अब भी बेसहारा हैं सहरिया

विजय प्रताप
बारां जिले के सहरिया आदिवासियों को जब पिछले साल यह खबर मिली कि नये वन कानून के अनुसार उन्हें जंगल की ज़मीन पर बने रहने के लिये स्थायी पट्टा मिलेगा तो उन्हें उम्मीद थी कि अब उनके दिन भी फिरेंगे. लेकिन इन सहरिया आदिवासियों को सरकार का यह कानून कोई सहारा नहीं दे सका.
जाहिर है, केन्द्र की यूपीए सरकार ने पिछले साल जब अनुसूचित जनजाति व परंपरागत वन निवासी अधिनियम 2006 यानी वन अधिकारों की मान्यता कानून को मंजूरी दी थी तो सरकार ने यह नहीं सोचा होगा कि यह कानून भी आदिवासियों के शोषण का एक जरिया बन जाएगा. आज हालत ये है कि भारत की आदिम जनजातियों में से एक सहरिया जनजाति के लोगों को इस कानून के तहत अपनी जमीन का पट्टा बनवाने के लिए वकीलों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं. उन्हें बताया जा रहा है कि “ मामला जमीन का है इसलिए खर्च किए बिना कागज कैसे बनेगा.”यह कागज बनवाने के लिए ही बारां जिले के सांवरा को आजकल कुछ ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है. वह एक वकील की फीस के लिए पैसा बचाना चाहता है. कचहरी के एक वकील ने उससे कागज बनाने के लिए तीन सौ रुपए फीस मांगी है. लेकिन रोज की मजदूरी से इतना ही पैसा मिल पाता है कि वह अपने परिवार का पेट पाल सके. उपर से हथकढ़ यानी कच्ची शराब पीने की बुरी लत अलग से है. आखिरकार उसने किशनगंज तहसील के बाहर की एक फोटोस्टेट की दुकान से 15 रुपए में खरीदी गई खाली फार्म को अपनी टापरी में सहेज कर रख दिया है. आज की तारीख में सहरिया जनजाति राजस्थान के दक्षिण पूर्वी भाग के बारां जिले में सिमट कर रह गई हैं. हालांकि यहां उनकी जनसंख्या करीब 75 हजार है, लेकिन आस-पास के जिलों कोटा, बूंदी व झालावाड़ में इनकी संख्या केवल तीन से पांच सौ तक रह गई है. बारां के किशनगंज व शाहाबाद तहसील में इस जाति के लोग बहुतायत हैं. परंपरागत रूप से जंगल में रहने वाली यह जाति वन संपदा पर ही निर्भर है. जंगलों में रहने के कारण ही इन्हें 'सहरिया' कहा जाता है, जिसका अरबी भाषा में अर्थ है, जंगलों में रहने वाला.कई सौ सालों से जंगलों में रहते आ रहे इन लोगों को पिछले साल जब यह बताया गया कि वह जहां रहते हैं, सरकार उस भूमि को हमेशा के लिए उनके नाम करने वाली है; तो इनकी खुशी देखने लायक थी. आखिर हर बार वनों से बेदखल किये जाने की सरकारी धमकी और वन अधिनियम के तहत उनके खिलाफ लादे गये मुकदमों से भी तो उन्हें छुटकारा मिल जाता. लेकिन इस बात से खुश होने वालों को कुछ ही महीनों के भीतर दुख और निराशा ने घेर लिया.
सच तो ये था कि कानून बनने के कई महीनों बाद तक जिले के आला अधिकारियों तक को इसकी ठीक से जानकारी नहीं थी। लोगों ने कुछ एक गैर सरकारी संगठनों के साथ मिलकर इसे लागू कराने के लिए धरना प्रदर्शन शुरु किया, तब कहीं जाकर अधिकारियों को होश आया. किशनगंज के भैरवलाल बताते हैं कि “ असल परेशानी तभी से शुरु हुई.”वन अधिकार कानून के अनुसार प्रत्येक आवेदक को इसके लिए नि:शुल्क फार्म उपलब्ध कराया जाना है. इसके लिए राज्य के जनजाति कल्याण विभाग के निदेशक ने एक आदेश जारी कर हर जिले में ऐसे फार्म छपवा कर नि:शुल्क वितरित करने के आदेश दिए हैं. इसके उलट बारां जिले में प्रशासनिक अधिकारी भी यह स्वीकार करते हैं कि यहां फार्म छपवाया ही नहीं गया.आज भी जिले में यह फार्म कचहरियों के बाहर फोटोस्टेट की दुकानों पर दस से पन्द्रह रुपए लेकर बेचे जा रहे हैं. साथ ही प्रशासन की तरफ से आवेदन पत्र के साथ 5-6 तरीके के अलग से प्रमाण-पत्र संलग्न करने के लिए भी कहा गया है. आखिर में विवश हो कर इन आदिवासियों को वकील और दलालों की शरण में जाना पड़ रहा है.आदिवासियों को इस तरह परेशान किये जाने से नाराज़ एकता परिषद के सौरभ जैन कहते हैं- “ वनअधिकार कानून में यह साफ लिखा है कि ग्राम स्तर की वन अधिकार समिति को केवल सादे कागज पर आवेदन देना है. यह समिति ही मौके पर जाकर पंचनामा तैयार करेगी और उस दावे को खण्डस्तर की वनअधिकार समिति के पास भेजेगी. लेकिन यहां उस कानून की धज्जी उड़ा रही है.”

जैन का कहना है कि सरकारी लोग इस कानून को भी आदिवासियों के शोषण का हथियार बना रहे हैं.वन अधिकार कानून को लेकर कमोबेश ऐसे ही हालात प्रदेष के हर उस जिले में है, जहां वनभूमि पर सदियों से आदिवासी काबिज हैं और जिन्हें दावा पत्र मिलना है. वनवासियों को अधिकार पत्र देने के लिए बना कानून समितियों और नौकरशाही के बीच उलझ कर रह गया है.
अधिनियम के अनुसार 10-15 सदस्यों वाली वनाधिकार समिति में एक तिहाई अनुसूचित जनजाति व इतनी ही महिलाओं को शामिल किया जाना जरुरी है. इसका अध्यक्ष अनुसूचित जनजाति का सदस्य होगा. लेकिन सच्चाई कुछ और ही है. कोटा में वन भूमि पर रह रहे भील जाति के लोगों को मालूम ही नहीं कि वन अधिकार समिति कहां है, कौन लोग इसके सदस्य हैं. वनाधिकार समिति गठित करते समय भी ग्राम पंचायत की कोई औपचारिक बैठक नहीं बुलाई गई. कोटा से बीस किलोमीटर दूर के एक गांव डोल्या की दाखू बाई कहती हैं “ पंचायत की बैठक नहीं बुलाई. हमें यह भी नहीं पता है कि फार्म कहां से मिलेगा.” आदिवासी जनजाति अधिकार मंच के संरक्षक प्रतापलाल मीणा बताते हैं “ कई गांवों में समिति गठित करते समय कोई बैठक नहीं हुई. सरपंच ने खुद ही लोगों के नाम लिख उसे खण्ड स्तर पर भेज दिया. कहीं भी कानून के अनुसार समिति गठित नहीं की गई है. कई सरपंचों ने तो खुद को ही समिति का अध्यक्ष बना लिया है.”हालांकि इलाके के विकास अधिकारी नरेश बडवाना कहते हैं कि यहां सभी आवेदकों को नि:शुल्क फार्म उपलब्ध कराया जाएगा. लेकिन यह कब होगा, यह बताने वाला कोई नहीं है. कई गांवों में जनजाति अधिकार मंच फार्म छपवाकर लोगों से उनका दावा पत्र भरवा रहा है. ऐसे गांवों में आदिवासियों को काफी सहुलियत हो रही है. लेकिन पूरे प्रदेश में हालात ऐसे नहीं हैं.पिछली राज्य सरकार के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में अभी तक 1179 दावों का निस्तारण हुआ है. राज्य के उदयपुर, डूंगरपूर, सिरोही, बासंवाड़ा, भीलवाड़ा, प्रतापगढ़ चित्तौड़गढ़, बारां, बूंदी, कोटा, झालावाड़, पाली, राजसंमद आदि जिलों में ही ऐसे ज्यादातर आदिवासी हैं जो वनभूमि पर काबिज है. उदयपुर संभाग में आदिवासियों के बीच कई गैर सरकारी संगठनों की मौजूदगी के बावजूद वहां अभी तक दावे ही लिए जा रहे हैं.
जनजाति कल्याण विभाग का आकंड़ा बताता है कि उदयपुर में किसी भी आदिवासी के दावे का निस्तारण नहीं हो सका है। ऐसी ही हालात पाली, राजसमंद व कोटा जिलों में भी है. प्रदेश में अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या 12.56 प्रतिशत है. कई बड़े दिग्गज नेता आदिवासी समुदाय से आते हैं. बावजूद इसके अभी तक राज्य भर में इन मुद्दों को उठाने वाला कोई नेता नहीं है. पिछले साल अक्टूबर में राहुल गांधी ने तो बजाप्ता बारां में सहरिया आदिवासियों के साथ रह कर उनकी समस्याओं को जानने की कोशिश की थी. लेकिन वन अधिकार कानून के मामले में वे अपनी सरकार को नहीं जगा पाये.आदिवासी जनजाति अधिकार मंच के प्रतापलाल मीणा का मानना है कि नेता केवल दावे करते हैं लेकिन जमीन हकीकत कुछ और ही है. मीणा कहते हैं- “आदिवासियों को लेकर प्रशासन कभी गंभीर नहीं रहा है, इसलिए बार-बार हमें आंदोलन की राह अख्तियार करनी पड़ती है.”बारां जिले की किशनगंज सुरक्षित सीट से नवनिर्वाचित विधायक निर्मला सहरिया आदिवासियों के साथ ऐसे बर्ताव को स्वीकार करती हैं. वह कहती हैं कि “ बारां में करीब तीन सौ दावा पत्र तैयार हो चुका है, जो जल्द ही वितरित कर दिया जाएगा. साथ इन कार्यों में तेजी लाने के लिए यह बात विधानसभा में भी उठाउंगी.”हालांकि उनके दावे पर यकिन करने वालों की संख्या कम ही है क्योंकि किशनगंज के आदिवासी इससे पूर्व के विधायक हेमराज मीणा के ऐसे दावों को भूले नहीं हैं. देखने लायक बात ये होगी कि ‘अपने समाज’ से विधायक बनाई गईं निर्मला सहरिया कोई नया इतिहास लिखेंगी या फिर वे भी हेमराज मीणा के रास्ते का ही अनुसरण करेंगी.

यहाँ भी देखें रविवार डॉट कॉम

No comments: