उफ़ ये गलाकाट प्रतिस्पर्धा

ये त्रासदी ही कही जाएगी कि जिस सूचना प्रौद्योगिकी के बल पर हमारी सरकारें भारत को 21 वीं सदी में दुनिया का सिरमौर बनाने का दावा कर रही हैं, वहीं के छात्रों में अपने जीवन को समाप्त कर लेने की प्रवत्ति दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। अभी पिछले दिनों तीन जनवरी को देश के कुल सात सूचना प्रौद्योगिकी संस्थानों में अव्वल माने जाने वाले कानपुर आईआईटी के छात्र जी. सुमन की हास्टल के कमरे में फांसी लगाकर की गयी आत्महत्या इसका ताजा उदाहरण है। आंध्र प्रदेश के नेल्लूर जिले के रहने वाले सुमन एमटेक द्वितीय वर्ष में इलेक्टिकल इंजीनियरिंग के छात्र थे। आईआईटी के निदेशक प्रो0 संजय गोविंद धांडे के अनुसार सुमन कैम्पस में प्लेसमेंट के लिए आयीं बहुरास्ट्रीय कम्पनियों द्वारा चयनित न होने के कारण तनाव में था। गौरतलब है कि सुमन की आत्महत्या पिछले दो सालों में यहाँ की सातवीं घटना है। ये घटनाएं जहाँ इन संस्थानों की शिक्षा पद्धति पर सवालिया निशान खड़ा करती हैं तो वहीं देश के सबसे मेधावी छात्रों के जीवन में झांकने पर भी मजबूर करती हैं। जहां हताशा, तनाव और गला काट प्रतिस्पद्र्धा के कारण हमेशा पिछड़ जाने का डर सालता रहता है। यह अकारण नहीं है कि पिछले 5 नवंबर 07 को यहीं के छात्र अभिलाष ने आत्महत्या से पूर्व सुसाइड नोट में लिखा-‘मैं जीवन से हार चुका हूं, मैं दुनिया और जीवन का सामना नहीं कर सकता। हारने वाले भगोड़े होते हैं और मैं उन्हीं में से एक हॅूं।’ इसी संस्थान के छात्र रहे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय आईटी में मैकेनिकल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर प्रशांत शुक्ल बताते हैं कि "इन परिसरों में एकेडमिक दबाव इतना ज्यादा रहता है कि छात्र एडमिशन के कुछ दिनों बाद ही किसी न किसी तरह के तनाव का शिकार हो जाते हैं और धीरे-धीरे अवसाद की स्थिति में पहंुॅचने लगते हैं।" दरअसल तनाव और अवसाद की स्थिति उत्पन्न होने के अधिकतर कारण इन संस्थानों की आंतरिक संरचना और माहौल में ही मौजूद होते हैं जो छात्रों में जीवन के प्रति नकारात्मक सोच उत्पन्न कर देता है। यहाॅं मेधा का मूल्याकंन इससे होता है कि कौन कितने उॅंचे वेतन पर और किस विकसित देश में काम करता है। ऐसे माहौल के कारण छात्र हमेशा एक काल्पनिक भय मे जीता है कि कहीं वह दूसरों से पिछड़ न जाए। बाजार में अपने आप आपको साबित करने के इस दबाव के कारण ही छात्र समाज की मुख्यधारा से भी कटते जाते हैं और अपनी एक कृत्रिम दुनिया बना लेते हैं जिसका आधार एक दूसरे पर विश्वास और सहयोग करना नहीं बल्कि एक दूसरे से आगे निकलने की प्रतिस्पद्र्धा होती है। इसी प्रतिस्पद्धाॅ में जब कोई छात्र खुद को पिछड़ा हुआ मानने लगता है तब वो आत्महत्या जैसे कदम उठा लेता है। क्योंकि उसकी इस कृत्रिम दुनिया में हारने वालों के लिए कोई जगह नहीं होती। आईआईटी कानपुर में ही मैकनिकल इंजीनियरिंग के प्राध्यापक रहे मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडे कहते हैं कि इन संस्थानों का पूरा माहौल मानवीय मूल्यों के विपरीत होता है। वहां के छात्रों के बीच का रिश्ता शु़द्ध प्रोफेशनल होने के कारण आपस में सुख-दुख बांटने,साथी की मदद करने और किसी समस्या पर सामूहिक रुप से काम करने की मानवीय प्रवृतियों का ह्रास होने लगता हैं। जिसके कारण छात्रों के व्यतित्व में कई तरह की विकृतियां आने लगती हैं। अपने स्कूल के दिनों में सबके साथ सहयोग करने और एक दूसरे का टिफिन छीन कर खाने वाले ये छात्र धीरे-धीरे अकेला महसूस करने लगते हैं जहां वो किसी से अपनी कोई समस्या बांट नहीं पाते। इस अकेलेपन कि साथ ही अपने परिवार वालों को उम्मीदों पर खरे नहीं उतरने और सहपाठियों से पिछड़ जाने के डर के कारण ये छात्र भीतर ही भीतर घुटने लगते हैं। संदीप कहते हैं ‘‘ऐसे माहौल में यदि कोई छात्र आत्महत्या करता है तो आश्चर्यजनक नहीं है।‘’ ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ हमारे देश के सूचना प्रौद्यगिकी का ही संकट है। इस क्षेत्र में सबसे अग्रणी माने जाने वाले अमेरिका में भी आईटी संस्थानों की यही स्थिति है। पिछले दिनों कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय द्वारा इन संस्थानों के छात्रों में बढ़ रहे अवसाद और आत्महत्या की घटनाओं पर किए गए सर्वेक्षण में पाया गया कि ऐसे संस्थाओं में 58 प्रतिशत छात्र नियमित रूप से किसी न किसी तनाव से ग्रस्त हैं। और उनमें आत्महत्या करने की प्रवृति में तेजी से वृद्धि हुई। जो मौजूदा आर्थिक मंदी के दौर में और भी भयावह रुप ले चुका है। दरअसल इन संस्थाओं में आत्महत्या की घटनाएं एक प्रवृति के बतौर पिछले तीन-चार सालों में ही उभरी है।इससे पहले इस तरह की घटनाएं इका-दुका ही हुआ करती थी जिसके कारण अधिकतर व्यतिगत या पारिवारिक समस्याएं ही होती थी। लेकिन इधर जितनी भी घटनायें हुई हैं उनमें मुख्य कारण कैरियर की दौड़ में पिछड़ जाने का डर ही रहा है। देखा जाए तो नयी आर्थिक नीतियों के कारण जिस तरह प्रौघोगिकी के क्षेत्र में संभावनाएं बढ़ी हैं उसी अनुपात में छात्रों पर कैरियरिज्म का दबाव भी बढ़ा है, जिसमें टिके रहना एक सामान्य छात्र के लिए बहुत मुश्किल होता है। प्रो0 प्रशांत शुक्ल कहते हंै ‘ये आत्महत्याएं बाहरी पूंजी द्वारा सामूहिकता और मेलजोल के माहौल में पले-बढ़े हमारे छात्रों पर किए जा रहे निर्मम हमले को दर्शाता है, जिसका सामना सभी नहीं कर पाते।‘ सच्चाई तो यह है कि इन आत्महत्याओं को नई आर्थिक नीतियों से काटकर नहीं समझा जा सकता। जब से ये नीतियां लागू हुई हैं तब से इन कैंपसों में अंदरुनी माहौल में काफी परिवर्तन आया है। अपने दिनों को याद करते हुए संदीप पांडे कहते हैं कि पहले यहां कई सामजिक मंच हुआ करते थे जिसके माध्यम से विज्ञान के सामाजिक उपयोगों पर काम होते थे या सांस्कृतिक जीवन को दर्शाने वाले नाटक इत्यादि होते थे जिससे छात्रों में अध्ययन के साथ-साथ अपने समाज को समझने और उससे एकाकार होने की प्रवृति विकसित होती थी, वहीं वैश्वीकरण के बाद उपजे कैरियरिज्म की होड़ के कारण यह सब बंद हो गया और छात्रों का समाज से कटाव होने लगा। वो आत्मकेंद्रित जीवन जीने को मजबूर होते गए और उनके अंदर किसी भी समस्या को हल करने के सामूहिक प्रयास के मानवीय प्रवृति का भी क्षरण होता गया। इन संस्थानों में छात्र संघों या ऐसे ही किसी छात्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले मंचों का न होना भी अवसाद और अकेलेपन जैसी समस्याओं को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाता है। इनके अभाव में जहां छात्र अपनी व्यतिगत या सामूहिक समस्याओं कों न तो प्रशासन के सामने रख पाते हैं और न ही इन मंचों से जो इनमें सामूहिकता की भावना पनपती है उसी का विकास हो पाता है। बीएचयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष और भारतीय जनसंचार संस्थान के प्रोफेसर आंनद प्रधान कहते हंै कि राजनीति छात्रों कों दुनिया और समाज से जोड़ती है। उनमें दुनिया को बदलने, बेहतर बनाने के सपने बोती है। जिसके कारण छात्रों में व्यतिगत के बजाए सामूहिकता की भावना विकसित होती है और वे आशावादी बनते हैं। लेकिन ऐसे मंचों के अभाव में छात्रों में कोई सामाजिक सपना नहीं विकसित हो पाता और वो बहुत जल्दी निराश और हताश होने लगते हैं। दरअसल इन संस्थानों के इसी शैक्षणिक माहौल और उससे उपजे आत्मकेन्द्रित सोच के कारण ही हम अपनी इन प्रतिभावों के पलायन को भी नहीं रोक पाते और यहां से निकलने वाले ज्यादातर छात्र विदेशों का रुख कर लेते हैं। इन छात्रों के विदेश पलायन की प्रवृति और यहां हो रही आत्महत्याओं में गहरा संबंध है। क्योंकि जो छात्र बाहर नहीं जा पाते उनमें हीनभावना आ जाती है और वो भारत में ही रह जाने को अपनी असफलता मानने लगते हैं। जिसकी परिणति आत्महत्याओं में भी होती है। संदीप पांडेय इन संस्थानों के शिक्षण पद्धति पर ही सवाल उठाते हुए कहते हैं ‘जब यहां देश के सबसे मेधावी छात्र ही आते हैं तब उनका परीक्षण लेने का क्या औचित्य है, ऐसा करके तो हम उनमें एक दूसरे से आगे बढ़ने कर गलाकाट प्रतिस्पद्र्धा को ही बढ़ावा देते हैं, जिसकी परिणति आत्मकेन्द्रित सोच में होती है।‘ वे आगे कहते हैं कि इस प्रतिस्पद्र्धा आधारित परीक्षा के बजाए अगर उनमें सामूहिक रुप से किसी प्रोजेक्ट पर काम करने की प्रवृति को विकसित किया जाए तो ये आत्महत्याऐं भी रुक सकती हैं और विदेश पलायन भी। बहरहाल, सूचना प्रौद्योगिकी को विदेशी म्रुदा देने वानी कामधेनु समझने वाली हमारी सरकारें यहां के छात्रों को उनकी जिंदगी की कीमत पर दुहना छोड़ देंगी इसकी उम्मीद भी कैसे की जा सकती है।
- शाहनवाज़ स्वतंत्र पत्रकार व एक्टिविस्ट हैं। इनसे 09415254919 या shahnawaz.media@gmail.com संपर्क कर सकते हैं

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