जिम्मेदारी से मुंह न चुराए सरकार

आनंद प्रधान

राजधानी में रायसीना की पहाçड़यों पर स्थित नॉर्थ ब्लॉक में बैठे वित्त मंत्रालय के आला अधिकारियों को जैसे इस खबर का ही इंतजार था। केंद्रीय सांçख्यकी संगठन (सीएसओ) के अगि्रम अनुमान के अनुसार, चालू वित्त वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 7।1 प्रतिशत रहने की उम्मीद है। इस खबर के साथ ही वित्त मंत्रालय के आला अधिकारियों से लेकर योजना आयोग और प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति में वित्त मंत्रालय का कामकाज देख रहे प्रणब मुखर्जी के चेहरे तक पर खुशी, राहत और निश्चिंतता के भाव साफ देखे जा सकते हैं। वजह साफ है। हालांकि पिछले वित्त वर्ष (2007-08) में जीडीपी की नौ प्रतिशत की वृद्धि दर की तुलना में चालू वित्त वर्ष (2008-09) में 7।1 फीसदी की दर का अनुमान अर्थव्यवस्था की धीमी पड़ती रफ्तार की ओर ही संकेत करता है, लेकिन यूपीए सरकार के आर्थिक मैनेजरों का दावा है कि वैश्विक मंदी और वित्तीय संकट के बीच दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले भारतीय अर्थव्यवस्था का यह प्रदर्शन न सिर्फ संतोषजनक है, बल्कि वह दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। यही नहीं, इन मैनेजरों का यह भी दावा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था इस साल की दूसरी छमाही यानी अगले वित्त वर्ष (09-10) की दूसरी तिमाही से फिर गति पकड़ने लगेगी। इन दावों के पीछे छिपे संदेश स्पष्ट हैं। अर्थव्यवस्था के मैनेजरों का कहना है कि अर्थव्यवस्था के लिए चिंता करने की जरूरत नहीं है। वैश्विक मंदी के कारण अर्थव्यवस्था की रफ्तार कुछ सुस्त जरूर है, लेकिन स्थिति पूरी तरह से नियंत्रण में है। पर हकीकत इसके ठीक उलट है। ऐसे गुलाबी दावे करने के पीछे इन आर्थिक मैनेजरों की मजबूरी समझी जा सकती है। अगले दो-तीन महीनों में आम चुनाव होने हैं और यूपीए सरकार अपने आर्थिक प्रबंधन का ढोल पीटने से पीछे नहीं रहना चाहती। वह जीडीपी वृद्धि दर के ताजा आंकड़ों के आधार पर यह साबित करना चाहती है कि विपरीत और प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद उसने अर्थव्यवस्था को कामयाबी के साथ संभाला है। लेकिन अर्थव्यवस्था को लेकर यूपीए सरकार और उसके आर्थिक मैनेजरों की यह खुशफहमी और निश्चिंतता देश को भारी पड़ रही है। सरकार भले न स्वीकार करे, लेकिन सच यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था लगातार नीचे की ओर लुढ़क रही है। यहां तक कि जीडीपी को लेकर सीएसओ का अगि्रम अनुमान भी कुछ ज्यादा ही आशाजनक दिखाई देता है। रिजर्व बैंक और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अनुमानों को छोड़ दें, तो चालू वित्त वर्ष (2008-09) में जीडीपी की वृद्धि दर को लेकर अधिकांश गैर सरकारी और विश्व बैंक-मुद्रा कोष जैसे संगठनों और एजेंसियों के अनुमान पांच से 6।5 फीसदी के बीच हैं। यही नहीं, अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से आ रहे संकेतों से भी यह स्पष्ट है कि सरकारी दावों के विपरीत हमारी अर्थव्यवस्था न सिर्फ लड़खड़ा रही है, बल्कि गहरे संकट में फंसती दिख रही है। इसका सुबूत यह है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अपने ताजा अनुमान में वर्ष 2009 में भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर के सिर्फ पांच प्रतिशत रहने की आशंका व्यक्त की है। इस आशंका को इस तथ्य से बल मिलता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की तेजी में उल्लेखनीय योगदान करने वाले कई क्षेत्रों, जैसे निर्यात, मैन्युफैक्चरिंग, रीयल इस्टेट, वित्त एवं बीमा, सेवा तथा परिवहन-होटल व्यापार की हालत बहुत पतली है। खासकर मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र पर मंदी की सबसे तगड़ी मार पड़ी है। सीएसओ के अनुसार, चालू वित्त वर्ष में मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की वृद्धि दर पिछले वित्त के 8।2 प्रतिशत से गिरकर आधी 4।1 फीसदी रह जाने की आशंका हैं। ध्यान रहे कि पिछले अक्तूबर में औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर पिछले 13 वर्षों में पहली बार नकारात्मक हो गई थी। हालांकि अगले महीने नवंबर में उसमें मामूली सुधार दर्ज किया गया, लेकिन औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर में भारी गिरावट को जीडीपी की 7।1 प्रतिशत की वृद्धि दर से छिपा पाना मुश्किल है। अगर सरकारी आंकड़े को ही सही मानें, तब भी स्थिति कितनी भयावह है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले वर्ष की आखिरी तिमाही में हर दिन लगभग 5,434 श्रमिकों को छंटनी का शिकार होना पड़ा है। केंद्रीय वाणिज्य सचिव के अनुसार, पिछले साल अगस्त से दिसंबर के बीच 10 लाख श्रमिकों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा है और मौजूदा स्थितियों को देखते हुए मार्च तक पांच लाख और श्रमिकों पर छंटनी की गाज गिर सकती है। अर्थव्यवस्था की दिन पर दिन बदतर हो रही स्थिति का अंदाजा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि एक ओर लाखों श्रमिकों की नौकरियां जा रही हैं, तो दूसरी ओर, नए निवेश न होने के कारण नई नौकरियां पैदा नहीं हो रही हैं। देश में निवेश प्रोजेक्ट्स की निगरानी करने वाले संगठन प्रोजेक्ट्स टुडे के अनुसार, पिछले वर्ष दो लाख नौ हजार करोड़ रुपये से ज्यादा के करीब 420 नए प्रोजेक्ट या तो ठप हो गए या फिर ठंडे बस्ते में डाल दिए गए हैं।यही नहीं, केंद्र सरकार की कर वसूली में पिछले वित्त वर्ष (07-08) की तुलना में अक्तूबर में 13 प्रतिशत, नवंबर में 15 प्रतिशत और दिसंबर में 25 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। अगर इसके बावजूद यूपीए सरकार और उसके आर्थिक मैनेजरों को लगता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन संतोषजनक है और इस साल के उत्तराद्धü तक स्थिति बेहतर हो जाएगी, तो मानना पड़ेगा कि वे न केवल परम आशावादी हैं, बल्कि खालिस खुशफहमी में जी रहे हैं। निश्चिंतता की यह मुद्रा ओढ़ने के पीछे कहीं यह वजह तो नहीं है कि अर्थव्यवस्था की बिगड़ती स्थिति की सचाई स्वीकारने पर सरकार को उससे निपटने के लिए मैदान में उतरना पड़ेगा और जबानी जमाखर्च के बजाय ठोस उपाय करने पड़ेंगे? साफ है कि सरकार अपनी जिम्मेदारी से मुंह चुराने की कोशिश कर रही है। दरअसल, वह अब भी नव उदारवादी अर्थनीति की लक्ष्मण रेखा लांघने को तैयार नहीं है। उसके लिए अब भी मंदी से अधिक महत्त्वपूर्ण वित्तीय घाटे को काबू में रखना है। इसीलिए वह साहस के साथ नई पहलकदमी के लिए तैयार नहीं है और 7।1 फीसदी की वृद्धि दर को लेकर अपनी पीठ ठोंकने में जुटी हुई है।(लेखक आईआईएमसी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)

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