चुनाव आयोग के नाम एक चिट्ठी

प्रति
मुख्य चुनाव आयुक्त
चुनाव आयोग
निर्वाचन सदन
नई दिल्ली

एवं

अध्यक्ष
भारतीय प्रेस परिषद
नई दिल्ली
विषय: लोकसभा व विभिन्न राज्यों में पिछले विधानसभाओं चुनाव के दौरान मीडिया द्वारा की गई चुनावी रिपोर्ट व विज्ञापनों का अध्धयन करने के संबंध में

मैं एक घटना के साथ अपनी शिक़ायत और चिंता आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं। लोकसभा के लिए चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अमृतसर का दौरा किया था। वहां उन्होने एक रैली को संबोधित किया लेकिन स्थानीय टीवी चैनलों ने उनकी रैली का सीधा प्रसारण नहीं किया जबकि चैनलों द्वारा पंजाब के मजीठा में भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी की रैली का सीधा प्रसारण किया गया।

किसी ख़बर के महत्व और प्रसारण-प्रकाशन के लिए उसके चयन का मामला मीडिया संस्थान की स्वतंत्रता से जुड़ा हो सकता है, लेकिन क्या ऐसा संभव है कि किसी भी चैनल को प्रधानमंत्री की रैली सीधे प्रसारण के लिए ज़रूरी नहीं लगा? जबकि पंजाब में सत्तारूढ़ पार्टी अकाली दल वाले गठबंधन एनडीए के नेता लालकृष्ण आडवाणी की रैली चैनलों को बेहद महत्वपूर्ण लगी? दरअसल यह मीडिया पर नियंत्रण की स्थिति में हुआ। जन संचार के माध्यमों पर पूंजीवादी मीडिया संस्थानों का नियंत्रण पूरी दुनिया में बहस का विषय बना हुआ है। भारत में भी मीडिया पर ऐसा ही नियंत्रण बढ़ता जा रहा है। पंजाब में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं, जिससे ये पता किया जा सकता है कि मीडिया और खासतौर से इलेक्ट्रोनिक चैनलों पर अकाली दल के नेताओं का किस हद तक नियंत्रण है। मीडिया में नियंत्रण और उसके नतीजों से जुड़ा विषय आपके हद से बाहर का हो सकता है।

हम आपसे चुनाव के दौरान स्वतंत्रता के नाम पर मीडिया ने जिस तरह से रिपोर्टिंग की है, उसके अध्‍ययन की मांग कर रहे हैं, जिससे ये पता चलता है कि मीडिया में चुनाव प्रचार का नया तरीका कैसे विकसित किया गया है। पंजाब में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के चैनलों में तो चुनाव के दौरान ख़बर और स्‍टूडियो में बातचीत के विषय और पैनल के अध्‍ययन से इस बात का खुलासा हो सकता है कि पिछले लोकसभा के चुनाव के दौरान प्रचार के कितने वैसे तरीक़े खोज निकाले गये हैं, जिन तक चुनाव आयोग की पहुंच नहीं है या उन्हें अनदेखा करना संभव है।

मैं पहले स्पष्ट कर दूं कि यह मसला देश भर से जुड़ा है। पंजाब में सत्तारूढ़ दल ने चुनाव के दौरान मीडिया का अपने लिए इस्तेमाल करने की योजना चुनाव से बहुत पहले किस तरह से बनायी, ये पहलू महत्वपूर्ण है। पंजाब में सरकार ने एक न्यूज चैनल (पीटीसी पंजाबी) को 1 अप्रैल 2008 से जनवरी 2009 तक अठहत्तर लाख बत्तीस हजार तीन सौ तिहत्तर रुपये का विज्ञापन जारी किया। जबकि प्रसार भारती को मात्र दो लाख बासठ हजार उनहत्तर रूपये का विज्ञापन जारी किया। दूसरे निजी चैनलों में फास्ट वे और एम एच वन को क्रमश: चालीस लाख चालीस हजार सात सौ सैतीस और अठावन लाख चौरासी हजार आठ सौ उन्नीस रूपये के विज्ञापन जारी किए। क्या इसका सीधा संबंध चुनाव के दौरान सत्तारूढ़ पार्टी के लिए इन चैनलों का इस्तेमाल करने से नहीं जुड़ा है? जुड़ा है और यह सरकारों ने एक नया तरीका निकाला है कि कैसे सरकारी खर्चों से पार्टी के चुनाव प्रचार में आने वाले खर्च की भरपाई की जाए।

पंजाब की तरह दूसरे राज्यों और खासतौर से दिल्ली में भी इसका अध्धयन किया जाना चाहिए। मुझे एक संवाददाता ने बताया कि वे चुनाव के दौरान चुनाव आयोग की प्रेस ब्रिफिंग के दौरान पूर्व में दिये गये सवालों का जवाब दो दिनों तक मांगते रहे लेकिन आयोग के प्रवक्ता उनका जवाब नहीं दे सके। वे सवाल केन्द्र सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन डीएवीपी द्वारा चुनाव के ऐन मौके पर कुछ विज्ञापन कंपनियों को ठेके आदि देने के मक़सद से आमंत्रित करने से जुड़े थे। क्या ये चुनाव आयोग की मंजूरी से हुआ? सवाल यही पूछा गया था। दरअसल पंजाब की तरह केन्द्र में भी एक अध्‍ययन ये किया जाना चाहिए कि सत्तारूढ़ पार्टी के लिए जो विज्ञापन कंपनियां काम कर रही थीं उन्हें सरकारी संस्थानों द्वारा उनमें से कितनों को भविष्य में काम देने के लिए चुना गया है? दूसरी बात कि चुनाव के ठीक पहले कितने के विज्ञापन विभिन्न मंत्रालयों और डीएवीपी द्वारा मीडिया में किन-किन संस्थानों को जारी किए गए। तीसरी बात ज्यादा गंभीर दिखती है। लोकसभा के लिए चुनाव कराने का समय लगभग तय था। 28 फरवरी 2009 को केन्द्र सरकार ने समाचार पत्रों के लिए डीएवीपी के विज्ञापनों के रेट में दस प्रतिशत की बढ़ोत्तरी कर दी। यही नहीं, समाचार पत्रों द्वारा विज्ञापन पर भुगतान किये जाने वाले पन्द्रह प्रतिशत कमीशन को तीस जून 09 तक के लिए माफ कर दिया।

क्या सरकारी खर्च पर पार्टियों के चुनाव प्रचार का तरीका स्थायित्व ग्रहण कर रहा है? इस पर चुनाव आयोग कैसे रोक लगाये, इस बारे में सोचा जाना चाहिए। सत्तारूढ़ दल द्वारा मीडिया पर नियंत्रण और उसका चुनाव के दौरान इस्तेमाल तो एक बात हुई। दूसरी बात सरकारी खर्च पर पार्टी के चुनाव प्रचार के निकाले जाने वाले तौर तरीकों का अध्‍ययन करना है। लेकिन आपको इस पत्र को लिखने का मकसद यही नहीं है। स्थिति बेहद चिंताजनक है। संसदीय लोकतंत्र में तमाम संस्थाएं अपना भरोसा खोती जा रही हैं - ये तो कहा ही जाता है। अब बात उससे आगे निकल चुकी है। संस्थाओं का नैतिक बल या मनोबल इतना कमज़ोर होता जा रहा है कि वो एक दूसरे पर निगरानी रखने के काम से मुंह मोड़ रही है। संस्थाएं लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाने की कोशिश करने के बजाय तानाशाही और निरंकुशता की तरफ बढ़ती जा रही हैं। संसदीय लोकतंत्र में आपकी चिंता केवल संसदीय प्रक्रिया भर पूरी कराने की है तो फिर कोई बात बेमानी है। लेकिन मैं समझता हूं कि लोकतंत्र ही मुख्य है। यहां तो संसदीय महज प्रक्रिया है।

संसदीय लोकंतत्र को चार स्तंभों पर टिकी व्यवस्था कहा जाता है।चौथा स्तंभ अपनी विश्वसनीयता लगातार खोता जा रहा है। जिस चुनाव को संसदीय लोकतंत्र के सबसे बड़े महापर्व के रूप में घोषित किया जाता है उस महापर्व को मीडिया ने अपनी काली कमाई का जरिया बना लिया है।आपको बताने की जरूरत नहीं है कि मीडिया में उन्हीं पार्टी के उम्मीदवारों को चुनाव के दौरान प्रचार मिलता है जो कथित बड़ी पार्टी के उम्‍मीदवार होते हैं। चुनाव आयोग द्वारा मात्र पंद्रह दिन चुनाव प्रचार के लिए दिये जाते हैं। चुनाव प्रचार में भी इस तरह की पाबंदियां हैं कि पोस्टर, बैनर आदि के लिए पैसा खर्च किये बिना जगहें ढूंढना संभव नहीं है। पैसे वाले उम्मीदवार उस जगह का भी इस्तेमाल कर लेते हैं, जिन्हें इस्तेमाल करना वर्जित है। जैसे एक उदाहरण यहां बताता हूं कि मेरठ के एक उम्मीदवार ने ऐसी जगह (एन एच 58 और 24) का इस्तेमाल किया, लेकिन सत्ता उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती थी। दूसरी तरफ मीडिया में उसकी खबरें नहीं छपी क्योंकि उसने मीडिया को विज्ञापन के बोझ से लाद दिया था। गरीब और कम पैसे खर्च करने वाले उम्मीदवारों को मीडिया वाले जगह देते नहीं हैं और आयोग ने भी अपने स्तर पर कोई ऐसी व्यवस्था नहीं कर रखी जहै, सके जरिये कम पैसे वाले उम्मीदवार अपने आपको क्षेत्र के मतदाताओं से परिचित करा सकें। लेकिन ये तो एक अलग विषय है। पिछले पांच वर्षों के दौरान मीडिया में व्यवसाय का एक नया तरीका विकसित हुआ है। समाचार पत्रों में खबरों की शक्ल में विज्ञापन छपने लगे हैं। पैसे वाले उम्मीदवार समाचार पत्रों में एक जगह खरीद लेते हैं और वहां अपने मन मुताबित खबरें छपवा लेते हैं। ऐसे कई उदाहरण मैं आपकों भेज रहा हूं। पंजाब समेत विभिन्न राज्यों में तो समाचार पत्रों के पेज के पेज खरीद लिये गये। उस पेज पर कहीं भी विज्ञापन नहीं लिखा है। फिर विज्ञापन और खबरों की प्रस्तुति का भी एक मान्य ढांचा है। यदि न दिखने के आकार में विज्ञापन लिख भी दिया जाए, तो ये लिखने भर का मामला नहीं है। धोखाधड़ी का यह आलम है कि ख़बरों की शक्ल में विज्ञापन छाप रहे हैं और उसे विज्ञापन नहीं बता रहे हैं बल्कि उसे समाचार बता रहे हैं। इस तरह से उसे पेश किया जाता है, जैसे कोई संवाददाता अपनी ख़बर लिख रहा हो। पेज ख़रीद कर किसी एक स्थान से पूरे जिले या राज्य भर की खबरें अपनी ओर से उस पर दी जा सकती है। झूठ सच और घटना होने और नहीं होने से उस समाचार का कोई रिश्ता नहीं होता है।

अब तक ये कहा जाता रहा है कि मीडिया में काम करने वाले पत्रकार रिश्वतखोरी करके किसी उम्मीदवार के पक्ष में लिखते हैं। मीडिया में कई तरह के दवाबों में पत्रकार काम करते हैं इससे इंकार नहीं किया जा सकता है लेकिन अब तो मीडिया संस्थान खुलेआम बिकने लगे हैं।पेज मीडिया संस्थान का प्रबंधन ही बेचता है और पत्रकारों का वह सेल्समेन की तरह इस्तेमाल करता है। पत्रकारों को विज्ञापन पर मिलने वाले कमीशन का भुगतान किया जाता है। संस्थानों में पत्रकार कोशिश करता है कि चुनाव के दौरान वह उम्मीदवारों से विज्ञापन के नाम पर ज्यादा से ज्यादा पैसा संस्थान को दिला सकें और खुद भी कमा सके । लेकिन मामला केवल मीडिया का खरीद बिक्री का केन्द्र बन जाने तक ही सीमित नहीं है। कुछ और गंभीर स्थितियां बनी है। मीडिया काले धन का खुला केन्द्र बन रहा है। पहले मीडिया में काले धन के इस्तेमाल की बातें सुनी जाती थी। मालिक यहां काला धन लगाकर अपने धन को सफेद करता है। लेकिन अब तो वह खुलेआम काला धन ले रहा है और अपने लिए काला धन बना रहा है। कई जगहों से जानकारी मिली है कि उम्मीदवारों से विज्ञापन के नाम पर अपनी मर्जी की खबर छपवाने के लिए मीडिया ने जो राशि ली उस रकम की रसीद उन्हें नहीं दी। बल्कि बेहद कम राशि की रसीद दी ताकि वे चुनाव आयोग के समक्ष पेश होने वाले अपने चुनाव खर्च में उसे दिखा सकें। आयोग ने उम्मीदवारों के लिए पच्चीस लाख रुपये चुनाव खर्च की सीमा तय कर रखी है। आयोग को इस खर्च की पड़ताल के लिए नत्थी किए गए बिलों की जांच की जरूरत महसूस होती होगी। शायद वास्तविक दरों को जानने की कोशिश नहीं की जाती है। कम से आयोग और परिषद उम्मीदवारों द्वारा विज्ञापन के मद में खर्च की रसीद के आधार पर ये तो जानने की कोशिश कर सकती है कि मीडिया संस्थान पूर्व में उतने ही विज्ञापन के लिए कितनी राशि प्राप्त करते रहे हैं? मैं आपको बताना चाहता हूं कि मीडिया को जितना भुगतान विज्ञापन के नाम पर खबरों को छपवाने के लिए उम्मीदवारों द्वारा किया गया उससे बेहद कम की रसीद उन्होने प्राप्त कर ली। मीडिया संस्थान ने अपने कर्मचारियों और स्थानीय स्तर के राजनीतिक नेताओं के सामने ये जाहिर कर दिया है कि उसमें काले धन को छिपाने के कितने हुनर हैं। यहां मैं मीडिया में काम करने वाले कर्मचारियों के मनोबल पर पड़ने वाले असर की चर्चा नहीं कर रहा हूं। पैसे की कमाई के मकसद से बाजार में निकलने पर नैतिकता को ताक पर रखना पड़ता है। लेकिन मैं एक बात बहुत साफतौर पर ये कहना चाहता हूं कि इसका मीडिया पर दूरगामी और गंभीर असर होगा। कमजोर नैतिक बल का मीडिया लोकतंत्र की सुरक्षा नहीं कर सकता है। लेकिन मजेदार बात तो ये कि बहुत सारे मीडिया संस्थानों ने एक तरफ तो चुनावी रिपोर्टिंग को विदा कर दिया और उम्मीदवारों के विज्ञापन के चक्कर में चुनाव की सही तस्वीर पेश करने से खुद को अलग रखा है वहीं दूसरी तरफ उनमें से कइयों के द्वारा चुनाव सुधार के अभियान चलाए गए। ये कैसे दोहरे चेहरे है? कैसे अपराधियों का राजनीति में विरोध करने वाले खुद को लोकतंत्र को मज़बूत करने का अभियान चलाने के लिए नैतिक तौर पर सक्षम कह सकते हैं?

मैं आपसे ये अपेक्षा करता हूं कि चुनाव आयोग को इस दिशा में पहल लेकर एक अध्‍ययन करना चाहिए कि मीडिया ने किस तरह से उम्मीदवारों के लिए प्रचार किया और विज्ञापन के नाम पर खबरों की जगहों को बेचा। प्रेस परिषद की भी इस दिशा में एक निश्चित भूमिका है और उसका तो प्रमुख रूप से ये दायित्व बनता है कि वह एक खुली अदालत लगाकर इस संबंध में तमाम लोगों से उनके अनुभवों और शिकायतों को सुनें। हमारे संसदीय लोकतंत्र की संस्थानों में एक प्रवृति यह पायी जाती है कि जब कोई रोग फैल जाता है तब उसके उपचार की व्यवस्था में वे लगने की कोशिश करती है। वे लक्षण के आधार पर रोकथाम की कोशिश नहीं करती है। यह पहला चुनाव नहीं है जब मीडिया का खबरों की शक्ल में विज्ञापन छापने का धंधा शुरू हुआ है। कई राज्यों के चुनाव इन्हीं स्थितियों में हुए हैं।लक्षण को एक प्रवृति के रूप में तो कतई देखने की कोशिश नहीं की जाती है। नतीजा ये होता है कि एक आचार संहिता बनती है और पहले के मुकाबले दूसरे रूप में आचार संहिता के उल्लंधन की व्यवस्था कर ली जाती है।

आशा है आप इस संबंध में कोई दूरगामी व्यवस्था करने की कोशिश करेंगे ताकि इस लोकतंत्र को बचाने में
मददगार साबित हो।

आपका
मीडिया स्टडीज ग्रुप की ओर से
अनिल चमड़‍िया

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