मंदी के बहाने बेनकाब हिंदी मीडिया

अभिषेक श्रीवास्तव

ऐसा शायद भारतीय हिंदी मीडिया के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था. चाहे वे अखबार हों, पत्रिकाएं या खबरिया चैनल, छंटनी का अभियान चारों और धड़ल्‍ले से जारी है. जाहिर है पिछले एक दशक के दौरान भारत ने मीडिया का उभार बड़े पैमाने पर विदेशी पूंजी की खाद के सहारे होते देखा है. वही दौर बाजार में उछाल का गवाह भी रहा है. यह बात कई बार कही जा चुकी है कि उदारीकरण के दौर में जो निजी मीडिया अस्तित्‍व में आया, वह पूरी तरह बाजार से संचालित होता रहा है. लेकिन मीडिया के स्‍वयंभू झंडाबरदार खुद पर सवाल न लगे, इस कारण से इस तथ्‍य को झुठलाते रहे हैं.
अमेरिका के वॉल स्‍ट्रीट से शुरू हुई तथाकथित वैश्विक आर्थिक मंदी ने इस प्रस्‍थापना को सिद्ध कर दिया है कि मुख्‍यधारा का मीडिया पूरी तरह बाजार पर आधारित है और इसके कंटेंट से लेकर रूप तक सब कुछ बाजारू ताकतों के हितों को पुष्‍ट करता है. इस बात को समझने के लिए एक नजर पिछले आठ साल यानी 2000 से लेकर 2008 तक भारत में मुख्‍यधारा के मीडिया के विकास पर डाल लें और उसके बाद पिछले तकरीबन तीन-चार महीनों में यहां हुई छंटनी की वारदातों के बरअक्‍स रख कर देखें.
बात शुरू होती है पिछले साल अक्‍टूबर से, जब 'सियार आया-सियार आया' की तर्ज पर भारत में मंदी के आने का एलान किया गया. किसी को तब तक उम्‍मीद नहीं थी कि विनिर्माण और निर्यात के क्षेत्र को छोड़ कर बहुत बड़ा असर किसी अन्‍य उत्‍पादक या सेवा क्षेत्र पर पड़ेगा. लेकिन कम ही लोग यह समझ पा रहे थे कि तीन-चार साल पहले टाइम्‍स समूह द्वारा प्राइवेट ट्रीटी में निवेश का जो खेला शुरू किया गया था, उसकी मार अब दिखाई देगी. उस वक्‍त तमाम लोगों ने टाइम्‍स समूह के इस कदम की आलोचना की थी कि उसने निजी कंपनियों और निगमों में पूंजी निवेश के लिए एक कंपनी का निर्माण किया है, हालांकि कई ने यह भी कहा था कि भारतीय मीडिया में ट्रेंड सेटर तो यही प्रतिष्‍ठान रहा है और आगे चल कर कई अन्‍य मीडिया प्रतिष्‍ठान इसी की राह पकड़ेंगे. लिहाजा, बड़ी चोट टाइम्‍स समूह के कर्मचारियों को लगी जब टाइम्‍स जॉब्‍स डॉट कॉम और इस समूह के अन्‍य पोर्टल से करीब 500 लोगों से चुपके से इस्‍तीफा लिखवा लिया गया और खबर कानों-कान किसी तक नहीं पहुंची. इसके बाद दिल्‍ली के मीडिया बाजार में हल्‍ला हुआ कि यह समूह 1400 पत्रकारों की सूची तैयार कर रहा है जिनकी छंटनी की जानी है. यह महज शुरुआत थी. तब तक अन्‍य मीडिया प्रतिष्‍ठानों में छंटनी की कोई घटना नहीं हुई थी. अचानक पत्रकारों को नौकरी से निकाले जाने के मामलों की बाढ़ आ गई. अमर उजाला ने पंजाब में कई संस्‍करण बंद कर डाले. एक दिन रोजाना की तरह सकाल टाइम्‍स के करीब 70 कर्मचारी जब दिल्‍ली के आईटीओ स्थित अपने दफ्तर पहुंचे, तो उन्‍हें दीवार पर तालाबंदी की पर्ची चस्‍पां मिली. दैनिक भास्‍कर ने कई पत्रकारों को इधर-उधर कर दिया और जंगल की आग की तरह खबर फैल गई कि सियार आ चुका है. मंदी का सियार नवभारत टाइम्‍स में तब से लेकर अब तक करीब दस पत्रकारों को निगल चुका है. काफी जोश-खरोश से फरवरी 2008 में शुरू किए गए हिंदी के इकनॉमिक टाइम्‍स में आठ लोगों की सूची तैयार कर दी गई और तीन को बख्‍शते हुए पांच को उनके घरों का रास्‍ता दिखा दिया गया. ये सारे ऐसे डेस्‍क पर काम करने वाले नए पत्रकार थे जिनका वेतन शुरुआती पांच अंकों में था।
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साभार रविवार डॉट कॉम

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