मीडिया में इतिहास और अनुपात बोध का एनीमिया

आनंद प्रधान


क्या समाचार मीडिया को इतिहास और अनुपात बोध का एनीमिया (रक्ताल्पता) हो गया है? क्या वह, विवेक और तर्क के बजाय भावनाओं से अधिक काम लेने लगा है? खासकर टी वी समाचार चैनलों में इतिहास और अनुपात बोध की अनुपस्थिति कुछ ज्यादा ही संक्रामक रोग की तरह फैलती जा रही है। समाचार चैनल इस कदर क्षणजीवी होते जा रहे हैं कि लगता ही नहीं है कि उस क्षण से पीछे और आगे भी कुछ था और है। समाचार चैनलों की स्मृति दोष की यह बीमारी अखबारों को भी लग चुकी है।
आम चुनाव 2009 और उसके नतीजों को ही लीजिए। पहली बात यह है कि बिना किसी अपवाद अधिकांश समाचार चैनलों और अखबारों के चुनाव पूर्व सर्वेक्षण, एक्जिट पोल, चुनावी भविष्यवाणियां और पूर्वानुमान एक बार फिर मतदाता के मन को भांपने मे नाकामयाब रहें। लेकिन इसके लिए खेद जाहिर करने और नतीजों की तार्किक व्याख्या करने के बजाय चुनाव नतीजों को एक चमत्कार की तरह पेश किया गया। ऐसा लगा जैसे कांग्रेस को अकेले दम पर बहुमत मिल गया हो और भाजपा से लेकर वामपंथी पार्टियों और क्षेत्रीय दलों का पूरी तरह से सफाया हो गया हो।
सच है कि सफलता से ज्यादा सफल कुछ नही होता है और सफलता के अनेकों साथी होते है। चैनलों और अखबारों के पत्रकारों और विश्लेषकों पर ये दोनों बातें सबसे अधिक लागू होती है। चुनाव नतीजों का बारीकी से विश्लेषण करने के बजाय कांग्रेस की जीत और भाजपा और तीसरे मोर्चे के हार के लिए ज्यादातर अति-सरलीकृत कारण गिनाये गए जिनमें सामान्य इतिहास और अनुपात बोध का स्पष्ट अभाव था। इस इतिहास बोध के अभाव के कारण चुनावी नतीजों का विश्लेषण और जनादेश की व्याख्या इतनी भावुक, आत्मगत, पक्षपातपूर्ण, पूर्वाग्रहग्रस्त और एकतरफा थी कि जिसे इतिहास का ज्ञान नही होगा, उसे लगेगा जैसे कोई क्रांति हो गयी हो।
जाहिर है कि समाचार मीडिया कांग्रेस की जीत के उन्माद और आनंदोत्सव में ऐसे डूबा हुआ है कि किसी विश्लेषक को कांग्रेस की चुनाव रणनीति और अभियान मे कोई कमी नही दिख रही है। उसके मुताबिक, कांग्रेस इस जीत के साथ एक ऐसी पार्टी बन चुुकी है जिसमें कोई कमी नही है। यही नहीं, कांग्रेस अचानक ऐसा पारस पत्थर बन गयी जिसे छूकर ममता बैनर्जी से लेकर करूणानिधि तक मामूली पत्थर से सोना बन गए हैं। राहुल राग का तो खैर कहना ही क्या?
दूसरी ओर, समाचार मीडिया को एनडीए खासकर भाजपा और तीसरे मोर्चे मे माकपा की चुनावी रणनीति और अभियान में ऐसा कुछ नही दिखा जो सही था। यह साबित करने की कोशिश की गयी कि अब क्षेत्रीय दलों का जमाना गया, वामपंथी दल इतिहास बन जाएंगे और तीसरे-चैथे मोर्चे के सत्तालोलुप नेताओ को कूडेदान मे फेक दिया है। इसके अलावा भी बहुत कुछ और कहा गया जो विश्लेषण कम और भावोद्वेग अधिक था।
यहां इतिहास को याद करना बहुत जरूरी है। कांग्रेस पार्टी और उसकी सरकारों का एक इतिहास रहा है और एक वर्तमान भी है। बहुत दूर न भी जाएं तो 1984 में मिस्टर क्लीन राजीव गांधी आज से कही ज्यादा भारी बहुमत और उससे भी अधिक उम्मीदों के साथ सत्ता में पहुंचे थे। उसके बाद क्या हुआ,वह बहुत पुराना इतिहास नही है। यही नही, कांग्रेस को इसबार लालू-मुलायम-मायावती और जयललिता जैसों की बैसाखी से भले मुक्ति मिल गयी हो लेकिन खुद कांग्रेसी इनसे कम नहीं हैं।
कांग्रेस खुद एक गठबंधन है जिसमे सत्ता के त्यागी, संत और सेवक कम और सत्ता के आराधक ज्यादा हैं। कांग्रेस मे सत्ता की मलाई में अपने-अपने हिस्से के लिए खींचतान कोई नई बात नही है। इसे देश ने पहले भी देखा है और आगे भी देखेगा। अगर रातों-रात ममता बैनर्जी और करूणानिधि बदल न गये हों तो देश उनके नखरे, रूठने और मनाने के नाटक आगे भी देखेगा।
याद रखिए, कांग्रेस का एक चरित्र है, एक संस्कृति है और एक इतिहास भी है। इसी तरह, सत्ता का भी अपना एक चरित्र, इतिहास और संस्कृति है। आमतौर पर इसमें रातो-रात बदलाव नही आता। लेकिन मीडिया इसे जानबूझकर अनदेखा कर रहा है। इसके कारण धीरे-धीरे यह स्मृति दोष की बीमारी बनती जा रही है। इस बीमारी ने उसे न सिर्फ दूर तक देख पाने में अक्षम बना दिया है बल्कि उसे निकट दृष्टि दोष की समस्या का भी सामना करना पड़ रहा है।

1 comment:

नवीन कुमार 'रणवीर' said...

लोकसभा चुनाव,मीडिया-विश्लेषण और जानकारों की राय इन सब में बिल्कुल उतनी ही समानता है जितनी लालू-मुलायम-पासवान और यूपीए की दोस्ती में है। आंकड़ो के बाद पैतरा बदलना और चुनाव से पहले रोज शानदार पैकेजिंग के भाषण देना और बाद में सोनिया-राहुल के कसीदे पढ़ना।
"राहुल का जादू चल गया" लेकिन ये नहीं बताते की हमारे चैनल पर जो हमनें ज्योतिषि बिठाया था उसका जादू कितना चला? क्या कहा था किस नेता की कुंडली ने...पहले राजनीति में रंग बदलनें वालों का पर्दाफाश करना पत्रकारों का काम था. पर अब पत्रकार भी समय के साथ रंग बदलना सीख गया है, उसे पता है कि खबर को कैसे बेचा जाता है क्या दिखावें जो बिकेगा, बस। रनडाउन में जगह नहीं होती इतनें विश्लेषण करनें की...।