जस्टिस हेगड़े की मजबूरी

विजय प्रताप

लोकपाल पर तमाम बहसों के बीच कर्नाटक के लोकपाल जस्टिस संतोष हेगड़े को अंततः कहना पड़ा कि कर्नाटक में खनन माफियाओं के खिलाफ उनकी रिपोर्ट पर सरकार से नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट से ही किसी कार्रवाई की उम्मीद है। जस्टिस हेगड़े का यह वक्तत्व लोकपालों की प्रकाष्ठा का प्रदर्शन है। भ्रष्टतंत्र के आगे उनकी हिम्मत बौनी साबित हो रही है।
दरअसल राज्य में अवैध खनन के मामले में जस्टिस हेगड़े द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट में मुख्यमंत्री वीएस येदुरप्पा सहित कई नेताओं को खनन माफियाओं को कटघरे में खड़ा किया गया है। हेगड़े का आरोप है कि उनके फोन भी टेप किए गए। इस रिपोर्ट के लीक होने के साथ ही कर्नाटक की राजनीति में उथलपुथल मची हुई है। भाजपा नेता उन पर दबाव डाल रहे हैं कि रिपोर्ट से मुख्यमंत्री का नाम अलग कर दिया जाए। खुद हेगड़े स्वीकार करते हैं कि भाजपा सांसद धनजंय कुमार उनके घर आकर येदुरप्पा का नाम हटाने को कह चुके हैं।
हजारों करोड़ रुपए के भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए यह राजनीतिक नाटक कोई नया नहीं है। पहले भी भ्रष्टाचार के मामलों में ऐसी उठापठक होती रही है और अधिक से अधिक उस मुख्यमंत्री की जगह कोई नया मुख्यमंत्री ले लेता है, लेकिन भ्रष्टाचार बदस्तूर जारी रहता है। इस मामले में कुछ गौर करने लायक है तो वह है लोकपाल की मजबूरी। निसंदेह कर्नाटक के लोकपाल जस्टिस हेगड़े अन्य राज्यों के लोकपालों की तरह अपने पद से चिपके रहने वाले जोंक नहीं है, बल्कि उन्होंने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई है। लेकिन अंतिम समय में उनकी यह मजबूरी की ‘हमें सरकार से कोई उम्मीद नहीं’, अंततः भ्रष्टाचार के आगे घुटने टेकती नजर आती है। उनका विधायिका से ज्यादा न्यायपालिका पर भरोसा करना भी कई सवाल खड़ा करती है। संसदीय प्रणाली में विधायिका को सर्वोच्च माना गया है। नए कानून बनाने या पुराने को जरुरत के मुताबिक फेरबदल करने का अधिकार विधायिका को मिला है। न्यायपालिका केवल उसकी संवैधानिकता तय करती है। यह दीगर बात है कि आज विधायिका से जस्टिस हेगड़े को कोई उम्मीद नहीं लेकिन इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि वो उसकी सर्वोच्चता को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट की शरण लें और जनतांत्रिक प्रणाली को चुनौती पेश करें।
अब अगर कोई लोकपाल ऐसा करता है तो उसकी मजबूरी को समझा जाना चाहिए। साथ ही एक ‘मजबूत लोकपाल’ पर हो रही तमाम बहसों को भी इसी आइनें में देखना चाहिए कि आखिर एक लोकपाल की प्रकाष्ठा क्या होगी? सरकार से हारकर सुप्रीम कोर्ट की शरण लेना? ेभारत में जब कोई समस्या राजनैतिक हो और विकराल रूप धारण कर चुकी हो तो सत्ता तुरंत उसका कानूनी हल ढूंढना शुरू कर देती है। राजनैतिक समस्याओं को कानूनी जाल में उलझा देना सत्ता की पुरानी चाल रही है। इससे समस्या हल होते दिखती भी है और अपना वजूद भी कायम रखती है। वर्तमान में इसे भ्रष्टाचार के संबंध में समझा जा सकता है। भ्रष्टाचार एक राजनैतिक-सामाजिक समस्या है। इसके बने रहने में राजनीतिक दलों और दबाव समूहों का फायदा है। अब चूंकि एक के बाद एक घोटालों के खुलासों ने भ्रष्टाचार की बहस को केन्द्र में ला दिया है, सत्ता फिर से इसका कानूनी हल ढूंढने का शिगूफा छोड़ रही है।
वर्तमान में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कई तरह के बिल संसद में पेश होने के लिए लंबित हैं। इसमें लोकपाल विधेयक, ब्हिसील ब्लोअर बिल और भ्रष्टाचार निरोधक कानून मुख्य हैं। जैसे-जैसे भ्रष्टाचार पर बहस तेज हो रही है सत्ता विभिन्न गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से बहसों को इन प्रस्तावित कानूनों के इर्द-गिर्द बहसों को सिमटा देना चाहती है। कानून बनाना और उन्हें लागू करना कत्तई गलत नहीं। लेकिन कानूनों का मकसद समस्याओं का समाधान करने के लिए उसे आम जनता और न्यायपालिका के बीच छोड़ देना कतई नहीं हो सकता। मौजूदा दौर में जितने भी तरह के नए कानून बन रहे हैं या पुराने कानूनों में संशोधन किया जा रहा है, उसका मकसद सरकार की भूमिका को सीमित करते हुए लोगों को न्यायपालिका के भरोसे छोड़ देना है। अगर किसी को कोई परेशानी है तो उसके लिए कानून बना है। वह न्यायपालिका के माध्यम से उस समस्या का समाधान तलाशता रहे। सत्ता की भूमिका कानून निर्माण तक सिमटा चुकी है। यहां तक कि जस्टिस हेगड़े भी यही कर रहे हैं।
जो लोग यह सोचते हैं कि लोकपाल बिल पास हो जाने से सरकारी भ्रष्टाचार पर लगाम कस सकता है, वह सत्ता की चक्करदार राजनीति के शिकार हैं। लोकतंत्र में कोई भी सरकारी पद राजनीति से अछूता नहीं हो सकता। अगर लोकपाल विधेयक पास भी हो गया तो राज्यों में लोकपाल उन्हें ही नियुक्त किया जाएगा जिसे विभिन्न राजनैतिक दल के सत्ता व विपक्ष में मौजूद प्रतिनिधि और उनके चहेते गैर सरकारी संगठनों के लोग चाहेंगे। मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में सत्ता में घूमफिर कर बने रहने वाले दलों में कोई बुनियादी अंतर मुश्किल है। ऐसे में इन दलों के प्रतिनिधि कतई नहीं चाहेंगे की कोई जस्टिस हेगड़े या तेजतर्रार व्यक्ति ऐसे पद पर पहुंचे, जिसे नियंत्रित करना उनके हाथ में न हो। अभी भी कई राज्यों में लोकपाल हैं, लेकिन उन्हें कोई नहीं जानता। भविष्य में भी लोकपाल जैसे पदों पर ऐसे ही जड़ाऊ लोग पसंद किये जाते रहेंगे।


संप्रति: स्वतंत्र पत्रकार
संपर्क: प्रथम तल, सी-2
पीपलवाला मोहल्ला, बादली एक्सटेंशने
दिल्ली-42
मोबाइल - 08826713707

No comments: