भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा होता छात्र-युवा



विजय प्रताप

आर्थिक रुप से तबाह हो चुके यूरोपीय देष ग्रीस में पिछले दिनों बड़ी संख्या में छात्र-युवाओं ने अपने भविश्य के आसन्न संकट के खिलाफ सड़कों पर प्रदर्षन किया। बुरी तरह से तबाह हो चुकी ग्रीस की अर्थव्यवस्था को बचाए रखने के लिए यूरोपीय यूनियन और संयुक्त राश्ट्र संघ ने बड़ी मदद दी। युवाओं की मांग है कि इसे फिजूल खर्च करने की बजाय उनके भविश्य के लिए खर्च किया जाए और उन्हें नौकरियां दी जाए। यह चिंता ग्रीस के युवाओं की अकेली नहीं है। बल्कि कई यूरोपिय देष ऐसे ही दौर से गुजर रहे हैं। कुछ इसी तरह का आंदोलन भारत में भी खड़ा हो रहा है। भारत के छात्र-युवा भी इसी बात को लेकर सषंकित हैं कि उनका भविश्य कैसा होगा? भ्रश्टाचार का बोलबाला और बेरोजगारी ने युवाओं को मजबूर किया है कि वह संगठित होकर इसका विरोध करें। वैसे ही जैसे ग्रीस, पुर्तगाल या मध्य एषियाई देषों में युवा कर रहे हैं।
भ्रश्टाचार और जनलोकपाल पर हो रही तमाम बहसों के बीच पिछले कुछ महीनों में ‘स्टूडेन्ट-यूथ अगेंस्ट करप्षन’ एक ऐसे मोर्चे के रुप में उभरा है, जो न केवल सरकारी महकमों में भ्रश्टाचार की बात करता है बल्कि कॉरपोरेट लूट के खिलाफ भी उतनी ही मजबूती से आवाज उठा रहा है। टाटा-अंबानी और अन्य बहुराश्ट्रीय कम्पनियों को दी जाने वाली हजारों करोड़ रुपये की छूट पर अधिकार जताने वाला यह युवा वर्ग भ्रश्टाचार को केवल जनलोकपाल के दायरे में सिमटते नहीं देखना चाहता। अन्ना हजारे एण्ड कम्पनी के ‘इंडिया अगेंस्ट करप्षन’ से इतर यह आंदोलन भी महज षहरी मध्यवर्ग के चंद लोगों का आंदोलन न बन जाए, इसके लिए इससे जुड़े संगठन देष के छोटे षहरों-कस्बों, स्कूल, कॉलेज और विष्वविद्यालयों में अभियान चल रहे हैं। इस अभियान के तहत ये 9 अगस्त को दिल्ली घेरेंगे। ‘भारत छोड़ो आंदोलन दिवस’ को ये युवा दिल्ली के जंतर-मंतर से ‘भ्रश्टाचारियों भारत छोड़ो’ की आवाज बुलंद करेंगे।
अब यह साफ हो चुका है कि पिछले दिनों भ्रश्टाचार को लेकर लड़ी गई लड़ाई महज चंद मध्यवर्गीय लोगों और मीडिया के सहयोग से लड़ी गई। चूंकि यह मुद्दा ऐसा है कि कोई भी संजिदा नागरिक खुद को इससे अलग नहीं करेगा, इसलिए ऐसा मान लिया गया कि पूरा देष इस आंदोलन के साथ खड़ा है। जबकि अन्ना के आंदोलन का विष्लेशण करें तो यह पाएंगे कि वह भ्रश्टाचार जैसे व्यापक मुद्दें को उसके मूल कारणों से काट कर महज जन लोकपाल बिल तक समेट देना चाहते हैं। अन्ना का आंदोलन उन नीतिगत भ्रश्टाचारों पर पूरी तरह से खामोष है जो किसी कपिल सिब्बल जैसे मंत्री को यह अधिकार देता है कि वो किसी रिलायंस जैसी निजी कम्पनी के टैक्स को 605 करोड़ से घटाकर 5 करोड़ कर दें। छात्र-युवा ये सवाल कर रहे हैं कि स्विस बैंकों में जमा 280 लाख करोड़ रुपये किसके हैं? अगर ये भारत की आम जनता की गाढ़ी कमाई के रुपये हैं, तो सरकार इसे जब्त क्यों नहीं करती?
जन लोकपाल जैसी बहसों का उन नीतिगत बदलावों से कोई लेना-देना नहीं है, जिसकी वजह से किसानों को मौत के मुंह में ढकेला जा रहा है। जन लोकपाल कभी इन सवालों को हल नहीं कर पाएगा कि आखिर इस देष का षिक्षित नौजवान क्यों खाली भटक रहा है? उनके भविश्य पर मंडराता खतरा चंद भ्रश्टाचारियों के जेल चले जाने से टल नहीं जाएगा। आज युवा एक करोड़ नौकरियां जैसे चुनावी वादों से आगे काम को मौलिक अधिकार बनाने की मांग कर रहा है। किसी भी लोकतांत्रिक राश्ट्र में नौकरियां खैरात नहीं हो सकती, जिसे देने का चुनावी वादा किया जाए। भारत ने जिन पष्चिमी देषों से लोकतंत्र जैसी उदार राजनैतिक व्यवस्था की नकल की है, उन देषों में काम को मौलिक अधिकार का दर्जा है। वहां षिक्षा के बाद नौजवानों का या तो काम मिलता है या एक सम्मानपूर्ण जीवन गुजारने भर का बेरोजगारी भत्ता। लेकिन हमारे इस लोकतांत्रिक देष और संवैधानिक तौर पर ‘कल्याणकारी राज्य’ में काम मांगने पर युवाओं पर लाठियां बरसाई जानी आम परिघटना है।
ऐसे देष में षिक्षा और बेरोजगारी जैसे न्यूनतम सवालों से जूझते छात्र-युवाओं का सरोकार भ्रश्टाचार के खिलाफ केवल इतना नहीं हो सकता कि वह जन लोकपाल की मांग करे और हाथों में तिरंगा लेकर सड़कों पर उतर आए। तिरंगा घुमाना और वंदे मात्रम के राश्ट्रवादी नारों से जीवन का सवाल हल नहीं होता। यह चंद षहरी आदर्षवादी युवाओं का नारा हो सकता है, स्कूली बच्चों का रोमांच हो सकता है, लेकिन जब दांव पर जीवन लगा हो तो ये नारा उनके लिए नहीं है। जो युवा दो दिनों तक साधारण रेल के डिब्बों में पिसता हुआ राजधानी पहंुचता है तो वह खोखले राश्ट्रवादी नारों से तुश्ट नहीं होगा। वह सहज रुप से ही ‘इंकलाब’ के नारे लगाएगा।
मुद्दा महज भ्रश्टाचार का नहीं है, बल्कि यह लड़ाई इससे कहीं आगे भ्रश्ट राजनैतिक व्यवस्था तक जाती है। यह स्वाभाविक ही है कि कोई गांधीवादी आंदोलन वहां तक लड़ने की बात नहीं करेगा। न ही उसके इस नारे पर षहरी मध्यवर्ग खड़ा होगा। मीडिया तो कतई नहीं। ऐसे में यह दारोमदार आधी युवा आबादी वाले इस देष के छात्र-नौजवानों पर ही आती है कि वो ग्रीस के युवाओं की तरह सड़कों पर उतरें और अपने सुनहरे भविश्य के लिए खुद लड़ाई लड़े।


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1 comment:

Omprakash pal said...

Anna ke limitation ko thik pahchana haii