परमाणु हादसों से हम क्या सीखे?

विजय प्रताप
जापान में आई सुनामी के बाद फुकुशिमा परमाणु संयंत्र में विस्फोट दुनिया भर को एक सीख देनी वाली घटना था। ठीक वैसे ही जैसे कभी हीरोशिमा और नागाशाकी ने दुनिया को एक सबक दिया था। फुकुशिमा की घटना के बाद जन दबाव में कई देशों को अपने परमाणु कार्यक्रमों की समीक्षा करनी पड़ी और सबसे अच्छी बात यह कि कईयों ने इसे पूरी तरह से बंद करने का निर्णय लिया। इटली ऐसे ही देशों में से एक है। जर्मनी में न्यूक्लियर पॉवर संयंत्रों को बंद करने के लिए 2022 तक की समय-सीमा निर्धारित की गई। थाईलैंड, जापान में भी इसी तरह के निर्णय लिए जा रहे हैं। परमाणु उर्जा के सबसे बड़े पैरोकार देश अमेरिका को भी अपने परमाणु उर्जा संयंत्रों का काम रोक देना पड़ा। वहां सीबीएन न्यूज द्वारा अप्रैल में कराए गए एक सर्वे में 64 फीसदी लोगों ने परमाणु कार्यक्रमों पर पूरी तरह से रोक लगाने को अपनी सहमति दी।
दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक देशों के ऐसे निर्णयों से इतर, भारत में सरकारें परमाणु उर्जा के नाम पर परमाणु कार्यक्रमों की वैधता दिलाने की कोशिश कर रही है। जब सारी दुनिया में ऐसे कार्यक्रमों को बंद करने पर बहस चल रही है, भारत, जैतापुर में दुनिया का सबसे बड़ा न्यूक्लियर पॉवर प्लांट लगाने के लिए जमीनें अधिग्रहित कर रहा है। जब जर्मनी 2022 तक इसे बंद करने की सोच रहा है, भारत सरकार 2032 तक अपने जरुरत की 25 फीसदी ( 63 हजार मेगावाट) उर्जा न्यूक्लियर से पाना चाहती है। वर्तमान में यह उत्पादन महज 4120 मेगावाट है जो कुल उर्जा खपत का एक प्रतिशत भी नहीं है। ऐसे में सवाल उठता कि क्या हम इतिहास से कोई सबक लेते हैं या नहीं? या फिर इतिहास को त्रासदी के रुप में दुहराते रहने के लिए बकायदा आमंत्रित करते हैं? भारत के लिए हीरोशिमा, नागाशाकी या फुकुशिमा जैसी दूर की घटनाओं से सबक लेने की जरुरत नहीं, यहां का भोपाल की गैस त्रासदी खुद ही ऐसी घटना है, जिससे दुनिया ने सबक लिया। लेकिन हमने क्या सीखा? 25 साल बाद हम फिर ऐसी ही घटनाओं को आमंत्रित करने की दिशा में बढ़ रहे हैं।
जैतापुर में जिस जगह पर न्यूक्लियर पॉवर प्लांट लगाने की बात चल रही है, वह भूकम्प प्रभावित क्षेत्र में आता है। दक्षिणी महाराष्ट्र के इस तटीय क्षेत्र में पिछले दो दशकों में 22 बड़े भूकंप के झटके आ चुके हैं। इसमें से कइयों की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 6 से भी ज्यादा रही है। समुद्र तटीय क्षेत्र होने के कारण सुमानी जैसी अन्य प्राकृतिक आपदाओं से भी इनकार नहीं किया जा सकता। 931 हैक्टेयर में बनाए जा रहे इस संयंत्र पर भारत सहित दुनिया भर के वैज्ञानिकों और संस्थाओं ने सवाल उठाए हैं। भारत के परमाणु उर्जा नियामक बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष ए. गोपालकृष्णन खुद इसके विरोधियों में शामिल हैं। आबादी क्षेत्र में स्थापित किए जा रहे इस संयंत्र से करीब 10 हजार लोगों को विस्थापित होना पड़ेगा। वो मछुआरे जिनकी आजीविका समुद्र पर निर्भर थी, अपने घर छोड़ देने को मजबूर होंगे। धान के खेत और आम के बगान देखते ही देखते परमाणु उर्जा के नाम पर कुर्बान कर दिए जाएंगे।
सरकारें सारी आपत्तियों को दरकिनार कर ऐसे निर्णय ले रही हैं तो इसके पीछे की राजनीति को समझना जरूरी है। भारत के ऐसे परमाणु कार्यक्रमों को अमेरिका का शह मिल रहा है। अमेरिकी विदेश सचिव कोंडलिजा राईस पिछले दिनों अपने भारत दौरे पर यहां के परमाणु कार्यक्रमों में अमेरिका की दिलचस्पी को जाहिर कर चुकी हैं। साफ-सुथरी और कार्बनरहित उर्जा के नाम पर दरअसल यह कूटनीतिक खेल खेला जा रहा है। अमेरिका भारत को परमाणु उर्जा के नाम पर छूट इसलिए दे रहा है, ताकि वह मध्य एशिया में उसके दुश्मन नम्बर एक ईरान के साथ प्राकृतिक गैस के लिए किए गए करार को रद्द कर दे। कई मायनों में प्रस्तावित गैस पाइपलाइन परियोजना ऐतिहासिक है, और मध्य तथा पूर्व एशिया को कूटनीतिक तौर पर करीब लाने वाली है। कोंडलिजा राइस चाहती हैं कि भारत उर्जा के मामले में आत्मनिर्भर बने और विदेशों (ईरान) पर निर्भर ना रहे। इसके निहितार्थ समझे जा सकते हैं। राइस के अनुसार ही पिछले दिनों हुई भारत-अमेरिका परमाणु संधि से 3-5 हजार अमेरीकियों को प्रत्यक्ष और 10-15 हजार अप्रत्यक्ष रोजगार मिलेगा। बेरोजगारी और आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहे अमेरिका के लिए यह पैकेज की तरह है। इस करार के बाद आगामी वर्षों में भारत ऐसे जितने भी न्यूक्लियर पॉवर प्लांट स्थापित करेगा उसके लिए रियेक्टर अमेरीकी कम्पनियां देंगी। लेकिन आप को जानकर यह आश्यर्च होगा कि ये सभी रियेक्टर अमेरिका में 40 वर्षों पूर्व बंद कर दिए गए संयंत्रों के हैं। माईल आइर्सलैंड में स्थापित ऐसे ही एक संयंत्र में परमाणु रिसाव के बाद अमेरिका के ये सभी संयंत्र बंद कर दिए गए थे, जिन्हें अब भारत को बकायदा बेचा जा रहा है।
अमेरिकी साम्राज्यवाद का इससे बेहतर नमूना और क्या हो सकता है कि वो खम ठोंक कर भी अपने पुराने कबाड़ भारत को बेच रहा है और यहां की सरकार लाल कालीन बिछाकर उनकी कम्पनियां का स्वागत कर रही है। पिछले साल इन्हीं दिनों परमाणु कार्यक्रमों को वैधता दिलाने के लिए संसद में विशेष सत्र बुलाकर परमाणु दायित्व विधेयक संसद में पारित किया गया जो कि वास्तव में एक छलावा मात्र है। परमाणु दुर्घटनाओं का दायित्व निर्धारित करने के नाम पर सरकार ने ऐसी घटनाओं के लिए जिम्मेदार कम्पनियों को मात्र 110 मिलीयन डॉलर का मुआवजा देकर इसकी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाने की छूट दे दी। जबकि खुद अमेरिका में ही 450 मिलीयन डॉलर के मुआवजे का प्रावधान है।
दरअसल कार्बनरहित उर्जा के नाम पर जिस न्यूक्लियर पॉवर को बढ़ावा दिया जा रहा है, वह अपने आप में कार्बन से भी कहीं ज्यादा खतरनाक आशंकाओं को समेटे हुए है। ऐसे संयंत्र न केवल मानवीय सभ्यताओं के लिए खतरें हैं, बल्कि इसकी आड़ में तीसरी दुनिया के देशों और वहां की जनता को प्रयोगशाला के चुहों के तौर पर प्रयोग किया जा रहा है। सोलर एजर्नी जैसी बेहद साफ-सुथरी उर्जा का विकल्प होते हुए भी न्यूक्लियर लॉबी इसे विकसित नहीं होने देने चाहती। यह विडम्बना ही है कि जिस महाराष्ट्र में जैतापुर न्यूक्लियर पॉवर प्लांट के खिलाफ लोग लड़ रहे हैं वहीं के हरीश खांडे को लोगों तक सस्ती और स्वच्छ सोलर एजर्नी पहुंचाने के लिए प्रतिष्ठित मैग्सेसे पुरस्कार दिया जा रहा है।

संप्रति: स्वतंत्र पत्रकार
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