सरकारों के लिए हथियार है फास्ट ट्रेक कोर्ट


विजय प्रताप

न्यायिक सुधारों की बात करते हुए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने न्याय की धीमी गति की ओर ध्यानाकर्षित किया। इसके लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट के जरिये मामलों का तेजी से निपटारा किए जाने की बात कही जा रही है। कई राज्यों ने फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित करने की पहल शुरू की है। एक आंकड़े के मुताबिक इस समय निचली अदालतों और उच्च न्यायलयो में करीब 3.3 करोड़ और सुप्रीम कोर्ट के पास करीब 66 हजार मुकदमे लंबित हैं।
देशभर की अदालतों में लाखों ऐसे मामले चल रहे हैं जिनकी सुनवाई 10-15 सालों से चल रही है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के एक आंकड़े के मुताबिक देशभर की 1400 जेलों में करीब 3 लाख 77 हजार कैदी हैं। इसमें से 77 फीसद कैदी विचाराधीन हैं। यानि की जिनके मुकदमें पर अभी फैसला होना बाकी है और निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि इसमें सभी दोषी ही साबित होंगे। दावे के साथ न्यायपालिका की धीमी गति की वजह से हजारों निर्दोष लोग जेलों में सड़ रहे हैं। कुछ सालों पहले ये खबर आई थी की एक महिला ने 33 साल जेल में गुजारने के बाद वहीं दम तोड़ दिया। अभी हाल में दिल्ली की एक अदालत ने एक विस्फोट के मामले में पकड़े गए आमिर को 14 साल जेल में रहने के बाद निर्दोष करार दिया। इन्हें न्यायपालिका की धीमी चाल का खामियाजा इस तरह से भुगतना पड़ा जिसकी भरपाई कोई भी न्यायपालिका या सरकार नहीं कर सकती। सबसे बुरा तो यह कि इस बात का न तो न्यायपालिका को कोई अफसोस होता है, ना पुलिस, ना सरकार को। सत्ता, कुछ फास्ट ट्रैक कोर्ट शुरू करके न्यायपालिका में लोगों के विश्वास को बनाए रखना चाहती है। दरअसल जिन मामलों में फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना हो रही है उनके पीछे कुछ छिपे कारण भी हैं।
दिल्ली के हालिया चर्चित रेप कांड के बाद आंदोलनों से घबराई सरकार ने इस मामले की सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना कर दी। अब मामले की सुनवाई तेजी से हो रही है, और उम्मीद की जा रही है कि महीने दो महीने में फैसला भी हो जाएगा। इसी तरह से कुछ चर्चित बम विस्फोट की घटनाओं के बाद भी भारी जनआक्रोश को शांत करने के लिए उन मामलों के लिए सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित कर दिए गए। घटना दर घटना लोगों की प्रतिक्रिया और आक्रोश के तापमान के आधार पर सरकारों ने फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने के निर्णय लिया जाता रहा है। दरअसल फैसले के वक्त जल्दी न्याय दिलाने की बजाय तत्कालीन आक्रोश को शांत करना अहम कारण होता है। इस तरह से देखें तो फास्ट ट्रैक कोर्ट और जल्दी न्याय एक तरह से सरकार या सत्ता के हाथ की कठपुतली की तरह हो गई है। इससे एक फायदा उन पीड़ित लोगों को मिलता है, जिन्हें एक लंबी, पीड़ादायक और खर्चीली न्यायिक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता। सत्ता के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट के जरिये न्याय दिलाने की इस सद्इच्छा के मूल में पीड़ितों सहजता से न्याय देना नहीं है। अभी तक फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना के चलन से इस बात को बखूबी समझा जा सकता है। सत्ता का यह दोहरा रवैया एक तरह से न्याय में समाहित समानता के सिद्धांत को खंडित करता है। जिन लोगों के मामले किसी दबाववश फास्ट ट्रैक कोर्ट में आ गए हैं उन्हें जल्दी न्याय मिलेगा और जिनके मामले सामान्य अदालतों में चल रहा वो देरी के लिए मजबूर होंगे।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर ने ऐसे केसों की एक सूची जारी की है जिनके मामले फास्ट ट्रैक कोर्ट में प्राथमिकता के आधार पर सुनवाई के लिए स्वीकार किए जाएंगे। इसमें उन मामलों को भी शामिल किया गया है जिसमें अभियुक्त जेल में बंद हैं। यह स्वागत योग्य कार्यवाही है। इस तरह से न केवल जेल में बंद लोगों को राहत मिलेगी बल्कि मुकदमा लड़ रहे लोगों को भी जल्दी न्याय मिल सकेगा। लेकिन इस तरह के फैसलों को निचली अदालतों के स्तर पर भी लागू करने की जरूरत है। क्योंकि सबसे ज्यादा मामले निचली अदालतों के पास ही लंबित हैं। निचली अदालतों में ही फैसले होने तक एक पूरी पीढ़ी का समय गुजर जाता है।

वैज्ञानिक शोध भी निजी क्षेत्रों के हवाले


विजय प्रताप

कोलकाता में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जनता के लिए विज्ञान और विज्ञान के लिए जनता के नारे के साथ नई विज्ञान नीति की घोषणा करते हुए इसे भी निजी हाथों में सौंप देने की शुरुआत कर दी है। नई नीति में समाज में वैज्ञनिक चेतना, सामाजिक-आर्थिक उन्नति, कृषि व अन्य विकास कार्यों में विज्ञान के योगदान पर बल दिया गया है। लेकिन वैज्ञानिक शोध और विकास के लिए धन जुटने के लिए निजी कंपनियों की भागीदारी सवाल खड़े करने वाली है।
वैज्ञानिक शोध के मामले में भारत दुनिया के दस देशों में गिना जाता है और नई नीति में इसे टॉप 5 में लाने का लक्ष्य रखा गया है। लेकिन जब हम समाज में विज्ञान की उपयोगिता के बारे में बात करते हैं तो एक भी ऐसी वस्तु या संसाधन नजर नहीं आता जिसकी खोज इस देश के वैज्ञानिकों ने की हो। ज्यादातर वस्तुओं की प्रारंभिक खोज विकसित देशों में हुईं और उन्हें यहां परिवर्धित किया गया। अभी तक यहां के वैज्ञानिकों की कुल उपलब्धि रही है वो या तो तकनीकी संवर्धन से जुड़ी है या फिर रक्षा प्रोद्यौगिकी के क्षेत्र में रहा है। संचार के क्षेत्र में भी वैज्ञानिक शोध के दावे किये जाते हैं, दरअसल वो नए शोध की बजाय दूसरे देशों में हो चुके शोध के आधार पर अपने देश में तकनीक विकसित करने से जुड़े होते हैं। कहा यह भी जाता है कि संचार के क्षेत्र में अहम प्रगति से कृषि को बढ़ावा देने में मदद मिली है। उत्तर भारत में कुछ वर्षों तक ग्रामीण क्षेत्रों में रिपोर्टिंग के दौरान मुझे एक भी ऐसा ग्रामीण किसान नहीं मिला जो कि उपग्रह आधारित मौसम पूर्वानुमान से अपने कृषि कार्यों को तय करता हो। भारत में विज्ञान की कुल मिलाकर उपयोगिता तकनीकी विकास के रूप में सामने आती है। हालांकि आम आदमी के प्रयोग की ज्यादातर तकनीक भारत के बाहर हुए शोध के आधार पर विकसित की गई हैं। भारत केवल उसका उपभोक्ता मात्र है और यहां के विज्ञान और प्रोद्यौगिकी विकास विभाग ऐसी तकनीकों के गांव-शहर तक पहुंचाने को ही अपनी उपलब्धि के तौर पर देखता है।
भारत में विज्ञान और प्रोद्यौगिकी विकास, एक ही विभाग के अंतर्गत आते हैं जिसका नतीजा ये होता है कि विज्ञान पर प्रोद्यौगिकी हावी रहती है। वैज्ञानिक शोध के नाम पर तकनीकी यंत्रों को सामने कर दिया जाता है। इससे समाज में वैज्ञानिक चेतना के प्रसार की जिम्मेदारी पीछे चली जाती है। नई नीति में वैज्ञानिक वातावरण बनाने को शामिल किया गया है, लेकिन इसके साथ ही निजी भागीदारी भी जोड़ दी गई है। अमूमन समाज और निजी कंपनियां के हित परस्पर विरोधी होते हैं। बल्कि यूं कह लें कि निजी कंपनियां, अपने लाभ के लिए समाज में मौजूद संसाधनों का दोहन करती हैं। इसलिए नई विज्ञान नीति में निजी भागीदारी के साथ वैज्ञानिक चेतना की बात बेमानी लगती है। इसके पर्याप्त आधार भी हैं। जब निजी कंपनियां वैज्ञानिक शोध के लिए धन मुहैया कराएंगी तो जाहिर सी बात है कि वो इससे लाभ कमाना चाहेंगी। कंपनियों का लाभ समाज को उन्नत बनाने वाले वैज्ञानिक खोजों में निहित नहीं है। वो ऐसे वैज्ञानिक खोजों पर ही जोर देंगी जो उनके उत्पादों के खपत को या तकनीकी मानसिकता बढ़ाने में मदद करे। तकनीक, विकास में सहयोगी होती हैं, लेकिन किसका कितना विकास होगा यह तकनीक नहीं तय करती। समाज में उत्पाद के साधनों पर जिसका जितना अधिकार होता है, उसे नई तकनीकों से उतना ही ज्यादा फायदा होता है। सरकार वैज्ञानिक शोधों को बढ़ावा देने के नाम पर दरअसल इस क्षेत्र का भी निजीकरण कर रही है जिसमें ज्यादा से ज्यादा फायदा केवल निजी कंपनियों का होगा।
पहले हो चुके शोध की नकल की संस्कृति ने भी नए शोध के लिए अनुकूल वातावरण को नुकसान पहुंचाया है। विज्ञान एवं प्रोद्यौगिकी विभाग ने भारतीय समाज में पहले से मौजूद वैज्ञानिक अनुभवों और अनुसंधानों को मान्यता देने या उनसे कुछ सीखने की कोशिश नहीं की। जबकि विविधता से भरे भारतीय समाज में लोगों ने बिना सरकार या उसके विभागों का मुंह देखे खुद अपनी जरूरत के मुताबिक खोज किया। सरकार की जिम्मेदारी समाज में वैज्ञानिक चेतना के प्रसार के साथ-साथ ऐसे आम जनजीवन में मौजूद वैज्ञानिक अविष्कारों को प्रोत्साहित और प्रचारित-प्रसारित करने की भी होनी चाहिए।


बहसों पर मालिकाना हक


विजय प्रताप
मीडिया के मालिकाना हक पर तो दुनिया भर में चर्चाएं होती रही हैं। लेकिन मीडिया में होने वाली बहसों में भी एक मालिकाना हक दिखाई देता है और वह मीडिया पर एकाधिकार के विमर्श में दिखाई नहीं देता हैं। मीडिया के विभिन्न माध्यमों में होने वाली बहसों में कौन शामिल रहता है या किसका एकाधिकार है,  इसे समझने के लिए यहां तीन सर्वे की चर्चा जरूरी होगी। मीडिया स्टडीज ग्रुप ने एक सर्वे में पाया कि वर्ष 1975-76 में आपातकाल के समय सरकार ने अपनी नीतियों के प्रचार-प्रसार के लिए कुछ थोड़े से लोग जिसमें ज्यादातर पत्रकार थे, को इस्तेमाल किया। दूरदर्शन के विभिन्न केंद्रों के जरिये होने वाले प्रसारण में इन पत्रकारों को बुलाया जाता रहा गया। ये पत्रकार मूलतः अखबारों या पत्रिकाओं से जुड़े थे। यह सारी कवायद सरकार के पक्ष में जनमत तैयार करने के लिए की जा रही थी। ग्रुप ने ही एक और सर्वे में निजी चैनलों पर किसी मुद्दे पर विचार-विमर्श करने वाले व्यक्तियों का अध्ययन किया गया। यहां भी थोड़े से लोग ही उस मुद्दे पर बहस करते दिखाई दिए। यहां तक की कुछ लोग तो ऐसे भी थे जो एक समय किसी और चैनल पर दिख रहे थे तो थोड़ी देर बाद दूसरे चैनल पर भी वही मौजूद थे। मीडिया स्टडीज ग्रुप से जुड़े पत्रकार वरुण शैलेश ने हाल ही में आकाशवाणी के कार्यक्रमों में होने वाले बहस या बातचीत करने वाले लोगों पर एक अध्ययन किया। वहां भी बहुत थोड़े से लोग सभी मुद्दों पर बहस करते दिखे। इन सर्वे को मीडिया स्टडीज ग्रुप ने अपनी शोध पत्रिकाओं जन मीडिया व मास मीडिया के जरिये जारी किए हैं। अखबारों के संपादकीय पेज पर लिखने वाले लोगों के लेकर पहले भी शोध हुए हैं जिनका नतीजा कमोबेश यही रहा है।
संचार माध्यम आम जन की समझ के आधार होते हैं। समाचार पत्रों, टीवी चैनलों, रेडियो या अन्य संचार माध्यमों से जो सूचनाएं लोगों के बीच पहुंचती हैं वो जनमत तैयार करने में निर्णायक साबित होती है। इन माध्यम में लिखने, दिखने और बोलने वाले लोग समाज की दशा और दिशा तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं। इस मायने में यह महत्वपूर्ण है कि जनमत तैयार करने वाले माध्यम पर किन लोग की हिस्सेदारी ज्यादा है। सर्वे के निष्कर्ष बताते हैं कि जनमत तैयार करने वाले माध्यमों पर बहुत थोड़े से लोगों का कब्जा है। थोड़े से लोगों का यह कब्जा कई तरह से है। न केवल हर मुद्दे पर वही लोग दिखते हैं बल्कि अलग-अलग माध्यमों में भी उन्हीं का कब्जा है। मसलन जो लोग समाचार चैनलों के पर्दे पर मौजूद हैं और वही आकाशवाणी के जरिये भी अपने विचार रख रहे हैं और वही अखबारों के संपादकीय पेज पर लिखते हैं। इससे एक ही तरह के विचारों की बहुलता दिखाई देने लगती है। एक से ही विचारों की यह बहुलता भारतीय समाज में मौजूद सांस्कृतिक और वैचारिक विविधता को गायब कर देती है। ऐसे में यह कहना कि यह सबकुछ सोची समझी रणनीति के तहत है, गलत नहीं होगा। लोकसभा चैनल पर आने वाले वक्ताओं का सर्वे करते हुए यह पाया गया कि 6 माह में कुल 979 लोग वक्ता के तौर पर बुलाए गए, लेकिन इन लोगों ने 2000 लोगों की बात कही। मतलब कि जहां 2000 लोगों को बुलाया जाना चाहिए था 979 लोगों में से ही कुछ लोगों को बार-बार बुला लिया गया। इसमें से कुछ लोग ऐसे भी थे जो 17-18 बार बुलाए गए। ठीक इसी तरह आकाशवाणी (एआईआर) में 10 लोगों को 179 बार अलग-अलग कार्यक्रमों में बुलाया गया। (संदर्भ के लिए जन मीडिया/मास मीडिया का अंक 3 और 9 देखा जा सकता है।)
आपातकाल के दौरान जनसंचार माध्यमों पर सेंसरशिप लागू थी। कहा जा रहा था कि सरकार की इजाजत के बिना अखबारों, दूरदर्शन और आकाशवाणी में कुछ प्रसारित नहीं होता था। लेकिन क्या आज भी समाचार माध्यमों पर किसी तरह की सेंसरशिप लागू है? उदारीकरण का दौर में विचारों और अभिव्यक्ति में विविधता की दरिद्रता ज्यादा साफ देखी जा सकती है, जो लगातार बढ़ भी रही है। इस समय मीडिया पर किसी तरह का घोषित सेंसरशिप नहीं है। पहले केवल एक चैनल दूरदर्शन हुआ करता था जिस पर सरकारी प्रवक्ता होने के आरोप आम थे। अब ढेर सारे निजी चैनल हैं बावजूद इसके थोड़े से लोग ही सरकारी और निजी दोनों तरह के चैनलों और अन्य माध्यमों में बार-बार दिख रहे हैं। समाज का एक बड़ा हिस्सा जो पहले से ही अलग-अलग कारणों से हाशिए पर था, मीडिया के जरिये भी उन्हें उसी स्थिति में बनाए रखने की कोशिश जारी है। यहां होने वाली बहसों में ना तो महिलाएं देखने को मिलती हैं ना ही दलित-आदिवासी। खुद को राष्ट्रीय कहने वाले चैनलों और 99.18 प्रतिशत जनसंख्या तक पहुंचने का दावा करने वाले आकाशवाणी पर क्षेत्रीय विविधता सीरे से गायब है। उपर जिक्र किए गए सभी सर्वे में यह भी देखने को मिला कि उत्तर-पूर्व के राज्यों का कोई भी वक्ता किसी समाचार या बहस के हिस्से के रूप में नहीं दिखा। ज्यादातर दिल्ली और आस-पास की जगहों पर रहने वाले, नामी-गिरामी संस्थाओं से जुड़े, सहजता से उपलब्ध थोड़े से लोग हर क्षेत्र, संस्कृति, सामाजिक वर्ग और मुद्दों के विशेषज्ञ के रूप में पेश किए जाते हैं। यह एक तरह से बाकी समाज को नीचा दिखाने और उनकी प्रतिभा को कमतर आंकने जैसा अमानवीय व्यवहार भी है।
जब माध्यमों में लोगों की विविधता नहीं है तो जाहिर सी बात है कि समाज के मुद्दे भी उन माध्यमों का हिस्सा नहीं बन सकते। जैसे कि आकाशवाणी ने बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय को अपने उद्देश्य के रूप में अपनाया है। लेकिन जब मीडिया स्टडीज ग्रुप के सर्वे में वर्षभर प्रसारित कार्यक्रमों के विषय का विश्लेषण किया गया तो पता चला कि ग्रामीण इलाके, दलित, अल्पसंख्यक, युवाओं पर एक फीसदी से कम और केवल पिछड़े-आदिवासी के मुद्दे पर एक भी कार्यक्रम नहीं प्रसारित किए गए। आकाशवाणी से जिन मुद्दों पर सर्वाधिक कार्यक्रम प्रसारित हुए उनमें आर्थिक मामले प्रमुख हैं। समाज में कुछ खास तरह के विचारों को स्थापित करने में मीडिया की भूमिका आपातकाल से अब तक यथावत बनी है। जिसका मतलब ये भी निकलता है कि मीडिया ने इसे अपने कार्य के रूप में चिन्हित किया है। कुछ वर्चस्वशाली लोगों के मुद्दों के व्यापक समाज के मुद्दे के रूप में पेश किया जाता है और उन मुद्दों पर अपनी सहमति/असहमति जाहिर करने के लिए भी एक छोटे से वर्ग को सुविधानुसार चुन लिया गया है। इस आलोक में देखें तो सरकारी और निजी मीडिया, समान रूप से समाज में वर्चस्वशाली विचारों और लोगों को मजबूती देने के एक साधन के रूप में है। जनमत निर्माण के ये साधन हाशिये के लोगों को उन्हीं के बीच रहकर और ज्यादा हाशिये पर धकेलने की नियत से काम कर रहे हैं।

संघलता का संघर्ष


विजय प्रताप 
दिल्ली में एक छात्रा के साथ बलात्कार की घटना की बाद देश में अपने-अपने तरह  की प्रतिक्रिया दिखाई दी। अपने गुस्से को लोगों ने तरह-तरह जाहिर किया। प्रदर्शन करने वालों ने कोटा में स्कूली छात्राओं को सीटी पकड़ा कर विरोध किया। उनका तर्क था कि छेड़खानी हो तो लड़कियां सीटी बजाकर आस-पास के लोगों को सहायता के लिए बुला सकती हैं। इसके अलावा सीसीटीव को भी एक इलाज के तौर पर पेश किया गया, जिसकी वकालत दिल्ली की एक मंत्री किरण वालिया करती दिखीं। यह नए दौर के प्रबंधन की पढ़ाई पढ़कर निकले लोगों के तकनीकी मैनेजमेंट है। जो तरीका वो एक मशीन के लिए आजमा देते हैं, उसी तकनीकी दिमाग से सामाजिक समस्याओं को सुलाझाने की कोशिश करते हैं। बहरहाल जिन्हें लगता है कि लड़कियों की सुरक्षा कोई तकनीकी मामला है उनको एक वाकया बताना जरूरी लगता है।
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अन्तर्गत इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मॉनिटरिंग सेंटर (ईएमएमसी) सभी चैनलों पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रमों की निगरानी करता है। वहां मॉनिटर के तौर पर काम करने वाले 3 महीने के ठेके पर रखे जाते हैं, और अधिकारियों की कोई नाराजगी ना हो तो आमतौर पर ठेके की अवधि बढ़ती रहती है। वहां काम करने वाली हमारी एक साथी संघलता ने अपने एक सहकर्मी पर कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए और इसकी लिखित शिकायत अपने कार्यालय में दर्ज कराई। सेंटर की निदेशक रंजना देव ने संघलता को अपने केबिन में बुलाया और इस बात के लिए जमकर डांट लगाई की वो इस तरह की शिकायत करने की हिम्मत कैसे की। निदेशक महोदया ने उनके परिवार पर भी दबाव बनाया। हालांकि महिला उत्पीड़न की शिकायत ईएमएमसी में कोई पहली घटना नहीं थी। पहले भी कई बार शिकायतें हुईं और संघलता ने जिस व्यक्ति के खिलाफ शिकायत की उस के खिलाफ और भी कई शिकायतें हैं। लेकिन उसी दफ्तर के कुछ बुजुर्ग कर्मचारी आरोपी को बचाने में लगे हैं सो उसका हौसला बढ़ता गया। कई लड़कियों ने मजबूरी में नौकरी ही छोड़ देना बेहतर समझा, तो कइयों को इसके लिए मजबूर कर दिया गया। दरअसल ईएमएमसी अपने बनने के बाद से ही अधिकारियों की मनमर्जी का शिकार हैं। किसी ने अपनी बहु और उनकी बहनों को नौकरी पर रख लिया तो किसी ने अपने दोस्त के बेटे को नौकरी में लगवा दिया। इसी मनमर्जी के चलते कुछ कर्मचारी अपने को किसी भी कानून से ऊपर समझने लगे।
लगातार प्रताड़ना के बाद भी संघलता अपनी बात पर अडी रही और उसने राष्ट्रीय महिला आयोग और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग में भी अपनी शिकायत भेजी। कई दिनों तक उसे कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। इस दौरान उसे कार्यालय में लगातार प्रताड़ित किया जाता रहा गया। उसकी शिकायत जिस व्यक्ति के खिलाफ थी उसे भी उसी के साथ काम करने और एक ही गाड़ी में बिना किसी सुरक्षा के रात 12 बजे घर जाने को मजबूर किया जाता रहा। उसकी कई बार भागदौड़ के बाद महिला आयोग ने ईएमएमसी को एक औपचारिक नोटिस भेजकर जवाब मांगा। निदेशक महोदया जवाब में उल्टे संघलता को दोषी बताया। कहा कि वो उन्हें विश नहीं करती, वरिष्ठ अधिकारियों से ढ़ंग से बात नहीं करती, ऑफिस के खिलाफ षडयंत्र कर रही है और उसे इसलिए नौकरी से निकाल दिया गया है। संघलता के लिए यह सबकुछ सहना आसान नहीं था। उसके शिकायत की कीमत उसे नौकरी गंवा कर चुकानी पड़ी। यह नौकरी उसके पूरे परिवार के लिए जरूरी थी। मैंने खुद तत्कालिन सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी को पत्र लिखकर ये शिकायत की लेकिन कार्रवाई तो दूर जवाब देना भी मुनासिब नहीं समझा।
अब जिन्हें लगता है कि लड़कियों की सुरक्षा किसी सीटी बजाने या सीसीटीवी कैमरे से हो सकती है, उन्हें संघलता जैसी लड़कियों की जमीनी हकीकत और संघर्ष को भी जानने की जरूरी है। महिलाओं के लिए अलग महिला थाने और महिला पुलिस की बात होती है। पुरुषवादी सत्ता के ढांचे में रची बसी ईएमएमसी की निदेशक रंजना देव, महिला आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा और तत्कालिन सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी, किसी ने संघलता की शिकायत को गंभीरता से नहीं लिया। फिर अलग महिला थाने या महिला पुलिस से क्या उम्मीद की जा सकती। संघलता अब तक महिला आयोग के चक्कर लगा रही, लेकिन उसकी शिकायत पर आगे कोई कार्रवाई नहीं हुई। दिल्ली वाली घटना के बाद अखबारों में पढ़ने को मिला की सोनिया गांधी महिला आयोग को कड़े शब्दों में कार्रवाई करने चेतावनी दी है। खबर पढ़कर मुझे संघलता का महिला आयोग के चक्कर लगाता चेहरा याद आया। आयोग के चक्कर लगाने के बाद जब लौटती तो हमें बताती कि कैसे वहां के कर्मचारी कोई प्रतिक्रिया नहीं देते या ये कहते हैं कि आपका ही केस नहीं है, यहां सैकड़ों फाइलें पड़ी हैं। मैंने कल्पना की कि वही कर्मचारी सोनिया गांधी को भी वही जवाब दे रहे हैं कि, एक आपका ही केस थोड़े है, ढेर सारी फाइलें पड़ी हैं।” 

सीसीटीवी में कैद समाज


विजय प्रताप
दिल्ली में एक छात्रा के साथ हुई बलात्कार की घटना के बाद वहां की महिला और बाल विकास मंत्री किरण वालिया ने सभी बसों में कैमरे लगवाने की घोषणा की। मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल झाबुआ जिले के एक गांव सारंग में ग्रामीणों ने चोरी की वारदात रोकने के लिए 90 सीसीटीवी कैमरे लगाने का फैसला किया। वहां की ग्राम सुरक्षा समिति इसके लिए चंदा करके 5 लाख रुपये जुटाएगी। इसी तरह सिरसा के आरएसडी कॉलोनी में एक संस्था ने आपराधिक वारदातों को रोकने के लिए 40 कैमरे लगाना तय किया। ऐसे ढेरों सारी घटनाएं हैं, मसलन भोपाल में तय हुआ कि यात्रियों की सुरक्षा के लिए ट्रेनों के जनरल डब्बों में कैमरे लगेंगे, हिमाचल प्रदेश के मंडी में राजकीय तकनीकी कॉलेजों में, दिल्ली में हिंदूराव अस्पताल में बच्चा चोरी की घटनाओं के बाद निगम अस्पतालों में सीसीटीवी लगाने तय किए गए। इस तरह की घटनाओं का अंत नहीं है और सब के पीछे एक ही तरह होता है कि अपराध पर अंकुश लगाने में मदद मिलेगी। लेकिन किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि क्या अपराधियों के नहीं पकड़े जाने से ही अपराध बढ़ रहे हैं? समाज में अपराध को बढ़ावा देने वाली परिस्थितियों पर सीसीटीवी कैसे रोक लगा सकता है। सीसीटीवी को समाज में ऐसी परिस्थितियों पर रोक के विकल्प के रूप में उतारा गया है।
धीरे-धीरे एक तरह से पूरा समाज कैमरों की जद में समाता जा रहा है। जिंदगी का कैमरों में कैद होना केवल निजता का मामला नहीं है। यह समाज में फैल रही असुरक्षा बोध और राज्य के अपनी जिम्मेदारियों से लगातार पीछे हटने से भी जुड़ा मामला है। अपराध पर अंकुश के लिए तकनीक को हथियार के रूप में पेश करके सरकारें और प्रशासन एक तरह से अपनी जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ा लेना चाहते हैं। तभी कई शहरों में पुलिस सभी महत्वपूर्ण व्यापारिक प्रतिष्ठानों, सार्वजनिक स्थानों पर सीसीटीवी कैमरे लगाने के आदेश देती है। मुंबई में पुलिस ने सभी सिमकार्ड डीलरों को दुकानों में सीसीटीवी कैमरे लगाने के निर्देश दिए हैं। छोटे-छोटे शहरों में सीसीटीवी कैमरों के अपराध कम करने के इलाज के तौर पर पेश किया जाने लगा है। इस तरह के प्रचार को मीडिया अपनी खबरों के जरिये न केवल वैधता देता है, बल्कि बढ़ावा भी देता है। कहीं चोरी या लूट होने पर सीसीटीवी कैमरे न लगे होने को एक चूक की तरह पेश किया जाता है। जबकि सीसीटीवी लगने के बाद ऐसी घटनाओं में कोई निर्णायक कमी आएगी इसका दावा ना तो पुलिस कर सकती है ना ही राज्य सरकारें। दरअसल ऐसा दावा किया भी जाता है तो वो सफेद झूठ होता है, क्योंकि कई सारे मामलों में कैमरे में कैद होने के बाद भी न तो अपराधी पकड़े गए ना ही अपराध कम हो रहा है। हां इतना जरूर है कि असुरक्षा बोध और सत्ता के अपनी जिम्मेदारियों से पलायन ने ऐसे कैमरे बनाने वाली कंपनियों और उनके दलालों को कमाई का अच्छा मौका दे दिया है। कोई महालेखा परीक्षक जैसी संस्थाएं इन कैमरों के गुणवत्ता की जांच कर लें तो घोटालों की संख्या में जरूर इजाफा हो जाएगा।
अपराध के समाजशास्त्र पर बात करने की बजाए झटपट समाधान तलाश करने के लिए तकनीक का सहारा लेकर अपराध की जड़ नहीं काटी जा सकती। सरकारें और प्रशासन जनता के तात्कालिक आक्रोश को कम करने के लिए अपराधियों को पकड़ भर लेना चाहती हैं, जिसमें तकनीक उसके लिए मददगार साबित होती है। सरकार की मंशा समाज को अपराधमुक्त करने की नहीं है। एक कल्याणकारी राज्य में सुरक्षा की जिम्मेदारी राज्य की होती है। भारतीय संविधान में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को स्वीकार किया गया है। जिसका मतलब है कि सरकार अपने नागरिकों के हर तरह की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेती है। उसी संविधान में नागरिकों को निजता का अधिकार भी मिला हुआ है। सुरक्षा के नाम पर समाज को सीसीटीवी में कैद कर देना दरअसल संविधान के दोनों प्रावधानों का माखौल उड़ाता है। क्योंकि ना तो सीसीटीवी से नागरिकों को सुरक्षा मिल सकी है ना ही उनकी निजता बची रह गई है। एक तरफ राज्य अपनी जिम्मेदारियों से मुंह चुरा रहा है और तो दूसरी तरफ सीसीटीवी जैसी तकनीकों के बल पर नागरिकों के बीच अपनी विश्वसनीयता बरकार रखने की कोशिश कर रहा है। सीसीटीवी एक तकनीक है जो उसके सामने गुजर रही घटनाओं को कैद कर सकता है, लेकिन वो अवांछित घटनाओं को रोक सकने में सक्षम नहीं है और ना ही ऐसी घटनाओं का संबंध अपराधियों के खुले घूमते रहने से है। सत्ता ने अपनी नीतियों से समाज को खोखला बनाया है। मानवीय संबंधों पर तकनीक और संवेदनाओं पर सनसनी हावी हुई है। तकनीक ने हर तरफ तेजी लायी है। इससे कामकाज के तौर-तरीके जितने आसान हुए हैं, मानवीय संबंध और संवेदनाएं उतनी ही ज्यादा कुंठित हुईं हैं। कामकाज में तेजी का संबंध फायदे से है जो समाज में सबको बराबर नहीं मिल सकता। ज्यादा फायदा उसी के हिस्से में जाएगा जिसका उत्पादन के साधनों पर मालिकाना हक है और जाहिर सी बात है ऐसे चंद लोग हैं। बाकी समाज ने तकनीक की इस तेजी में अपनी आपसी संबंधों को न केवल कमजोर किया है, बल्कि खुद को आपराधिक प्रवृत्ति का भी बनाया है। समाज को सीसीटीवी में कैद करने की कोशिश की जाएगी तो जाहिर सी बात है कि इससे अपराध कम होने से ज्यादा अपराधियों की बेशर्मी बढ़ेगी।
यह एक तरह से असुरक्षाबोध का बाजारीकरण है। उदारीकरण ने बाजार को यह मौका दिया है कि वो इंसान की हर तरह की संवेदनाओं को उत्पाद के रूप में बदल दे और उसकी कीमत लगाए। उदारीकरण के दौर में खुशी, दुख, डर, प्यार, दुलार, घृणा, ईष्या सब कुछ बिकने योग्य है, इसमें सरकारों की जिम्मेदारी केवल इतनी भर है कि वो संवेदनाओं को बेचने लिए निविदाएं मंगाए और उसका ठेका निजी कंपनियों को देती रहे। सीसीटीवी में कैद आपराधिक वारदातें समाज में ऐसी घटनाओं को कम करने की बजाय उसे देखने की एक प्रतिरोधी क्षमता पैदा करेंगी और धीरे-धीरे अपराधियों का डर खत्म होता चला जाएगा। तब शायद कोई नई तकनीक सीसीटीवी की जगह ले लेगी लेकिन इस तरह से जो कुछ समाज खोएगा उस ना बाजार भर सकेगा ना तकनीक।
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संप्रतिः लेखक शोध पत्रिका जन मीडिया/मास मीडिया से जुड़े हैं।
संपर्कः सी-2, पीपलवाला मोहल्ला
बादली एक्टसेंशन
दिल्ली-110042
मो-9015201208

शिक्षक भर्ती में लूट की छूट


विजय प्रताप

उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार ने प्राथमिक स्कूलों में 72,825 शिक्षकों की भर्ती की प्रक्रिया शुरू की है। राज्य में हो रही इस भर्ती की आड़ में डिग्रीधारी बेरोजगार युवाओं से कई तरह से बेलगाम लूट की जा रही है। मेरे अपने कई साथियों इस तरह के अनुभव बयां किए की नौकरी की गारंटी करने के लिए वो सभी 75 जिलों में आवेदन भेज रहे हैं जिसमें हर एक जिले के लिए 500 रुपए का बैंक चालान लगाना पड़ रहा है। अन्य स्तरों पर भी इस भर्ती की प्रक्रिया लूट की खुली छूट देने वाली है।
पढ़े-लिखे और बकायदे प्रशिक्षित युवाओं का बेरोजगार होना अपने आप में एक सामाजिक अभिशाप की तरह है। चुनावों के दौरान सभी राजनीतिक पार्टियां युवाओं की इन भावनाओं को कुरेदती हैं और नौकरी के वादे देकर अपने तरफ खिंचती हैं। हालांकि की जो जिम्मेदारी एक कल्याणकारी राज्य की होनी चाहिए उसे यहां के राजनीतिक दल एक सौदेबाजी की तरह पेश करते हैं। इस सौदेबाजी को चुनावी घोषणापत्रों में नौकरियों के वादे के रूप में देखा जा सकता है। सरकार बनने के बाद कुछ युवाओं को नौकरियां देकर सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी उसे अपनी उपलब्धि के बतौर पेश करती है। इस उपलब्धि और बेरोजगार युवाओं की नौकरी की गारंटी की होड़ में खुली लूट को वैधता मिल गई है। हालात ये हैं कि बैंकों में चालान बनवाने के लिए युवाओं की लंबी लाईन लग रही है। 5-5 सौ के 70-75 चालान बनवाने के लिए अभ्यर्थी बैंकों में अलग से घूस भी दे रहे हैं। वहीं 10-15 रुपये घंटे के हिसाब से चार्ज करने वाले साइबर कैफे संचालक ऑनलाइन आवेदकों से 200-300 रुपये ऐंठ रहे हैं। इस भर्ती की प्रक्रिया में भ्रष्टाचार का यह सिलसिला शुरुआत भर है क्योंकि इसके बाद आवेदकों को कई स्तरों पर बाबूओं-अधिकारियों को पैसे देने होंगे। भ्रष्टाचारी इस अधिकार से पैसे मांगते हैं जैसे वही नौकरी दे रहे हों। उस समय युवा की अपनी प्रतिभा ऐसे घिग्गी बांधे खड़ी होती है कि इसको पैसा नहीं देंगे तो नौकरी नहीं मिलेगी और फिर भविष्य अंधकारमय बन रह जाएगा। कदम-कदम पर उसका आत्मविश्वास डोलता नजर आने लगता है। नौकरी की प्रक्रिया को इस कदर जटिल, महंगी और अमानवीय बना दिया गया है कि शिक्षक की नौकरी मिलने से पूर्व या तो युवा थक हार कर बैठ जाएगा या फिर अपने सारे नैतिक ज्ञान ताक पर रख चुका होंगे।
उत्तर प्रदेश में शिक्षकों की नौकरी की यह सारी कवायद वंचितों को और वंचित करने के उद्देश्य से भी काम कर रही है। सत्ताधारी समाजवादी पार्टी ने चुनाव के दौरान ही अपने इरादे जता दिए थे कि वह सत्ता में आने के बाद वंचित जातियों की बजाय अपने चुनावी आधार वाली जातियों को प्राथमिकता देगी। इसे प्रमोशन में अनुसूचित जातियों/जनजातियों को आरक्षण के फैसले में देखा जा सकता है। यह बात किसी से छिपी नहीं कि वंचित जातियों और ग्रामीण पृष्ठभूमि के युवा अगर पढ़-लिख गए हैं तब भी वो तकनीकी ज्ञान और संसाधन के स्तर पर अन्य वर्गों की बराबरी नहीं कर सकते। ना तो उन्हें इंटरनेट प्रयोग करने का अनुभव होता है ना ही उससे आवेदन करने का पर्याप्त ज्ञान। इन संसाधनों का उनकी पहुंच में होना तो दूर की बात है। ऐसे में ढेर सारे युवा अपनी काबिलियत के बादजूद जटिल प्रक्रियाओं के जरिये वंचित कर दिए जाते हैं।
सरकारें एक तरफ नौकरियों के लिए आवेदन मांगाकर वाह-वाही बटोरती हैं तो दूसरी तरफ प्रक्रियाओं को जटिल बनाकर ढेर सारे काबिल युवाओं को हतोत्साहित और वंचित करती हैं। खाली शिक्षक के पदों की भर्ती के लिए उत्तर प्रदेश की पूर्ववर्ती सरकार ने भी आवेदन मांगए थे, लेकिन वह प्रक्रिया पूरी नहीं की जा सकी। उस समय आवेदन के लिए जो फीस वसूली गई थी उसे भी नहीं लौटाया गया। इस तरह की लूट को सरकारें या समाज कभी भी लूट के रूप में नहीं देखता। जबकि ऐसी प्रक्रियाओं के जरिये बेरोजगार युवाओं से करोड़ों रूपयों लूटे जाते हैं। इस तरह की लूट के खिलाफ जब तक न्यायपालिका कोई दखल ना दे, समाज में कहीं कोई आवाज भी सुनाई नहीं देती। कुछ छात्रसंगठनों के सीमित विरोध को छोड़कर चुनावों में युवाओं को लुभाने वाले सभी दल इस पर मौन हैं। इसी तरह तकनीक और प्रक्रियागत जटिलताओं के चलते वंचित होने को भी कोई राजनीतिक हलचल या असंतोष नहीं देखा जाता। कुल मिलाकर इसे युवाओं की कमजोरी और तकनीक न जानने के दुष्परिणाम को बतौर चिन्हित कर दिया जाता है। वंचित जातियों की राजनीति करने वाले भी ऐसे मुद्दों पर मौन रहते हैं, जबकि यह नए दौर की वंचनाएं हैं।

विजय प्रताप
संप्रतिः लेखक शोध पत्रिका जन मीडिया/मास मीडिया से जुड़े हैं।
संपर्कः सी-2, पीपलवाला मोहल्ला
बादली एक्टसेंशन, दिल्ली-110042
मो. 9015201208

मनोज को व्यवस्था ने डस लिया
विजय प्रताप

 पत्रकार मनोज कुमार कंधेर, फिलहाल  स्वास्थ्य संचार के क्षेत्र  से जुड़े थे
और स्वास्थ्य सेवा के अभाव में दम तोड़ दिया
मनोज कंधेर को मैं इस घटना से पहले नहीं जानता था, और जब जाना तब वो इस दुनिया में नहीं रह गए थे। उड़ीसा के बारगढ़ जिले के अपने गांव में छुट्टियां बिताने आए मनोज को नहर में नहाते समय सांप ने काट लिया। उन्हें जब इसका एहसास हुआ तो वह खुद मोटरसाइकिल से अस्पताल पहुंच गए, लेकिन वहां विषरोधी इंजेक्शन नहीं था, और उन्हें दूसरे अस्पताल जाने को कह दिया गया। वह दूसरे अस्पताल भी गए लेकिन वहां भी उन्हें इलाज नहीं मिल सका और अंततः वह तीसरे अस्पताल की तरफ बढ़े और रास्ते में ही बेहोश होकर गिर पड़े लोगों ने उन्हें जिला अस्पताल में भर्ती कराया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। हमारा और मनोज का रिश्ता बस इतना सा है कि हम दोनों एक ही संस्थान से पढ़े थे, लेकिन उनके जाने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मनोज का रिश्ता केवल मुझसे ही नहीं है उनके जैसे ही दर्दनाक परिस्थितियों में दम तोड़ने वाले 50 हजार अन्य भारतीयों से भी है।
मनोज की मौत भारतीय गांव-कस्बों की आम कहानी है। इसमें कुछ भी अलग नहीं है और आए दिन ऐसी घटनाएं देखने सुनने को मिलती हैं। लेकिन ये हमारी बहस या स्वास्थ सेवाओं की नाकामी के प्रतीक के तौर पर नहीं उभरती हैं। मनोज के बहाने हम यहां उन तकरीबन 50 हजार लोगों की बात करना चाहता हूं जो ऐसे ही सांप काटने और समय पर इलाज नहीं मिल पाने के कारण असमय मर जाते हैं। भारत में हर साल सांप काटने के करीब 2.5 लाख मामले दर्ज किए जाते हैं। भारत जैसे देशों में जहां सांपों से एक धार्मिक लगाव व डर दोनों है, ऐसी घटनाएं बहुत आम हैं। भारत में सांप काटने की घटनाओं पर प्रकाशित रिपोर्ट द मिलियन डेथ स्टडी के मुताबिक दुनिया में सांप के काटने से होने वाली हर तीसरी मौत भारत में होती है। रिपोर्ट में ऐसी मौतों का मुख्य कारण सांप काटने के बाद समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाना, अस्पतालों में विषरोधी दवा का उपलब्ध नहीं होना और आम ग्रामीण की पहुंच में इनका न होना बताया गया है। हालांकि भारत में ऐसी मौतें इस कदर जीवन का हिस्सा हो चली हैं कि कभी यह व्यापक चर्चा या रोष का विषय नहीं बन पाती। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के जरिये ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं पर 20,822 करोड़ रुपये खर्च किया जा रहा है, लेकिन हालात जस के तस हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के अस्पतालों में भी एंबुलेंस उपलब्ध कराने के दावा किया जा रहा है, लेकिन स्थिति यह है कि मनोज जैसे लोग जैसे-तैसे खुद चलकर अस्पताल आ भी जा रहे हैं तो उन्हें इलाज नहीं मिल पाता है। उत्तर प्रदेश में तब एनआरएचएम के तहत खरीदी गई करीब 600 एंबुलेंस धूल फांक रही जब इस घोटाले के अभियुक्त डॉ राजेश सचान की जेल में हत्या कर दी जाती है ताकि बड़े नेताओं और घोटालेबाजों के नाम सामने न आ सके। ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा के नाम पर मची इस लूट ढेर सारी निजी कंपनियों और नेताओं को लाभ पहुंचाया और ग्रामीण अस्पतालों की हालत में कोई बदलाव नहीं आया। गांव के अस्पताल की मरहम-पट्टी की तरह की मूलभूत जरूरत होती है कि वहां पर एंटी रेबीज-एंटी विनेमस (विषरोधी) दवाएं उपलब्ध हों, लेकिन सर्वे कर लें तो 80 फीसद ग्रामीण अस्पतालों में ये दवाएं नहीं मिलेंगी। निजी अस्पतालों में कई गुना मंहगें दामों पर कई बार ये दवाएं उपलब्ध भी होती हैं, लेकिन उनके लिए ही जो समय पर पहुंच जाएं और उनकी थैली भी हल्की ना हो।
हाल के वर्षों में जब से सरकारों ने जीवन के तौर-तरीकों के साथ हर एक चीज में पश्चिमी देशों का अनुकरण और निर्भरता को भारत की मजबूरी बना दिया तब से स्थानीय समाज में मौजूद चिकित्सा को तौर-तरीके भी हाशिये पर चले गए। इलाज से लेकर बीमारियों तक की प्राथमिकताएं विश्व स्वास्थ्य संगठन से निर्धारित होने लगी और अचानक चारों तरफ कभी एड्स तो कभी एचआईवी जैसी बीमारियां सुनाई देने लगी। इसके इलाज के नाम पर भी भारत में पिछले कुछ वर्षों में लगातार एक हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का बजट बनता रहा है, लेकिन काफी ढ़ूंढने के बाद भी सरकारी आंकड़ों में ये जानकारी नहीं मिल पाएगी की सांप काटने या कुत्तों के काटने पर होने वाले इलाज पर कितना खर्च होता। ऐसा नहीं है कि सांप काटने का इलाज केवल विषरोधी टीका ही है, लेकिन करोड़ों-अरबों रुपये फूंकने के बाद भी इलाज न देने वाली व्यवस्था ने परंपरागत इलाज के तरीकों को जरूर अवैध करार दे कर खत्म कर दिया। छोटे से देश नेपाल के दक्षिणी हिस्से में लोगों ने सांप काटने पर ग्रामीण स्तर पर ही समूह बनाकर इलाज के लिए केंद्र स्थापित किए और ऐसे मामलों में होने वाली मौतों को 10.5 प्रतिशत से घटाकर 0.5 प्रतिशत तक ले आया। क्या इस मामले में नेपाल हमारा लिए आदर्श नहीं हो सकता। लेकिन इससे बड़ी कंपनियों को घाटा होगा और भ्रष्ट नेताओं को कमाई का मौका नहीं मिलेगा। उड़ीसा सरकार हर साल भले ही 1597.16 करोड़ रुपये खर्च करती रहे लेकिन मैं उसे इसी रूप में जानता रहूंगा कि उस राज्य में मनोज जैसे प्रतिभाशीली नौजवान एक टीके के अभाव में दम तोड़ देते हैं।

संप्रतिः लेखक शोध पत्रिका जन मीडिया/मास मीडिया से जुड़े हैं।
संपर्कः सी-2, पीपलवाला मोहल्ला
बादली एक्टसेंशन
दिल्ली-110042