लेखकों की भूमिका पर बहस

विजय प्रताप

'विकल्प' जन सांस्कृतिक मंच की ओर से रविवार को राजस्थान के कोटा शहर में एक सार्थक बहस आयोजित की गई. इलाहाबाद और दिल्ली में इसी कई बहसों का हिस्सा बनने का मौका मिला लेकिन कोटा जैसे शहर में इसी बहस पहली बार देखने को मिला. कोटा पहले उद्योग नगरी के रूप में जाती रही है लेकिन भुमंद्लिकर्ण की नीतियों के बाद इसका भी वही हश्र हुआ जो देश के अन्य उद्योग कारखानों का है. इस लिहाज से बहस का विषय भूमंडलीकरण की नीतियां और लेखकीय दायित्व सार्थक ही था.
बहस में जोधपुर विश्विद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर डॉ. सूरज पालीवाल ने भूमंडलीकरण, बाजारवाद और उत्तर-आधुनिकतावाद को एक ही सिक्के का पहलु बताया. उन्होंने कहा की भारत में इसका आगमन मीडिया के प्रभाव से ऐसे समय में हुआ जब की यह पूरी तरह आधुनिक भी नहीं हुआ. देश में अभी भी १६-१७वी सदी की रूढियां मौजूद हैं. एक सोची समझी साजिश के तहत हमारी स्मृतियों, इतिहास और भाषा-संस्कृति की हत्या की जा रही है. युवाओं को करोड़पति बनने के सपने दिखाए जा रहे हैं. समय को सौ बर्ष पीछे ले जा जाती, धर्म व भाषा के सवालों में लोगों को उलझाया जा रहा है. झालावाड से आए डॉ विवेक मिश्र ने कहा की भूमंडलीकरण और बाजारवाद मनुष्य और मनुष्यता दोनों को ख़त्म कर रही हैं. हमें मनुष्य को विशेष कर, उस मनुष्य को बचाना है जो वंचित-पीड़ित है. समीक्षक शैलेन्द्र चौहान ने कहा की बाजारवादी व्यवस्था अपने ही अंतर्विरोधों से टूट रही है. साहित्यकार और नाटककार शिवराम ने कहा की वसुधैव कुटुम्बकम में सभी शामिल हो तो ठीक लेकिन अगर यह केवाल २० फीसदी लोगों का हो तो कतई मंजूर नहीं. उन्होंने रचनाकारों को पूंजीवादी-साम्राज्यवादी अवधार्नावों को समझने पर जोर दिया. कहा की रचनाकारों को समाज से जुड़ना होगा तभी जनता की आवाज बुलंद होगी.
शिवराम ने ख़ुद को कभी साहित्यकार या नाटककार की सीमा में बाँध कर नहीं रखा. वह ख़ुद तो नाटक लिखते ही हैं साथ ही नए युवाओं को जोड़ कर उनके साथ उसका मंचन भी करते हैं. कोटा में ऐसे ही सक्रीय एक और शख्स महेंद्र नेह ने समारोह का सञ्चालन किया. नेह विकल्प के नए अध्यक्ष भी चुने गए. समारोह में युवा कहानीकार चरण सिंह पथिक, विवेक शंकर, धनि राम जख्मी, अखिलेश अंजुम, हलिम आइना उपस्थित रहे. कवि-चित्रकार रवि ने कविता पोस्टर प्रदर्शनी भी लगाई.
समारोह में कोटा के जाने माने शायरों ने अपने बेहतरीन नगमों से गज़ब का शमा बंधा. रंगकर्मी शरद तैलंग ने दुष्यंत की ग़ज़ल के डॉ शेर वर्तमान व्यवस्था की कहानी कह गए -
"वजन से झुक के जब मेरा बदन दोहरा हुआ होगा,
मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा.
कोई फांके बिता कर मर गया तो,
वो सब कहते हैं की ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा.
यहाँ तो गूंगे और बहरे लोग बसते हैं,
खुदा जाने किस तरह जलसा हुआ होगा."
शायर पुरुषोत्तम यकीन के ग़ज़ल के कुछ शेर देखिए
"कहीं खंजर कहीं हाथों में ले बम निकले,
वो किस मजहब के थे ये न तुम मिले न हम मिले.
हुआ जब कत्ल मासूमों का सड़कों पर,
बचाने तब न मस्जिद से खुदा, न मन्दिर से सनम निकले."
शकूर अनवर ने अपनी ग़ज़ल से लेखकों पर ही कटाक्ष किया-
" खुशनसीबी से दम नहीं निकला,
वरना कातिल भी काम नहीं निकला.
लोग निकले हैं तलवारे लेकर,
और हमसे कलम नहीं निकला."

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