विजय प्रताप
न्यायिक सुधारों की
बात करते हुए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने न्याय की धीमी गति की ओर ध्यानाकर्षित
किया। इसके लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट के जरिये मामलों का तेजी से निपटारा किए जाने की
बात कही जा रही है। कई राज्यों ने फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित करने की पहल शुरू की
है। एक आंकड़े के मुताबिक इस समय निचली अदालतों और उच्च न्यायलयो में करीब 3.3
करोड़ और सुप्रीम कोर्ट के पास करीब 66 हजार मुकदमे लंबित हैं।
देशभर की अदालतों
में लाखों ऐसे मामले चल रहे हैं जिनकी सुनवाई 10-15 सालों से चल रही है। राष्ट्रीय
अपराध ब्यूरो के एक आंकड़े के मुताबिक देशभर की 1400 जेलों में करीब 3 लाख 77 हजार
कैदी हैं। इसमें से 77 फीसद कैदी विचाराधीन हैं। यानि की जिनके मुकदमें पर अभी
फैसला होना बाकी है और निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि इसमें सभी दोषी ही
साबित होंगे। दावे के साथ न्यायपालिका की धीमी गति की वजह से हजारों निर्दोष लोग
जेलों में सड़ रहे हैं। कुछ सालों पहले ये खबर आई थी की एक महिला ने 33 साल जेल
में गुजारने के बाद वहीं दम तोड़ दिया। अभी हाल में दिल्ली की एक अदालत ने एक
विस्फोट के मामले में पकड़े गए आमिर को 14 साल जेल में रहने के बाद निर्दोष करार
दिया। इन्हें न्यायपालिका की धीमी चाल का खामियाजा इस तरह से भुगतना पड़ा जिसकी
भरपाई कोई भी न्यायपालिका या सरकार नहीं कर सकती। सबसे बुरा तो यह कि इस बात का न
तो न्यायपालिका को कोई अफसोस होता है, ना पुलिस, ना सरकार को। सत्ता, कुछ फास्ट
ट्रैक कोर्ट शुरू करके न्यायपालिका में लोगों के विश्वास को बनाए रखना चाहती है। दरअसल
जिन मामलों में फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना हो रही है उनके पीछे कुछ छिपे कारण
भी हैं।
दिल्ली के हालिया
चर्चित रेप कांड के बाद आंदोलनों से घबराई सरकार ने इस मामले की सुनवाई के लिए फास्ट
ट्रैक कोर्ट की स्थापना कर दी। अब मामले की सुनवाई तेजी से हो रही है, और उम्मीद
की जा रही है कि महीने दो महीने में फैसला भी हो जाएगा। इसी तरह से कुछ चर्चित बम
विस्फोट की घटनाओं के बाद भी भारी जनआक्रोश को शांत करने के लिए उन मामलों के लिए
सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित कर दिए गए। घटना दर घटना लोगों की प्रतिक्रिया
और आक्रोश के तापमान के आधार पर सरकारों ने फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने के निर्णय
लिया जाता रहा है। दरअसल फैसले के वक्त जल्दी न्याय दिलाने की बजाय तत्कालीन
आक्रोश को शांत करना अहम कारण होता है। इस तरह से देखें तो ‘फास्ट ट्रैक कोर्ट’ और ‘जल्दी न्याय’ एक तरह से सरकार या सत्ता के हाथ की
कठपुतली की तरह हो गई है। इससे एक फायदा उन पीड़ित लोगों को मिलता है, जिन्हें एक
लंबी, पीड़ादायक और खर्चीली न्यायिक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता। सत्ता के लिए फास्ट
ट्रैक कोर्ट के जरिये न्याय दिलाने की इस सद्इच्छा के मूल में पीड़ितों सहजता से
न्याय देना नहीं है। अभी तक फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना के चलन से इस बात को
बखूबी समझा जा सकता है। सत्ता का यह दोहरा रवैया एक तरह से न्याय में समाहित
समानता के सिद्धांत को खंडित करता है। जिन लोगों के मामले किसी दबाववश फास्ट ट्रैक
कोर्ट में आ गए हैं उन्हें जल्दी न्याय मिलेगा और जिनके मामले सामान्य अदालतों में
चल रहा वो देरी के लिए मजबूर होंगे।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य
न्यायाधीश अल्तमस कबीर ने ऐसे केसों की एक सूची जारी की है जिनके मामले फास्ट
ट्रैक कोर्ट में प्राथमिकता के आधार पर सुनवाई के लिए स्वीकार किए जाएंगे। इसमें
उन मामलों को भी शामिल किया गया है जिसमें अभियुक्त जेल में बंद हैं। यह स्वागत
योग्य कार्यवाही है। इस तरह से न केवल जेल में बंद लोगों को राहत मिलेगी बल्कि मुकदमा
लड़ रहे लोगों को भी जल्दी न्याय मिल सकेगा। लेकिन इस तरह के फैसलों को निचली
अदालतों के स्तर पर भी लागू करने की जरूरत है। क्योंकि सबसे ज्यादा मामले निचली
अदालतों के पास ही लंबित हैं। निचली अदालतों में ही फैसले होने तक एक पूरी पीढ़ी
का समय गुजर जाता है।