जाएं तो जाएं कहां !

- दो राहे पर खड़ा राजस्थान का मुस्लिम मतदाता

- विजय प्रताप

राजस्थान में लोकसभा चुनावों टिकट बंटवारे से लेकर प्रचार तक में यहां के दोनों ही राष्ट्ीय दलों को जातिगत नेताओं के आगे नाक रगड़नी पड़ी। हांलाकि दलाल प्रवृत्ति के यह नेता अंततः राजनैतिक दलों से सौदेबाजी कर जनता के भरोसे व विश्वास की कीमत वसूल चुके हैं। पिछले वर्ष भाजपा के ‘ाासनकाल में हुए गुर्जर आंदोलन में 70 से अधिक गुर्जरों को पुलिस ने गोलियों से भून दिया। उस आंदोलन से चर्चा में आए कर्नल किरोडी लाल बैंसला आज उसी भाजपा की गोद में जा बैठे हैं। मीणा जाति के नेता किरोड़ी लाल मीणा भी अंत समय तक कांग्रेस से सौदे बाजी करते रहे। अन्ततः कांग्रेस ने उनके साथ के ज्यादातर विधायकों को अपनी तरफ मिला मीणा को ही अकेला छोड़ दिया।
इन सब के बीच राज्य का एक बड़ा वोट बैंक अल्पसंख्यक मुसलमान चुनाव के अंतिम क्षणों तक खामोश है। न तो उसकी तरफ से कोई ऐसा नेता निकल कर आया जो उसके लिए राजनैतिक दलों से मोलभाव करे और न ही इस समुदाय के बीच से कोई ऐसी आवाज उठी जो दोनों मुख्य दलों की नीतियों का विरोध करे। इस चुनाव में प्रदेश में कांग्रेस और बसपा को छोड़कर किसी भी राष्ट्ीय दल ने मुसलमान को टिकट नहीं दिया। प्रदेश के मुस्लिम हमेशा कांग्रेस के साथ रहे हंै, इसलिए कांग्रेस की भी मजबूरी है कि उसे खुश करने के नाम पर ही सही एक टिकट मुस्लिम उम्मीदवार को दे। सो उसने इस बार चुरू संसदीय सीट से रफीक मण्डेलिया को टिकट दिया है। बसपा ने नागौर से एक पूर्व कांग्रेसी मंत्री अब्दुल अजीज को टिकट दिया है। इसके अलावा दौसा आरक्षित सीट पर कश्मीरी गुर्जर मुसलमान नेता कमर रब्बानी चेची ने पर्चा भर कर वहां मुकाबला त्रिकोणात्मक कर दिया है। इन तीन सीटों के अलावा प्रदेश में कहीं भी कोई मुस्लिम उम्मीदवार मुकाबले में नहीं दिखता। साढ़े पांच करोड़ की आबादी वाले इस प्रदेश में मुसलमानों की आबादी करीब साढे़ आठ फीसदी है। बावजूद इसके चुनावांे में उसे हाशिए पर ढकेला जा चुका है। इसके पीछे कुछ अहम कारण हैं, जिनकी पड़ताल की जानी जरूरी है।
ऐसा नहीं की प्रदेश में मुसलमानों के पास कोई मुद्दा या सवाल नहीं। हां उनके मुद्दे पर सही ढं़ग से आवाज उठाने वाले नेताओं या संगठनों की कमी जरूर है। प्रदेश की द्विधु्रवीय राजनीति में यह विकल्पहीनता ही इस समुदाय को मजबूर करती है कि वो कांग्रेस या भाजपा में से किसी एक को चुन ले। ऐसे में मुसलमानों के सामने कांग्रेस के साथ जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। इस लोकसभा चुनाव से भी ठीक पहले राज्य के 22 मुस्लिम संगठनों ने राजस्थान मुस्लिम फोरम के बैनर तले, संघ व उसकी सहोदर ‘ाक्तिओं को सत्ता से दूर रखने के नाम पर कांग्रेस का साथ देने की घोषणा की है। हांलाकि कांग्रेस को समर्थन देने की मजबूरी को इस फोरम के नेता भी छुपा नहीं सके। फोरम के संयोजक कारी मोइनुद्दीन इसे मुश्किल किंतु राष्ट्हित का निर्णय बताते हैं। उनका कहना है कि प्रदेश में सांप्रदायिक तत्वों को सत्ता से दूर रखने का और कोई विकल्प नहीं है। कांग्रेस को बिना ‘ार्त समर्थन देने पर अपनी सफाई में कारी कहते हैं कि कांग्रेस को चुनने के पीछे कोई विशेष लगाव या कांग्रेस अच्छी पार्टी है जैसी कोई बात नहीं। हमारी कांग्रेस से भी लाखों शिकायते हैं। लेकिन उसके अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं हो सकता इसलिए कांग्रेस को समर्थन देना एक राजनीतिक निर्णय है। फोरम में ‘ाामिल जामत-ए-इस्लामी हिंद के राज्य अध्यक्ष मोहम्मद सलीम इंजीनियर भी इसे ‘दर्दनाक खुशी’ कहते हैं। यह दर्द उभरे भी क्यों न। पिछले कुछ सालों में राज्य में भाजपा व संघ की सरकार ने उनके दिलों के घावों को और कुरेदा है। सलीम इंजीनियर बताते हैं कि ‘‘भाजपा ‘ाासनकाल में राज्य में 100 से अधिक छोटे-बड़े दंगे हुए। इस दौरान प्रदेश में न केवल मुसलमानों को बल्कि अल्पसंख्यक इसाई समुदाय को भी भय व असुरक्षा के साये में जीना पड़ा है। धर्म स्वातन्त्र बिल के नाम पर अल्पसंख्यक समुदाय की आजादी पर लगाम कसने की कोशिश की गई।’’ दरअसल राजस्थान में भी गुजरात की तर्ज पर भाजपा के माध्यम से राष्ट्ीय स्वयं सेवक संघ ने हर तरह से अपने एजेंडे को लागू करने की कोशिश की। संघ व उससे जुड़े संगठनों ने छोटी-छोटी घटनाओं को सांप्रदायिक रूप देकर अल्पसंख्यकों पर हमला किया। फरवरी 2005 में कोटा रेलवे स्टेशन पर आंध्र प्रदेश से किसी धार्मिक सभा में भाग लेकर लौट रहे 250 ईसाइयों पर बजरंग दल, भाजपा व संघ कार्यकत्र्ताओं ने हमला बोल दिया। इस घटना के बाद पीड़ितों की शिकायत दर्ज करने की बजाए पुलिस ने हमलावरों की तरफ से ही जबर्दस्ती धर्म परिवर्तन कराने की कोशिश का मामला दर्ज किया। उस समय राज्य के पुलिस महानिदेशक ए एस गिल के संघ से रिश्ते जगजाहिर थे। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले नवम्बर 2008 में जयपुर में श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोटों ने रही सही कसर पूरी कर दी। इसके बाद बड़े पैमाने पर मुसलमानों की गिरफ्तारियां हुई। जयपुर, कोटा, जोधपुर, सीकर, बूंदी व बारां जिलों से पचासों मुसलमान युवकों को एसटीएफ ने पूछताछ के नाम पर उठाया। उनके रिश्ते बांग्लादेशी संगठन हरकत-उल-जेहाद-ए-इस्लामी व इंडियन मुजाहिद्दीन के साथ बताए गए। पूछताछ के नाम पर उन्हें हफ्तों मानसिक प्रताड़ना दी गई। इसमें से करीब 27 युवक अभी भी जेल की सलाखों के पीछे अपना अपराध सिद्ध होने का इंतजार कर रहे हैं। जयपुर बम विस्फोट से पहले 2007 में अजमेर के ख्वाजा मुउनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के सामने हुए बम विस्फोट के मामले में भी पुलिस ने अपनी मानसिकता के अनुरूप कई मुस्लिम युवकों को उठाया। दो सालों तक संघ के साये में इसकी जांच चली। लेकिन कुछ दिन पहले ही यह खुलासा हुआ कि अजमेर विस्फोट में अभिनव भारत जैसे हिंदू आतंकवादी संगठन का हाथ था। राज्य की पुलिस ने अब इस दिशा में जांच ‘ाुरू कर दी है। संघ गुजरात के बाद राजस्थान को दूसरी प्रयोगशाला की तरह इस्तेमाल किया। पिछले पांच सालों में राज्य में संघ ने अपना जबर्दस्त जाल फैलाया और वनवासी कल्याण आश्रम के माध्यम से आदिवासी जातियों के बीच भी मुसलमानों व इसाई अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा का बीज बोया। मुसलमानों को यह सारी कसक रह-रह कर टीस देती है। इस दर्द को मुस्लिम मतदाताओं की बातों में भी महसूस किया जा सकता है। कोटा में रहने वाले राशीद वोट देने के सवाल पर कहते हैं कि ‘‘वोट देकर ही क्या होगा। कौन सी पार्टी मुसलमानों का भला चाहती है। चुनाव के समय हमे सभी अपना कहते हैं, लेकिन चुनाव बाद फिर से हमारे बेटों को आंतकवादी व पाकिस्तानी बताया जाने लगता है।’’ राशिद अपनी बातों में जयपुर बम धमाकों के बाद कोटा से उठाए गए लड़कों की तरफ इशारा कर रहे हैं। इन धमाकों के बाद कोटा से फर्जी गिरफ्तारियों पर यहां के मुस्लिम समुदाय प्रतिक्रियास्वरूप कई महीनों तक खुद को अलगाव में रखा। मुस्लिम धर्मगुरुओं ने मीडिया विशेषकर यहां के दो प्रमुख समाचार पत्रों का कई महीनों तक बहिष्कार किया। राज्य के अन्य जिलों में भी मुस्लमानों ने कुछ इस तरह अपना विरोध दर्ज कराया। जयपुर में बांग्लादेशी मजदूरों की गिरफ्तारियों व मुसलमानों को प्रताड़ित किए जाने पर जमात ए इस्लामी हिंद व अन्य संगठनों ने एक यात्रा निकालकर इस बंटवारे की राजनीति का विरोध किया। इस समय कांग्रेस का एक भी नेता खुलकर मुसलमानों के समर्थन में नहीं आया। अब जब कि चुनाव हो रहे हैं कांग्रेसी नेता इस बात को बेहतर तरीके से जानते हैं कि मुुसलमान उन्हें छोड़कर कहीं जा नहीं सकते, इसलिए उन्हें भी मुस्लिम हितों की कोई परवाह नहीं।
राजनीतिक विश्लेषकों की माने तो राजस्थान का मुसलमान समुदाय उत्तर प्रदेश या बिहार की तरह खुशनसीब नहीं जो कांग्रेस या भाजपा से शिकायत होने पर किसी अन्य दल के साथ जाकर राजनीति में अपनी भागीदारी दर्ज करा सके या कुछ हासिल कर सके। राजस्थान के एक माक्र्सवादी नेता शिवराम कहते हैं कि यहां की परिस्थितियां इन राज्यों से भिन्न हैं। उत्तर प्रदेश या बिहार में मुस्लिम समुदाय के पास विकल्प है तो इसके मूल में वहां मंडल कमंडल आंदोलन का व्यापक प्रभाव है। इन दोनों राज्यों में बाबरी विध्वंस और उसके बाद पिछड़ी जातियों के आरक्षण आंदोलन ने न केवल मुसलमानों को बल्कि हिंदूओं के भी पिछड़े व दलित तबके को भाजपा व कांग्रेस की सांप्रदायिक व बंटाने वाली राजनीति से दूर ले गई। एक तरफ यह दूरी ऐसी जातियों को दूसरे विकल्पों की तलाश करने पर मजबूर किया तो दूसरी तरफ उनके और मुस्लिम समुदाय के बीच की दूरियों को भी कम कर दिया। इससे पहले तक भाजपाई व कांग्रेसी राजनीति का आधार हुआ मुसलमानों व हिंदूओं की बीच की यह दूरी ही सत्ता पाने की कुंजी हुआ करती थी। इसके बाद से इन राज्यों के मुस्लिम समुदाय के साथ भले ही छोटे दलों ने धोखा किया हो, लेकिन वह अभी भी कांग्रेस या भाजपा के साथ जाने पर मजबूर नहीं है।
मीडिया बार-बार कुछ धार्मिक मुस्लिम नेताओं के माध्यम से दिखाने की कोशिश करती है कि मुसलमानों के लिए बाबरी मस्जिद निर्माण या धार्मिक संरक्षण जैसे ही मुद्दे अहम हैं। लेकिन राजस्थान में आम मुसलमानों से बात करिए तो उनका यह कत्तई मुद्दा नहीं। उनके भी मुद्दे वही हैं जो एक हिंदू मतदाता का है न कि किसी कठमुल्ला मुस्लिम धर्मगुरू का। एक सेल्समैन का काम कर रहे 25 वर्षीय युवा आफताब कहते हैं कि उन्हें केवल उनकी योग्यता के अनुसार रोजगार चाहिए। उनके लिए मस्जिद-मंदिर कोई मुद्दा नहीं है। बीबीए कर चुके आफताब को सेल्समैन का काम करना पड़ रहा है। वह चाहते हैं कि राज्य से बाहर दिल्ली या मुबंई जाकर किसी कंपनी में काम करे। लेकिन आतंकवादी घटनाओं के बाद धड़ाधड़ मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी से उनके माता-पिता आतंकित हैं। उनकी मां ‘ाबाना बेगम कहती हैं ‘‘ हम कम पैसों में भी गुजारा कर लेंगे। लेकिन अल्ला उसे सलामत रखे।’’ एक स्वयं सेवी संगठन में काम कर रहे अनवार अहमद कहते हैं कि ‘‘ सरकार किसी की भी बन जाए सभी हमे पिछड़ा ही रखना चाहते हैं। यही उनकी राजनीति का आधार है।’’ सच्चर कमेटी रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहते हैं कि उसमें हमारी सारी सच्चाई साफ हो गई। लोग कहते हैं हम मदरसों में इस्लामिक शिक्षा ले रहे हैं कितने मुसलमानों के बच्चे मदरसे जाते हैं? सरकारें तो हमें अनपढ़ ही रखना चाहती हैं ताकि वो आगे न बढ़ सके और उनके बारे में वह भ्रम फैलाती रहें। हांलाकि अच्छी सरकार के सवाल का उनके पास भी कोई विकल्प नहीं है। वह चाहते हैं सरकार चाहे जिसकी बने पिछड़े-गरीब तबकों को लाभ मिले क्योंकि गरीबी में हिंदू या मुस्लिम को कोई बंधन नहीं। कुल मिलाकर राज्य का मुस्लिम समुदाय दो राहे पर खड़ा है। एक रास्ता भाजपा व संघ के फासीवादी यातनागृह की ओर जा रहा है तो दूसरा रास्ता छद्म धर्मनिरपेक्षता की चादर ओढ़े कांग्रेसी कैंप तक। यहां के मुस्लिम, उजले भविष्य का सपना संजोए वह अंधेरे रास्ते की ओर बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।

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