‘आस्था’ की राजनीति

विजय प्रताप

बचपन में हम लोग किसी को विश्वास दिलाने के लिए झठ से भगवान की कसमें खा लिए करते थे। तब एक डर था कि भगवान की झूठी कसम खाने से जरूर कुछ अनिष्ठ होगा। समय के साथ यह धारणा बदलती गई। विज्ञान ने तर्क दिए और फिर भगवान की कसमों से डर खत्म हो गया। लेकिन अभी भी लोग समय-समय पर भगवान का सहारा अपनी विश्वसनीयता साबित करने के लिए लेते रहते हैं।
जमीन के मामले में भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस. येदुरप्पा ने अपनी विश्वसनीयता सिद्ध करने के लिए भगवान की शरण में पहुंच गए हैं। उन्होंने अपने पर आरोप लगाने वाले विपक्षी पार्टी जनता दल सेक्युलर के नेता कुमारास्वामी को खुली चुनौती दे डाली की ‘उनकी ईश्वर में थोड़ी सी भी आस्था है तो वह जमीन के मामले में भ्रष्टाचार के आरोपों को वह मंदिर में दुहरा दें।’ सीधा साधा कोई ईश्वर में विश्वास करने वाला व्यक्ति होता तो ऐसी खुली चुनौती से एकबरगी सही होते हुए भी डर जाता। लेकिन कुमारास्वामी भी ठहरे राजनीतिज्ञ, उन्होंने येदुरप्पा की चुनौती स्वीकार कर ली है। जनता द्वारा चुने गए ये प्रतिनिधि अब भगवान के दरबार में अपने को पाक साफ साबित करने की कोशिश करेंगे। हांलाकि इसमें कोई भ्रम नहीं की मंदिर में आरोप को दोहराने या न दोहराने से येदुरप्पा पाक साफ साबित नहीं होने जा रहे। लेकिन एक ‘आस्थावान’ नेता के रूप में अपनी छवि को जरूर मजबूत करेंगे।
अब सवाल ये है कि चुने प्रतिनिधियों या आमजन के नाम पर राजनीति करने वाले विभिन्न पार्टियों के नेताओं का इस तरह का व्यवहार कहां तक उचित है? संवैधानिक रूप से भारत एक धर्मनिरपेक्ष, पंथनिरपेक्ष, समाजवादी राज्य है। इसका सीधा मतलब है कि राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा बल्कि यह लोगों की निजी मामला होगा। राज्य या राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्ति का सार्वजनिक जीवन में धर्म और आस्था से कोई मतलब नहीं होगा। बी.एस. येदुरप्पा एक राज्य के मुख्यमंत्री हैं और उनकी इस तरह की गतिविधि का सीधा मतलब है कि वो राज्य के अन्य समुदाय के लोगों के विश्वास को ठेस पहुंचा रहे हैं। उनकी यह गतिविधी न केवल पक्षपातपूर्ण बल्कि गैरसंवैधानिक भी है। उन पर लगे आरोप कोई अमूर्त नहीं है, बल्कि उसका ठोस आधार है। इसका फैसला करने के लिए संविधान में न्यायपालिका का प्रावधान है, लेकिन मुख्यमंत्री जैसे जिम्मेदार पद पर रहते हुए भी संविधान का माखौल उड़ाते हुए वह ईश्वर के दरबार में अपने को पाक साबित करना चाहते हैं।
कहा जाता है ‘जैसा राजा, वैसी प्रजा’। एक मुख्यमंत्री के बतौर वह राज्य के लोगों के लिए मार्गदर्शक की तरह हैं। उनके दिखाए रास्तों पर ही राज्यमशीनरी काम करती है। मुख्यमंत्री के बतौर उनके इस प्रयोग का नतीजा कर्नाटक में पिछले कुछ वर्षों में साफ देखा-सुना जा सकता है। उनके आने के बाद से कर्नाटक में साम्प्रदायिक दंगों में इजाफा हुआ है। साम्प्रदायिक शक्तियों से यहां के ईसाइ और मुस्लिम समुदाय आतंकित है। श्रीराम सेना जैसे संगठन सांस्कृतिक पुलिसिंग के तहत युवाओं को क्या करें, क्या नहीं करें के संबंध में निर्देश दे रहे हैं।
धर्म और राजनीति के बीच घालमेल राज्य को फासीवादी की तरफ ले जाता है। ऐसा नहीं है कि यह फासीवादी रुझान केवल कर्नाटक में देखने को मिल रहा है, बल्कि भाजपा शासित अन्य राज्य भी ऐसे ही साम्प्रदायिक माहौल में फलफूल रहे हैं। गुजरात, मध्य प्रदेश, उतराखंड और छत्तीसगढ़ में धर्म और राज्य की भूमिका एक दूसरे में समाहित हो गई है। विकास की आड़ में गुजरात में राज्य की साम्प्रदायिकता को वैधता दिलाने की लगातार कोशिश हो रही है। मध्यप्रदेश में यह प्रयोग निचले स्तर से जारी है। स्कूलों और संघ की शाखााओं में होने वाली गतिविधियों के बीच का अंतर समाप्त हो रहा है। वहां ‘भगवा बिग्रेड’ जैसी संस्थाएं खुलेआम ‘हिंदू योद्धाओं’ की भर्ती कर रही हैं, जिनका स्वाभाविक प्रयोग दूसरे धर्म और सम्प्रदाय के लोगों के खिलाफ किया जाता रहा है। म. प्र. में छोटे-छोटे साम्प्रदायिक दंगों व तनावों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। उत्तराखंड में हिंदू धर्म से जुड़े ज्यादातर कार्यक्रमों में न केवल मुख्यमंत्री-मंत्री मौजूद रहते हैं बल्कि एक कार्यक्रम में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितीन गडकरी को मुख्यअतिथि के बतौर बुलाया गया और इसके लिए सभी बड़े अखबारों में पूरे पेज का विज्ञापन जारी किया गया। सवाल है कि गडकरी किस संवैधानिक पद पर हैं, जिन्हें किसी सरकारी कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बनाया गया और सरकारी मद से विज्ञापन दिया गया?
धर्म और राजनीति के बीच घालमेल का एकाधिकार भाजपा या उसके नेताओं तक सीमित नहीं है। कांग्रेस और दूसरी अन्य पार्टियां भी कमोबेश उसी रास्ते पर हैं। अभी हाल में पुट्टपर्थी में सत्य साईं बाबा के निधन पर कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी सहित सभी राजनैतिक दलों के नेताओं का वहां तांता लगा रहा। इन सबके बीच ये सवाल गुम हो गया कि बाबा के पास करोड़ों रुपए का सोना, चांदी, हीरे-जवाहरात कहां से आए? उनको गुमनाम दान करने वाले कौन लोग होते हैं? मामला चूंकि एक बाबा का था और वहां भी ‘आस्था’ हावी थी, इसलिए भ्रष्टाचार पर सवाल उठाने वाली सिविल सोसाइटी और दूसरे बाबा भी इस पर मौन साधे रहे।
धर्म और आस्था, चूंकि एक बड़े जनसमुदाय के निहायत निजी मामलों में से एक है, इसलिए सभी राजनैतिक दल कहीं न कहीं अपने आपको सबसे बड़ा धार्मिक या आस्थावान साबित करने में लगे रहते हैं। ताकि लोगों का जनमत हासिल किया जा सके। वर्तमान में ‘आस्था’ ऐसा आवरण हो गई है, जिसकी आड़ में सबकुछ माफ है।

स्ंाप्रति: स्वतंत्र पत्रकार
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