असली आज़ादी की लड़ाई ज़रुरी



महाश्वेता देवी, सुप्रसिद्ध साहित्यकार


मेरे लिए तो आज़ादी के 60 साल काफी बेहतर रहे हैं। मैंने एक लेखक के बतौर काफी कुछ पाया है। देश में एक बड़ा वर्ग है, जिसमें मेरी पहचान बनी। देश-विदेश के पुरस्कार मिले। मेरा जीवन स्तर उंचा उठा लेकिन देश की हालत आज भी बद्दतर बनी हुई है।आज़ादी के 60 सालों में समस्यायें जस की तस बनी हुई हैं. जाति की समस्याएं वैसी ही हैं, भूमि सुधार का मसला अब भी उसी हालत में है, आदिवासियों की क्या हालत है, ये हम सभी के सामने है. बार-बार लगता है कि कहीं कुछ नहीं हुआ. बंधुवा मज़दूरों के मुद्दे पर मैंने लंबे समय तक काम किया लेकिन वह समस्या आज भी दूसरे रुप में बरकरार है. मेरे पास इलाहाबाद से, बंगाल के अलग-अलग इलाकों से लोग आते हैं कि दीदी, चलो उधर लड़ाई लड़नी है. आज भी मज़दूरों को सौ रुपए-डेढ़ सौ रुपए की मज़दूरी का लोभ दिखा कर ले जाया जाता है और उनसे ग़ुलामों की तरह काम लिया जाता है. बाद में ये मज़दूर किसी तरह अपनी जान बचा कर अपने घर लौट पाते हैं. 1976 में बंधुआ मज़दूर उन्मूलन अध्यादेश आया था लेकिन आज भी मज़दूर उसी तरह गुलाम है।

आदिवासी समाज समृद्ध

हाल के दिनों में जिस तरह स्पेशल इकॉनामिक ज़ोन का मुद्दा सामने आया है, उसके बाद तो मेहनतकश जनता का जीवन और मुश्किल हो जाएगा। छत्तीसगढ़ के जंगल और उसके आदिवासी कहां जाएंगे, क्या होगा, छत्तीसगढ़ के अलावा पूरे देश का आदिवासी समाज कहां जाएगा, ये आज का सबसे बड़ा संकट है।आदिवासी समाज को इसलिए निशाना बनाया जाता है, क्योंकि वह समाज हम सब से बहुत समृद्ध है. वह सांप्रदायिक नहीं है, वह समाज स्त्री-पुरुष में भेदभाव नहीं करता, विधवा के लिए वहां पुनर्विवाह की संस्कृति है और इस तरह की ढ़ेरों बातें हैं, जो उस समाज को हमसे कहीं अधिक समृद्ध बनाती हैं. अमरीका और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों पूरा देश बिक रहा है. पश्चिम बंगाल में कुछ हो रहा है, उसमें पूरे भारते के लिए संदेश है, इसे समझने की ज़रुरत है.

आरोप

इन सबों के खिलाफ जिस तरह जनता उठ खड़ी हुई है, उससे लगता है कि जनता में एक जागृति तो आई है। ऐसे में हम कह सकते हैं कि आज़ादी के 60 सालों में असली आज़ादी के लिए लड़ने की भूमिका तैयार हुई है और अब जनता को असली लड़ाई के लिए सामने आ जाना चाहिए। जनता का मतलब उस मेहनतकश समाज से है, जिसके बल पर ये देश चल रहा है. जो बौद्धिक वर्ग है, अब वह इस तरह की लड़ाइयों में सामने नहीं आता. वह केवल जनता की लड़ाई का लाभ लेता है. मैं जब भी लड़ाई की बात करती हूं, तो मुझ पर कोई ठप्पा लगा दिया जाता है. एक ज़माने में मुझे नक्सली कहा जाता था. उस समय मैंने बिरसा मुंडा पर एक किताब लिखी थी. जनता की लड़ाई जब भी लड़ी जाती है तो इस तरह की बातें होती ही हैं. मैं तो इन दिनों कहीं नहीं जाती, घर के अंदर रहती हूं. अपने घर में पढ़ती-लिखती रहती हूं और मेरे लिखने भर से अगर कोई शोषक डर जाता है, मुझे नक्सली या माओवादी या कोई और तमगा दे दिया जाता है, तो इसे मैं गौरव का विषय मानती हूं. और पढ़ें रविवार


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