न्यायपालिका के ताबूत में कील

विजय प्रताप

देश की न्यायपालिका पर आम लोगों को काफी विश्वास रहा है। लेकिन यह विश्वास अभी भी बरकरार है यह बात संदेह से परे नहीं कही जा सकती। खुद मैं अपने व्यक्तिगत जीवनचर्या में इस बात को महसूस कर चुका हूं कि धीरे-धीरे ही सही न्यायपालिका के निजीकरण का प्रस्तावना लिखा जाने लगा है। जिसे मैं अपने साथ हुई एक घटना के बाद समझ सका।
मैं रोज सुबह दस बजे घर से आफिस जाने के लिए निकलता हूं और रात करीब साढ।े दस बजे ही घर वापस लौटता हूं। निःसंदेह एक निजी संस्थान का कर्मचारी हूं। एक दिन इसी वक्त घर लौटा तो एक अजीब घटना से दो चार होना पड।ा। नौकरी की वजह से अपने घर से दूर राजस्थान के कोटा शहर में अपनी दीदी व जीजी के साथ रह रहा हूं। उस दिन जब घर लौटा तो दरवाजे पर दस्तक से पहले ही अंदर से कुछ आवाजें सुनाई दी। जैसे कोई महिला रो कर कह रही थी ''यह रोज शराब पीकर मुझे पीटते हैं मैं इनके साथ नहीं रह सकती।'' आवाज कुछ-कुछ मेरी दीदी की तरह ही लग रही थी सो एक अनजानी से घबराहट से घिर गया। मैं इस तरह के घटना की कल्पना भी नहीं कर सकता था। दीदी और जीजा के बीच इस तरह की कभी तकरार भी नहीं हुई। '' आप क्या चाहती हैं। इनके साथ नहीं तो क्या अकेले रहना पसंद करेगी।'' यह एक नई आवाज थी, जिसे पहले कभी नहीं सुना था। यह बात सुन मेरी घबराहट बढ। गई। मैनें तुरंत दरवाजे पर दस्तक दी। दरवाजा खुला तो रोज की तरह का ही नजारा सामने था। हाथ में रिमोट लिए कुछ निंदीयाई सी दीदी सामने खड.ी थी- 'और लेट आते'। रोज की झिड.की जिसे अब अनसुना करने की आदत हो गई है। अंदर देखा तो सारी तकरार टीवी में होते दिखी। दिल को बहुत सुकून मिला क्योंकि मैं हमेशा से ऐसे घरेलू झगड.ों से घबराता रहा हूं।

लेकिन टीवी पर जो नजारा था वो मेरे लिए बिल्कुल नया और एक तरह से सोचनीय भी था। टीवी पर एक कचहरी चल रही थी। पूर्व आईपीएस अधिकारी किरन बेदी जज के रूप में एक कुर्सी पर विराजमान थी। जिस महिला की आवाज मुझे दरवाजे के बाहर सुनाई दे रही थी वह और उसका पति किरन बेदी के सामने खड.े थे। 'आपकी कचहरी' प्रायोजक बाई फलां-फलां। तो कार्यक्रम का नाम था 'आपकी कचहरी'। इसमें आम जन के पारिवारिक व गैर आपराधिक मुकदमों की सुनाई होती है और आम सहमती से हल निकाला जाता है। पीडि.त पक्ष को नया जीवन शुरू करने के लिए कई बार यह कचहरी आर्थिक अनुदान भी देती है।
अब देखिए इस आपकी कचहरी से कितने लोगों को लाभ पहुंच रहा। मध्यवर्ग के लिए इससे अच्छा और क्या हो सकता है कि जहां आधे घंटे में उसके झगड।ों का निपटारा हो जाए और साथ में कुछ अनुदान भी मिले। फिर उसे इससे क्या मतलब कि इसके माध्यम से कार्यक्रम बनानी वाली कंपनी कितना विज्ञापन बटोर रही है। इसके दर्शक वर्ग में ज्यादातर वही मध्यवर्गीय लोग हैं जो अब सास-बहू के बनावटी धारावाहिकों से आजीज आ गए हैं। उन्हें सास-बहू, पति-पत्नी, व बाप-बेटे का झगडा जीवंत देखने को मिल रहे हैं। वैसे पहले से ही यह वर्ग दूसरे के घरों में होने वाले झगड.ों का रसास्वादन करने में आनंद की अनुभूति करता रहा है। कंपनी वाले विज्ञापन के माध्यम से पैसा पीट कर खुश हैं। और सालों से कचहरियों का चक्कर लगाने वाले लोगों के लिए तो यह किसी ऐतिहासिक घटना से कत्तई कम नहीं।

लेकिन ऐसे कार्यक्रम की केवल इतनी ही सच्चाई है कि यहां लोगों को जल्दी न्याय मिल रहा है या इसके पीछे भी कुछ है। आपकी कचहरी प्रसारित होने से पहले की पृष्टभूमि पर नजर डाले तो बातें कुछ ज्यादा स्पष्ट हो जाएगीं। पिछले कई दशकों से कचहरियों व न्यायपालिकाओं में आम लोगों के लिए न्याय मिलना दूर की कौड।ी साबित होता रहा है। गांव के लोग तो पुलिस कचहरी के चक्कर से बच निकले को जन्नत मिलने के बराबर मानते हैं। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है, कि इन संस्थाओं के प्रति लोगों में कैसी धारणाएं हैं। न्यायपालिका के यहां तक के सफर ठीक वैसे ही रहा है जैसे कि सार्वजनिक कार्यपालिका में भ्रष्टाचार। वर्तमान में सरकारी महकमों को बड।े पैमाने पर निजी हाथों में सौंपने की पृष्टभूमि भी कुछ इसी तरह से तैयार की गई थी। पहले भ्रष्टाचार व अफसरशाही को फलने-फूलने दिया गया फिर उससे निजात दिलाने के लिए उसे निजी हाथों में सौंप दिया। सो अब निजी कार्यालय लोगों को कथित रूप से अधिक तेज व आसान सुविधाएं प्रदान कर रहे हैं। लोकतंत्र के एक और महत्वपूर्ण स्तम्भ संसद में भी निजी कंपनियां व उद्योगपति तेजी से निवेश बढ।ा रहे हैं। राजनीति में व्याप्त भ्रश्ट्ाचार व गुंडई को दूर करने के लिए मध्यवर्ग के आदर्ष व्यक्ति राजनीति में कदम रखने लगे हैं या यूं कहें कि अवतार ले रहे हैं। सपा व अमर सिंह जैसे लोगों का गर्भ ऐसे लोगों को पालने के लिए हमेशा से उपलब्ध रहा है। अभी तो टाटा-अंबानी नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनावाने में जुटे हैं, लेकिन उस दिन कि कल्पना भी कोरी नहीं होगी जब नरेन्द्र मोदी जैसे लोग टाटा-अंबानी में देश का प्रधानमंत्री बनने के गुण तलाशेंगे। अपने को चौथा स्तम्भ कहने वाली मीडिया की यहां बात न ही कि जाए तो बेहतर होगा। उसकी बिकाउ दशा से सभी वाकिफ हैं।
ऐसे में न्यायपालिका एकमात्र ऐसी संस्था थी जहां न्याय पाना हमेशा से दूर की कौड.ी रही है लेकिन आम लोगों का विश्वास बना हुआ था। हांलाकि पिछले कुछ फैसलों ने ही तय कर दिया था कि निजी संस्थाओं के कितने दबाव में काम कर रही है। ऐसे में 'आपकी कचहरी' जैसे कार्यक्रम को इस न्यायपालिका के ताबूत में एक अहम कील कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसे भविष्य की निजी कचहरियों का ही एक रूप कहा जा सकता है। और ऐसा हुआ तो लोकतंत्र का एकमात्र मात्र बचा खम्भा भी ढहने को तैयार है।

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