होली का उपहार, शिवराम की दो कविताएँ

कोटा में अपनी पहली होली पर शाम को जब रंगकर्मी, साहित्यकार और मार्क्सवादी नेता शिवराम से मिला तो उन्होंने मुझे ये दो कविताएँ उपहार में दी. जिसे आप सभी के साथ साझा कर रहा हूँ.

भूरे हो गए हैं खेत

भूरे हो गए हैं खेत

आभा सुनहरी

माथे पर उपहार की गठरी उठाए

स्वागत में कड़ी हैं

गेहूं के पौधों की लम्बी कतारें

जीवन के अंतिम क्षणों में

व्यग्र हैं वे

भेंट करने को

अपना श्रेष्टतम उपहार

सर्वस्व अपना/उन्हें

जिन्होंने दिया जीवन

पाला पोषा

हर तरह से रखा ध्यान

कुछ भी न जाए, हमारा व्यर्थ

बस यही एक कमाना संजोये

नाम आँखों से तक रहे वे राह

उनकी कोख से उत्पन्न

सुघड़ अन्न

बनेगा जीवनधारा

सृष्टि की श्रेष्ट रचना का

वे उल्लासित हैं

गर्व से ताना है, उनका शीश

हवा के हर झोंके पर झूमते महकते हैं भीना-भीना

भूरे हो गए हैं खेत

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नए हुनर की तलाश में

हवा शांत है,

लेकिन पतंग उड़ रही है

ठुमका - ढील

ठुमका - ढील

ठुमका दर ठुमका

फिर थोडी से ढील

ढील - खेंच

पतंग है की गिरी - गिरी जाती है

किशोर है की उसे उठाए - उठाए जाता ही

हाथों को क्षण भर का चैन नहीं

आँखे लगातार पतंग पर

पैर हर ठुमके पर

चलने लगते हैं पीछे

नीचे से रह-रह कर आवाज़ आ रही है

खाने के लिए पुकारा जा रहा है

पता नहीं

वह सुन भी पा रहा है या नहीं

अभी वह कर्मयोग में डूबा हुआ है

पूरी तरह एकाग्र

ध्यानस्थ

दत्तचित्त

वह हवा-गति के बिना भी

पतंग उड़ने का हुनर विकसित कर रहा है.

हो सकता है

वह सोच रहा है

ऐसी पतंग के बारे में

जो बिना हवा के उड़ सके।

- शिवराम

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