संतोष सिंह
पन्द्रहवी लोकसभा के चुनाव परिणाम आने के साथ ही मायावती के सोशल इंजीनियरिंग के दावे की पोल खुल गई कि जिस सर्वजन के सहारे वे दिल्ली की तैयारी कर रहीं थी महज उसने दो साल में उनका साथ छोड़ दिया। तो वहीं बहुजन का उनके कथित दलित आंदोलन जो मूर्तियों की स्थापना से लेकर दलित की बेटी को प्रधानमंत्री बनाने तक सीमित रह गया था, से उसका मोहभंग होने की शुरुआत इस चुनाव ने कर दी। जिसका खामियाजा सष्टांग दंडंवत होने वाले यूपी के नौकरशाहों को चुकाना पड़ रहा है। तो वहीं जिन बाहुबलियों को वे गरीबों का मसीहा बता रहंी थी उनको भी इस चुनावी दंगल में जनता ने नकार दिया। हालांकि आज उनकी ही हाथी की सवारी कर सबसे ज्यादा बाहुबली अबकी बार भी यूपी से संसद में पहुंचे। गौरतलब है कि मई 2007 विधान सभा चुनाव के बाद बसपा केंद्रिय सत्ता के मजबूत दावेदार के बतौर उभरी। लेकिन दो वर्षों के कार्यकाल में ही उनकी सत्ता की खामियां उजागर हो गई और चुनावी वादों की पोल खुल गयी। जिन गंुडों की छाती पर चढ़ने की बात वह कल तक कर रही थीं उन्हीं गंुडो को अपने हाथी का ऐसा महावत बना दिया कि उसकी पूछ थामे जनाधार ने उसे छोड़ दिया। पूर्वांचल में चुनाव जीतने व सपा को कमजोर करने के लिए मायावती ने अंसारी बंधुओं को चुनाव लड़ाकर मुस्लिम कार्ड खेलने का प्रयास किया। गणित तो ये थी कि सपा से मुस्लिमों को दूर कर दलित-मुस्लिम-ब्राहमण त्रिकोण बनाया जाय। पर पासा चैपट हो गया। जिसका फायदा भाजपा को पहुंचा, क्योंकि संघ ने इसको बडे़ पैमाने पर प्रचारित प्रसारित किया। और वोटों का सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण करवाया जिसका फायदा लोकसभा चुनाव में उसे मिला। पूर्वांचल के अंदर उभरे नये जातीय समीकरण ने जहां सपा की सिट्टी-पिट्टी बंद कर दी वहीं बसपा के खोखले दावों की हवा निकाल दी क्योंकि मायावती अपने वोटरों से पहले मतदान उसके बाद शादी विवाह के शिगूफे उनके बीच छोड़ती थी यानी दलित समाज के लोग वोट की कीमत पहचाने और बसपा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चले। लेकिन दलित समाज ने मायावती के इस नारे को शायद इस बार ठीक से समझा। जिनकी नाराजगी का पता उत्तर प्रदेश की सुरक्षित सीटों से हो जाता है जहां 17 लोकसभा सीटों में से दस पर सपा, दो-दो पर भाजपा- कांग्रेस और एक सीट पर रालोद का कब्जा हुआ यानी मायावती के खाते में सिर्फ दो सीटें गयी। दलित समाज जो बसपा का परंपरागत वोटर है उसने नए समीकरण में अपने को छला हुआ महसूस किया और धारा के विपरीत चलने की शुरुवात की।
द्वितीय चरण के चुनाव के दौरान जौनपुर लोकसभा क्षेत्र में इंडियन जस्टिस पार्टी के प्रत्याशी बहादुर सोनकर की हत्या हो गयी। जिसका आरोप बसपा के बाहुबली प्रत्याशी धनंजय सिंह पर लगा। लेकिन सत्ता की हनक के कारण हत्या को आत्म हत्या में तब्दील करवा दिया गया। भले ही धनंजय ने सत्ता की हनक और गुंडई के बल पर जौनपुर सीट जीत ली। लेकिन इस हत्या से उभरे आक्रोश के कारण दलितों के एक बड़े वर्ग ने हाथी की सवारी छोड़ दी जिसका असर जौनपुर की आस-पास की सीटों जैसे मछलीशहर, इलाहाबाद, प्रतापगढ़, फतेहपुर, कौशाम्बी समेत दर्जनो सीटों पर पड़ा। इलाहाबाद सीट के करछना विधान सभा के भुंडा गांव में मतदान के दिन खटिकों को बसपा के पक्ष में मतदान करने के लिए दबाव डालने पर, प्रतिक्रिया स्वरुप खटिकों ने ब्राहमण भाईचारा समिति के अध्यक्ष अक्षयवर नाथ पाण्डे को पीट-पीट कर सूअर बाड़े में बंद कर दिया और नंगा कर भगा दिया। बहरहाल 90 के बाद जो अस्मितावादी राजनीति प्रमुखता से उभर कर सामने आई वह ब्राहमण-क्षत्रियों के समानांतर खड़े होेने की थी। विभिन्न जातियों के नेताओं ने अपनी-अपनी जातियों का प्रतिनिधित्व किया। मायावती की इस अस्मितावादी राजनीति में दलितों के भीतर एक खास जाति को प्रतिनिधित्व मिला। लेकिन दलितों के अंदर पासी, खटिक, कोल, धोबी आदि जातियों को कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला। जिसका असर बीते लोकसभा चुनाव में साफ दिखा कि सुरक्षित सीटों को भी बसपा नहीं जीत पायी।मायावती ने विधान सभा चुनाव में सर्वजन का शिगूफा छोड़ा था। इस चुनाव से उत्साहित मायावती लोकसभा चुनावों की तैयारियों में जुट गयीं और बड़े पैमाने पर ब्राहमण-मुस्लिम भाई-चारा कमेटियों का गठन किया। जो सत्ता से उपेक्षित जातियों को नागवार लगा। वहीं बसपा मंे जिन दलित जातियों को प्रतिनिधित्व नहीं मिला वे प्रतिक्रिया स्वरुप कांग्रेसी खेमें में चली गयी। जिसका बसपा को लोकसभा चुनाव मंे खामियाजा भुगतना पड़ा।बहरहाल चुनावी पंडितों के सभी आकलन पर विराम लगाते हुए बसपा-सपा कांग्रेसी खेमें में शामिल हो गयीं। वजह साफ है दोनों को सीबीआई से अपने आप को बचाना है लेकिन दोनों पार्टियों के साथ जो तबका खड़ा है क्या वह इन पार्टियों के साथ खड़ा रहेगा अथवा और कहीं चला जाएगा यह यक्ष प्रश्न अभी बना हुआ है।
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