भ्रष्टाचार की अधूरी लड़ाई


विजय प्रताप

ग्लोबल फाइनेंशियल इंटिग्रिटी के हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत को हर घंटे 24 करोड़ और हर दिन 240 करोड़ रुपये का चूना गैर कानूनी वित्तिय प्रवाह के जरिये लग रहा है। रिपोर्ट में गैर कानूनी वित्तिय प्रवाह को स्पष्ट करते हुए इसमें भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, आपराधिक व कर अधिकरणों से पैसे छुपाने की प्रवृति को शामिल किया गया है। वर्तमान में भारत सरकार कॉरपोरेट कम्पनियों को प्रतिवर्ष 5 लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी दे रही है। बोफोर्स से लगायत हवाला, हर्षद मेहता, केतन पारिख, सत्यम टेलीकॉम, कृष्णा बेसिन, 2 जी स्पेक्ट्रम, आदर्श सोसायटी, इसरो, बेल्लारी, और इसके अलावा अन्य सभी घोटालों में एक तरह की समानता देखी जा सकती है। इन सभी बड़े घोटलों की जड़ में कॉरपोरेट कम्पनियों का हित रहा है। लेकिन मौजूदा भ्रष्टाचार की बहसों पर गौर करें तो कॉरपोरेट कम्पनियां इस दायरे से पूरी तरह बाहर हैं। भ्रष्टाचार की बहस चला रहे सिविल सोसायटी के लोगों का कॉरपोरेट को बहस के दायरे से बाहर रखना हजम होने वाली बात नहीं है। इसके बिना यह लड़ाई अधूरी रहेगी।
2 जी स्पेक्ट्रम में टाटा, रिलायंस, एयरसेल, स्वान टेलिकॉम सहित कई संचार सेवाएं उपलब्ध कराने वाली कम्पनियों को लाभ पहुंचाने की बात सामने आई। नीरा राडिया के टेपों से यह भी जाहिर हो गया कि कैसे भारत में कॉरपोरेट हितों को ध्यान में रखते हुए मंत्रिमंडल का गठन किया जाता है। हालांकि मंत्री कौन बनेगा यह केवल भारतीय कॉरपोरेट घराने ही नहीं तय करते बल्कि विकिलिक्स के खुलासों में स्पष्ट हो गया है कि मुरली देवड़ा को पेट्रोलियम मंत्री बनाने के पीछे शुद्ध रुप से अमेरिका का हित था। बहरहाल, मनमोहन सिंह के वितमंत्री से प्रधानमंत्री तक के सफर ने बेतहाशा भ्रष्टाचार की जो इबारत लिखी है, उसकी स्याही उदारीकरण की नीतियां है।
एक तथ्य के अनुसार भारत का विदेशों में जमा काले धन का 68 फीसदी हिस्सा 1991 के बाद का है। ‘91 से पहले जहां प्रतिवर्ष 9.1 फीसदी की औसत दर से विदेशों में काला धन जमा होता था वहीं इसके बाद यह बढ़कर 16.4 फीसदी हो गया। केवल स्विट्जरलैण्ड के बैंकों में 70 लाख करोड़ रुपए काला धन जमा है। यह राशि भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 6 गुना और विदेशी कर्ज का 13 गुना है। बावजूद इसके उदारीकरण की नीतियों को भ्रष्टाचार की बहस के दायरे से बाहर कर दिया गया है। सिविल सोसायटी के लोग भ्रष्टाचार को कुछ लोगों के नैतिक पतन के तौर पर देख रहे हैं। उन्हें लगता है कि जन लोकपाल के लागू हो जाने के बाद से सर्वव्यापी भ्रष्टाचार रुक जाएगा। लेकिन यहां विचारणीय प्रश्न है कि क्या इन नीतियों को रोके बिना भ्रष्टाचार पर लगाम संभव है? अगर नहीं, तो कॉरपोरेट को सिविल सोसायटियों के आंदोलन के दायरे से बाहर रखने में किसका स्वार्थ है?
उदारीकृत नीतियों ने भारत को बिना किसी हो-हल्ले के विभाजित कर दिया। कोटक वेल्थ मैनेजमेंट और क्रिसिल की ताजा रिपोर्ट के अनुसार एक तरफ 2010-11 में 62 हजार ऐसे परिवार थे जिनकी कुल संपत्ति 25 करोड़ रुपये से ज्यादा की है। इनकी संख्या 2016 तक बढ़कर 2 लाख 19 हजार हो जाने की संभावना है। दूसरी तरफ अर्जुन सेनगुप्त कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि 77 फीसदी भारतीय 20 रुपये पर जीने को मोहताज हैं। लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन के अगुवा अन्ना की सिविल सोसायटी के लोगों का ध्यान जनलोकपाल से आगे नहीं जाता। भ्रष्ट नौकरशाह और राजनीतिज्ञों को सजा दिला देने मात्र से अगर भ्रष्टाचार खत्म हो सकता है तो यह समाज कब का अपराध मुक्त हो जाता।
कॉरपोरेट कम्पनियों को जानबूझकर भ्रष्टाचार के दायरे से बाहर रखने की कोशिश की जा रही है। यह निजिकरण को प्रोत्साहित करने वाली वही मानसिकता है जो सरकारी को ‘अछूत’ मानकर व्यवहार करती है। मसलन निजी है तो वह समाज को बराबरी के स्तर पर लाने के लिए दिये जा रहे आरक्षण के नियमों से बाहर रहेगा। अगर निजी है तो उसे सूचना अधिकार के दायरे से बाहर रखा जाएगा। अगर निजी है, तो वहां वह तमाम श्रम कानून नहीं लागू होंगे जो एक मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने के लिए जरुरी हैं। अन्ना के आंदोलन के दायरे से निजी कम्पनियों को बाहर रखा गया है तो उसके पीछे वह उच्च मध्यवर्ग की शक्ति है जो इन निजी कम्पनियों का बंधुआ मजदूर है और उसका पैरोकार भी। अन्ना को अनशन करने के लिए जिंदल एल्यूमिनियम से 25 लाख रुपये का दान मिलता है तो यह यूं ही नहीं है। इसमें निजीहित समाहित है।
भ्रष्टाचार के दायरे में कॉरपोरेट लूट को शामिल करने के लिए अन्ना भले ही आंदोलन न करें, लेकिन देश का एक हिस्सा इसे नजरअंदाज नहीं करना चाहता। अभी हाल में एक लंबे अभियान के बाद ‘स्टूडेन्ट्स-यूथ अगेंस्ट करप्शन’ से जुड़े हजारों छात्रों-युवाओं ने दिल्ली में 100 घंटे की मोर्चेबंदी करके उदारीकरण की नीतियों को भ्रष्टाचार के केन्द्र में लाने की कोशिश की। हालांकि मीडिया ने इसे उस तरह का कवरेज नहीं दिया जैसा अन्ना या रामदेव को मिलता है, लेकिन इससे इनके महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता।
वास्तव में जब तक मौजूदा भ्रष्टाचार को उदारीकरण की नीतियों के साथ जोड़कर नहीं देखा जाएगा, उसको मिटाने के सारे प्रयास खोखले साबित होंगे। हमें यह समझना होगा कि क्यों एक तरफ सरकार किसानों के खाद-बीजों से सब्सिडी खत्म कर रही है और क्यों सरकार कॉरपोरेट कम्पनियों को 5 लाख करोड़ रुपये की प्रतिवर्ष सब्सिडी दे रही है? मौजूदा बजट में सरकार ने बड़े निगमों को फायदा पहुंचाने के लिए कॉरपोरेट टैक्स पर सरचार्ज 7.5 प्रतिशत से घटाकर 5 प्रतिशत कर दिया। कॉरपोरेट के पक्ष में पूरी तरह झुकी सरकारों की बेबसी है कि वह चाहते हुए भी भ्रष्टाचार को खत्म नहीं कर सकती। यह कॉरपोरेट की ताकत ही है कि वह किसी मधु कोड़ा जैसे मुख्यमंत्री को महज 4 हजार करोड़ रुपये दे कर लाखों करोड़ रुपये की खनिज संपदा पर अपना अधिकार हासिल कर लें। यह भ्रष्टाचार न तो मधु कोड़ा जैसे लोगों के नैतिक पतन का परिणाम नहीं है, न ही उन्हें सजा दिलाने से खत्म होने वाला। कॉरपोरेट कम्पनियों के लिए मधु कोड़ा, येदुयुरप्पा, ए. राजा, सुरेश कलमाड़ी बहुत छोटे मोहरे हैं, जिनकी शह-मात, उनके दिन-प्रतिदिन का काम है। ऐसे में भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई भी लड़ाई उदारीकरण की नीतियों और कॉरपोरेट कम्पनियों को बाहर करके मुक्कमल नहीं हो सकती।

संप्रति: पत्रकार
संपर्क: विजय प्रताप,
सी-2, प्रथम तल
पीपलवाला मोहल्ला, बादली एक्सटेंशन
दिल्ली-42
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