहते है.
इतनी बड़ी घटना के बाद भी राज्य सरकार ने ऐसे डॉक्टरों और उन संस्थाओं के खिलाफ अभी तक कोई कदम नहीं उठाए हैं. लेकिन 30 से अधिक लोगों को अँधा कर इन सभी ने एक बात तो साफ़ कर दिया है की मुफ्त में न तो भगवान अपना होता है, और न कोई फ़रिश्ता बनता है. आज सब केवल पैसो की भाषा समझते हैं।

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