कानूनी जामा किसलिए ?


विजय प्रताप

भारत में जब कोई समस्या राजनैतिक हो और विकराल रूप धारण कर चुकी हो तो सत्ता तुरंत उसका कानूनी हल ढूंढना शुरू कर देती है। राजनैतिक समस्याओं को कानूनी जाल में उलझा देना सत्ता की पुरानी चाल रही है। इससे समस्या हल होते दिखती भी है और अपना वजूद भी कायम रखती है। वर्तमान में इसे भ्रष्टाचार के संबंध में समझा जा सकता है। भ्रष्टाचार एक राजनैतिक-सामाजिक समस्या है। इसके बने रहने में राजनीतिक दलों और दबाव समूहों का फायदा है। अब चूंकि एक के बाद एक घोटालों के खुलासों ने भ्रष्टाचार की बहस को केन्द्र में ला दिया है, सत्ता फिर से इसका कानूनी हल ढूंढने का शिगूफा छोड़ रही है।
वर्तमान में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कई तरह के बिल संसद में पेश होने के लिए लंबित हैं। इसमें लोकपाल विधेयक, ब्हिसील ब्लोअर बिल और भ्रष्टाचार निरोधक कानून मुख्य हैं। जैसे-जैसे भ्रष्टाचार पर बहस तेज हो रही है सत्ता विभिन्न गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से बहसों को इन प्रस्तावित कानूनों के इर्द-गिर्द बहसों को सिमटा देना चाहती है। कानून बनाना और उन्हें लागू करना कत्तई गलत नहीं। लेकिन कानूनों का मकसद समस्याओं का समाधान करने के लिए उसे आम जनता और न्यायपालिका के बीच छोड़ देना कतई नहीं हो सकता। मौजूदा दौर में जितने भी तरह के नए कानून बन रहे हैं या पुराने कानूनों में संशोधन किया जा रहा है, उसका मकसद सरकार की भूमिका को सीमित करते हुए लोगों को न्यायपालिका के भरोसे छोड़ देना है। अगर किसी को कोई परेशानी है तो उसके लिए कानून बना है। वह न्यायपालिका के माध्यम से उस समस्या का समाधान तलाशता रहे। सत्ता की भूमिका कानून निर्माण तक सिमटा चुकी है।
भ्रष्टाचार की समस्या को हल करने के लिए कुछ संगठन सत्ता के इशारों पर संसद में लंबित लोकपाल विधेयक, भ्रष्टाचार निरोधक कानून और व्हिसील ब्लोअर बिल को पास करने की मांग तेज कर दिये हैं। ऐसे में नए विधेयकों और कानूनों को समझने की कोशिश जरूरी है। लोकतंत्र की अन्य संकल्पनाओं की तरह लोकपाल या अंग्रेजी के ‘ऑम्बुड्समैन’ की अवधारणा पश्चिमी देशों की देन है। किसी राज्य में लोकपाल की जिम्मेदारी सरकार से अलग स्वतंत्र रूप से उसके कामकाज पर निगरानी रखने और गलत कार्यों का जांच कर अपनी रिपोर्ट देने की रही है। एक तरह से देखें तो लोकपाल बहुत ही सशक्त और जिम्मेदार पद दिखता है। जिसका पास भ्रष्टाचार की किसी भी तरह की शिकायतों या सूचनाओं पर स्वतंत्र जांच का अधिकार होता है। हालांकि लोकपाल की रिपोर्टों पर कार्रवाई करना या न करना राज्य पर निर्भर करता है। भारत में भी कई प्रदेशों ने लोकपाल नियुक्त कर रखे हैं। हालांकि कर्नाटक के लोकपाल जस्टिस संतोष हेगड़े को छोड़कर ज्यादातर लोकपालों के बारे में लोगों कोे कोई जानकारी नहीं होती। पिछले दिनों कर्नाटक के लोकपाल संतोष हेगड़े प्रदेश के खनन माफिया और सरकार में सशक्त मंत्री जर्नादन रेड्डी और उनके भाइयों के खिलाफ वैध खनन से संबंधित अपनी रिपोर्ट से चर्चा में आए। उन्होंने खनन के मामलों में अपनी जांच रिपोर्ट में कर्नाटक की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री वी एस येदुरप्पा सहित कई नेताओं को कटघरे में खड़ा कर दिया है। सरकार से टकराव के चलते एक बार उन्हें अपने पद से इस्तीफे की पेशकश भी करनी पड़ी। भारत में सक्रिय लोकपाल की यह प्रकाष्ठा है।
जो लोग यह सोचते हैं कि लोकपाल एक स्वतंत्र पद है और वह सरकारी भ्रष्टाचार पर लगाम कस सकता है, वह सत्ता की चक्करदार राजनीति के शिकार हैं। लोकतंत्र में कोई भी सरकारी पद राजनीति से अछूता नहीं हो सकता। अगर लोकपाल विधेयक पास भी हो गया तो राज्यों में लोकपाल उन्हें ही नियुक्त किया जाएगा जिसे विभिन्न राजनैतिक दल के सत्ता व विपक्ष में मौजूद प्रतिनिधि और उनके चहेते गैर सरकारी संगठनों के लोग चाहेंगे। मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में सत्ता में घूमफिर कर बने रहने वाले दलों में कोई बुनियादी अंतर मुश्किल है। ऐसे में इन दलों के प्रतिनिधि कतई नहीं चाहेंगे की कोई निष्पक्ष या तेजतर्रार व्यक्ति ऐसे पद पर पहुंचे, जिसे नियंत्रित करना उनके हाथ में न हो। अभी भी कई राज्यों में लोकपाल हैं, लेकिन उन्हें कोई नहीं जानता। यह ऐसे ही लोग होते हैं, जो सत्ता द्वारा पद की शोभा बढ़ाने के लिए नियुक्त किये जाते हैं। ऐसे में लोकपालों से भ्रष्टाचार पर लगाम कसने की उम्मीद बेमानी ही साबित होगी। इस समय लोकपाल विधेयक के लिए संघर्ष करने वाले संगठन और लोग या तो भोल हैं या फिर सत्ता के एहसानों का कर्ज चुकाने के लिए उसके इशारों पर जनमत तैयार कर रहे हैं।
इसी तरह मौजूदा समय में जब भ्रष्टाचार संगठित उद्योग बन चुका है, ‘व्हिसील ब्लोअर बिल’ के जरिये भ्रष्टाचार से संघर्ष करने वाले व्यक्तियों को सुरक्षा और बढ़ावा दे पाना संभव नहीं लगता। भ्रष्टाचार के संबंध में कुछ भी ऐसा नहीं होता जिसकी जानकारी सरकार या सरकारी अधिकारियों को नहीं होती। वह लगातार इसके जरिये फायदा उठाते रहते हैं। लेकिन ईमानदार लोगों व नौकरशाहों को लगता है कि शायद उनकी कोशिशों से किसी खास क्षेत्र में फैला भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। इसी चक्कर में उन्हें भ्रष्टाचार माफियों से टकराना भी पड़ता है और अपनी जान से हाथ भी धोना पड़ता है। महाराष्ट्र के अपर जिला कलक्टर यशवंत सोनवणे इसके ताजा उदाहरण हैं। उनसे पहले भी सत्येन्द्र दुबे, मंजुनाथ षडमुगम और सूचना अधिकार कार्यकर्ता सुशील शेट्टी व अमित जेठवा को इसी चक्कर में अपनी जान गंवानी पड़ी। सत्ता अपनी साफ छवि और खुद को भ्रष्टाचार विरोधी साबित करने के लिए अब ‘व्हिसील ब्लोअर बिल’ के माध्यम से ऐसे लोगों की सुरक्षा का शिगूफा छोड़ रही है। इससे वह जताना चाहती है कि भ्रष्टाचार से लड़ने वाले लोगों को लेकर वह कितनी चिंतित है। लेकिन यहां भी वही सवाल उठता है कि क्या इस बिल के पारित हो जाने के बाद वास्तव में भ्रष्टाचार में कोई गुणात्मक कमी आएगी या भ्रष्टाचारियों के खिलाफ संघर्ष कर रहे लोगों की हत्याएं रूक पाएंगी? ऐसी भ्रष्ट व्यवस्था के बीच यह उम्मीद करना कि भ्रष्टाचारी कानून से डरेंगे, संभव नहीं। भ्रष्टाचार रोकने के लिए भारतीय संविधान और भारतीय दंड संहिता में पहले से ही कई धाराएं मौजूद हैं। बावजूद इसके हत्याएं नहीं रुक रहीं तो नए कानूनों से यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि उसके लागू होते ही भ्रष्टाचारी डर जाएंगे।
इस तरह के विधेयकों पर बहस से पूर्व हमें ये सोचना होगा कि कानूनों के इस जाल में हमें कौन और क्यों उलझा रहा है? भ्रष्टाचार से संबंधित कानून जब भारत में पहले से ही मौजूद हैं और अभी तक उन्हीं के आधार पर भ्रष्टाचारियों को सजा होती आई है तो नए-नए कानूनों की जरुरत किसे है? सरकार से एक सवाल यह भी पूछा जाना चाहिए कि वह भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कानूनी समाधान ही क्यों तलाश रही है? जबकि इसका सबसे बड़ा स्रोत वे नीतिगत बदलाव हैं जो ट्रिकल डाउन थ्यिोरी पर आधारित है।
पिछले कुछ दशकों में नई आर्थिक नीतियों के चलते उपजी समस्याओं से सत्ता लगातार अपना पीछा छुड़ाने की कोशिश करती रही है। चूंकि यह उसी की नीतियों की उपज होती हैं और इन्हें हल करना उन नीतियों से द्वंद पैदा करता है, ऐसे में सत्ता का टालू रवैया ही उसके लिए हितकर रहा है। इस टालू रवैये के रूप में ही उसने नए कानूनों को अपना हथियार बना लिया है। मसलन अगर नई नीतियों के चलते बालश्रम बढ़ रहा है तो पुराने बालश्रम कानून को नया जामा पहना दिया गया। महिलाओं पर हिंसा एक सामाजिक समस्या है, लेकिन उसे हल करने के लिए कोई सामाजिक हल ढूंढने की बजाय, नए घरेलू महिला हिंसा अधिनियम के जाल में उलझा दिया गया। अब महिलाओं पर कोई हिंसा होती है तो वह खुद न्यायपालिका की शरण ले और सालों साल केस लड़ती रहे। यहां यह बहस का विषय हो सकता है कि बदलते माहौल में कानूनों में बदलाव जरूरी है। लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि उसका उद्देश्य क्या है? हमें यह समझना होगा कि राजनीतिक-सामाजिक समस्याओं को कानूनी तरीके से हल नहीं किया जा सकता। ऐसी समस्याओं का समाधान राज्य की मुट्ठी में होता है। इसमें कई समस्याओं को सामाजिक गैरबराबरी खत्म करके दूर किया जा सकता है। लेकिन यह सब भारतीय राजनीति के चुनावी दलों के एजेण्डे से बाहर की बहस है। ऐसी बहसों से दूर रहने के लिए ही सत्ता कानूनों का सहारा लेती है। जैसे की वह फिलहाल भ्रष्टाचार की बहसों से बचने के लिए फिर से ऐसी कोशिशों में जुटी दिख रही है।

संप्रति: स्वतंत्र पत्रकार
संपर्क: प्रथम तल, सी-2
पीपलवाला मोहल्ला, बादली एक्सटेंशन
दिल्ली-42

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