संसद की कैसी सर्वोच्चता ?


विजय प्रताप

स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम संबोधन में राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने कहा कि ‘‘संसद जैसी संवैधानिक संस्थाओं के अधिकारों और विश्वसनीयता को जाने-अनजाने में कम करने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए।’’ इसमें कोई दो राय नहीं की लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद की सर्वोच्चता से समझौता नहीं किया जा सकता। यह देश की जनता की सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्था है। लेकिन पिछले दिनों भष्ट्राचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन से डरे राजनैतिक दलों के नेताओं ने एक सुर में कहना शुरू कर दिया कि ‘अन्ना संसद की सर्वोच्चता को चुनौती दे रहे हैं।’ लेकिन क्या संसद की सर्वोच्चता यह चुनौती केवल अन्ना या सिविल सोसाइटी के लोग ही दे रहे हैं या खुद सरकारें भी ऐसा ही कर रही हैं।
स्ंासद की सर्वोच्चता पर चर्चा से पहले सरकार के कुछ हालिया फैसलों पर एक नजर दौड़ते हैं। सरकार ने पिछले दिनों अपने सभी नागरिकों को यूनिक पहचान पत्र जारी करने की योजना यूआईडी प्रोजेक्ट शुरू की। इसके लिए नेशनल आइडेंटिफिकेशन आथॉरिटी ऑफ इंडिया का गठन किया गया और एक कॉरपोरेट कम्पनी के सीईओ नंदन निलेकनी को इसका अध्यक्ष बना दिया। इतनी बड़ी परियोजना शुरू करने से पहले सरकार ने संसद में चर्चा या उसकी अनुमति की जरुरत महसूस नहीं की। इस संबंध में प्रस्तावित बिल अभी लोकसभा में पेश होना बाकी है, लेकिन निलेकनी के नेतृत्व में सोनिया गांधी ने महाराष्ट्र में एक महिला को परिचय पत्र देकर इस योजना की शुरुआत भी कर दी है।
दूसरा एक उदाहरण नैटग्रिड का है। राष्ट्रीय सुरक्षा और खुफिया मामलों पर नजर रखने के लिए सिक्युरिटी कैबिनेट कमेटी ने हाल ही में नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड (नैटग्रिड) को मंजूरी दे दी। इसका कार्यकारी निदेशक कैप्टन रघु रमन को बनाया गया है, जो पूर्व में महिंद्रा स्पेशल सर्विस गु्रप के पूर्व कार्यकारी निदेशक (सीईओ) रह चुके हैं। नैटग्रिड के गठन और रमन की नियुक्ति के मामले में भी संसद की सर्वोच्चता को नजरअंदाज कर दिया गया। सरकार ने देश के प्रतिनिधियों से इस संबंध में सैद्धांतिक मंजूरी की जरुरत भी महसूस नहीं की।
संसद की सर्वोच्चता पर सवाल उठाने वाले सरकार के प्रतिनिधि क्या यह बता सकते हैं कि बिना संसद को विश्वास में लिए यह फैसले क्यों किए गए? राष्ट्रीय महत्व के इस तरह के बड़े फैसलों में पूरे देश को अंधेरे में रखते हुए इसकी बागडोर निजी कॉरपोरेट कम्पनियों को सीईओ को क्यों दे दी गई? क्या जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि या संसद के प्रति उत्तरदायी कोई व्यक्ति इन कामों के योग्य नहीं था? संसद की सर्वोच्चता का दंभ भरने वाली सरकार यहां खुद कटघरे में खड़ी हैं। कॉरपोरेट कम्पनियों के इशारे पर पिछले दिनों सरकार ने न केवल ऐसे फैसले किए बल्कि उसकी जिम्मेदारी भी कॉरपोरेट कम्पनियों के हाथ में सौंप दी। यह सब कुछ संसद की मंजूरी के बगैर किया गया।
आप को नीरा राडिया के टेपों की याद हो तो वो भी संसद और सरकारों की सर्वोच्चता को चुनौती का नंगा सच उजागर करती है। इन टेपों में कॉरपोरेट के इशारों पर मंत्रिमंडल का विस्तार और अपने पंसद के व्यक्तियों को पंसद के मुताबिक मंत्रालय दिलाने का खुला खेल उजागर हुआ। यह खेल न केवल कॉरपोरेट लॉबी द्वारा खेला गया, बल्कि इसमें मीडिया के दलालों का भी बखूबी इस्तेमाल किया गया। क्या मंत्रियों की नियुक्ति में कॉरपोरेट दलालों का हस्तक्षेप संसद की सर्वोच्चता को चुनौती नहीं है?
है। विकिल्किस के खुलासों में अमेरिकी दूतावास की ओर से भेजे गए कूटनीतिक संदेशों में पिछले दिनों भारत में मुरली देवड़ा को पेट्रोलियम मंत्री बनाए जाने के पीछे अमेरिका के स्वार्थों को स्पष्ट कर दिया। इन खुलासों ने साफ कर दिया है कि भारत में सरकार और मंत्रीमंडल का गठन जनता के इशारों पर नहीं बल्कि अमेरिका में बैठे आकाओं के इशारों पर होता है। ऐसे में क्या यह हमारी संसदीय संप्रुभता को चुनौती नहीं है? भारत के कूटनीतिक और सामरिक मामलों में अमेरिका का हस्तक्षेप कोई नहीं बात नहीं है। पहले भी सरकार ने अमेरिका के इशारों पर संयुक्त राष्ट्र संघ में अपने मित्र देश ईरान के खिलाफ वोटिंग की है। अमेरिका के दबाव में ही परमाणु करार किया गया जिसमें कई ऐसे उपबंध है, जो सीधे-सीधे तौर पर भारत की संप्रुभता को चुनौती देते हैं। इसी सवाल पर वामपंथी दलों ने यूपीए सरकार से अपना समर्थन वापस लिया था।
लोकतांत्रिक देश में संसद की सर्वोच्चता वास्तव में स्वीकार की जानी चाहिए। लेकिन यह दौर न केवल संसद बल्कि राष्ट्रीय संप्रभुता से भी समझौते का दौर है। इसे संसद में कॉरपोरेट घरानों के बढ़ते हस्तक्षेप से और सामरिक मामलों में बढ़ते अमेरिकी हस्तक्षेप से समझा जा सकता है। वास्तव में यह किसी एक सरकार से जुड़ा मामला नहीं है। इन समझौतों के लिए यूपीए-एनडीए और इनके घटक दल बराबर के जिम्मेदार हैं। जब सारे फैसले कॉरपोरेट कम्पनियों के इशारों या उनके पक्ष में लिए जा रहे हों, संसद की सर्वोच्चता और उसे जनता की प्रतिनिधि संस्था बताना महज मजाक होगा। जनता ने कब कहा कि खाद्य पदार्थों, रासायनिक खादों और बीजों की सब्सिडी में कटौती कर, कॉरपोरेट आयकर में छूट दी जाए। लेकिन सरकार ऐसा कर रही है। पिछले बजट पर एक नजर दौड़ाएं तो एक शर्मनाक सच्चाई आपको मुंह चिढ़ाती मिलेगी। बजट 2010-11 में सरकार ने खाद्य पदार्थों, रासायनिक खादों और ईंधन पर दी जाने वाली सब्सिडी में 20 हजार करोड़ रुपये की कटौती की, लेकिन वहीं कॉरपोरेट कम्पनियों पर लगने वाले आयकर में 88 हजार 263 करोड़ रुपये की छूट दी।
राष्ट्रपति कहती हैं कि ‘‘संसद, देश के सभी हिस्सों के लोगों और राजनीतिक विचारों का प्रतिनिधित्व करती है।’’ कॉरपोरेट कम्पनियों के पक्ष में लिए जा रहे ये फैसले क्या संसद में देश के सभी हिस्सों के लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं? जिस देश में रोजाना सैकड़ों किसान आत्महत्या कर रहे हों और 77 फीसदी लोग कुपोषण के शिकार हों उस देश में कॉरपोरेट कम्पनियों को रोजाना 240 करोड़ रुपये की छूट देने को जनता के साथ भद्दा मजाक नहीं कहेंगे? हमारी राष्ट्रपति किस संसद और किन जनप्रतिनिधियों के सर्वोच्चता की बात करती हैं? उस संसद की जहां 70 फीसदी जनप्रतिनिधि करोड़पति हैं और जहां की 77 फीसदी जनता 20 रुपये से भी कम में अपना गुजारा कर रही है।


संप्रति: पत्रकार
संपर्क: विजय प्रताप,
सी-2, पीपलवाला मोहल्ला,
बादली एक्सटेंशन
दिल्ली-42
मो. - 8826713707

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