पिछले दिनों न्यूयार्क में जिस तरह मशहूर शराब व्यापारी विजय माल्या ने जीवनपर्यन्त शराबबन्दी की मुहिम चलाने वाले महात्मा गांधी के सामानों के सबसे उंची बोली लगा कर खरीदा और उनकी स्वदेश वापसी करायी क्या वो एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना मात्र थी या वो एक खास तरह की सचेत कवायद जो इधर भूमंडलीकरण के दौर के साथ शुरु हुई है उसी का एक और सफल प्रयोग था। जिसका केंद्रीय विमर्श राज्य का सिर्फ एक फेसिलिटेटर होना और बाह्य विमर्श जनता द्वारा चुनी गई सरकार बनाम काॅरपोरेट है। यह पूरा प्रकरण इस कवायद का हिस्सा इसलिए भी लगता है कि हमारी सरकार के पास नौ करोड़ रूपयों का टोटा तो नहीं ही हो सकता था जिसके चलते वो नीलामी में खुद नहीं पहुंच पाई।
दरअसल पिछले दो दशकों से सुनियोजित और चरणबद्ध तरीके से राज्य को अक्षम साबित करने की जो मुहिम चल रही है उसी के तहत ऐसी घटनाओं को अन्जाम दिया जाता है। जिसमें किसी घटना विशेष के समय ऐसा माहौल बना दिया जाता है जिससे जनता को लगने लगे कि अगर विजय माल्या जैसे काॅरपोरेट नहीं रहते तो सरकार तो हमारी नाक ही कटवा देती। ऐसा करके जहां एक ओर काॅरपोरेट निगमों और उनके मालिकों को राष्ट्र उद्धारक के बतौर प्रस्तुत होने का मौका दिया जाता है वहीं सरकार की निकम्मी और अपने प्रतिस्पर्धी यानि निजी क्षेत्र के बड़े पूंजीपतियों के मुकाबले कमजोर और राष्ट्रीय अस्मिता के प्रति संवेदनहीन दिखने वाली छवि भी निर्मित की जाती है। इस सिलसिले में हम मीडिया खासकर इलेक्ट्रनिक चैनलों की भाषा, फुटेज और एंकर का सरकार के प्रति हिकारती उपमाओं भरा सम्बोधन और माल्या के प्रति देश को एक महान विपत्ति से निकाल लाने वाले महापुरूष वाले शाष्टांगी भावों को जैसे माल्या ने बचाई देश की लाज या माल्या नहीं होते तो क्या होता को याद कर सकते हैं।
एक ही साथ सरकार के अक्षम होने और काॅरपोरेट मालिकों के राष्ट्र उद्धारक होने की जो छवि निर्मित होती है उसमें एक ऐसा सामाजिक-राजनीतिक माहौल बनता है जिसमें नवउदारवादी एजेंडा एक झटके में ही काफी आगे बढ़ जाता है। मसलन अगर इसी प्रकरण में देखे तो जो विजय माल्या राजनीति और क्रिकेट में निवेश के बावजूद अपनी सुरा और सुंदरी प्रेम के चलते समाज के एक बड़े हिस्से में स्वीकार्य नहीं थे आज इस नीलामी के बाद अचानक राष्ट्रभक्ति के प्रतीक बन गए हैं। नवउदारवाद ऐसे ही राष्ट्रीय प्रतीक गढ़ना चाहता है, उसकी राजनीति इन्हीं प्रतीकों के सहारे आगे बढ़ती है।
लेकिन यहां गौर करने वाली और नवउदारवाद की कार्यनीति को समझने वाली बात यह है कि इस पूरे खेल को सरकार खुद रचती और अपने ही खिलाफ अपने कमजोर और अक्षम होने की छवि निर्मित करती है। ऐसा उसे रणनीतिक तौर पर इसलिए करना होता है ताकि वो अपने को काॅरपोरेट से तुलनात्मक रूप से कमजोर दिखाए और जनमत के एक बड़े हिस्से को जो अभी भी सरकार की तरफ हर मुद्दे पर उम्मीद भरी नजर से देखता है में अपने खिलाफ बहस खड़ी करके दूसरे पाले में सरकने का बाध्य कर दे।
इस पूरे प्रकरण में सरकार की इस रणनीति को साफ-साफ देखा जा सकता है। सरकार को बहुत पहले से मालूम था कि गांधी जी के सामानों की नीलामी होने वाली है, जिसका प्रचार पूरे जोर-शोर से इंटरनेट पर कई दिनों से चल रहा था। बावजूद इसके सरकार चुप्पी साधी रही और विजय माल्या जिनको आजकल देशभक्त बनने का दौरा चढ़ा हुआ है जिसके तहत उन्होंने कुछ सालों पहले ही इंग्लैंड की किसी संस्था से टीपू सुल्तान की तलवार भी खरीदी है को पूरा मौका दे दिया। नहीं तो क्या जो सरकार जनता की घोर नाराजगी के बावजूद अमेरिका से नैतिक-अनैतिक सम्बंध बनाने पर तुली हो उसके लिए इस नीलामी को अपने राष्ट्रहित में रूकवाना या अपने उच्चायोग के माध्यम से उसमें शामिल होना कोई मुश्किल काम था। दरअसल सरकार शुरु से ही इस खेल में माल्या को वाकओवर देने की रणनीति बना चुकी थी। जिसकी तस्दीक निलामी करने वाली एंटीएक्वेरियम आॅक्शन कम्पनी द्वारा औपचारिक तौर पर जारी बयान है कि भारत सरकार ने इन वस्तुओं की नीलामी रोकने का कोई अनुरोध नहीं किया था जिस आशय का ईमेल पत्र तुषार गांधी के पास सुरक्षित है। बावजूद इसके सरकार ने संस्कृति मंत्री से यह कहलवाकर अपनी और किरकिरी करवाई कि विजय माल्या उसी के कहने पर नीलामी में शामिल हुए हैं। जिससे विजय माल्या ने साफ इनकार करते हुए इस नूरा कुश्ती में सरकार को चित कर दिया। इस पूरे खेल में सबसे गौर करने वाली बात यह रही कि पक्ष-विपक्ष किसी भी राजनीतिक दल की तरफ से चुनावी मौसम होने के बावजूद सरकार के रवैये पर उंगली नहीं उठाई गई। ये करिशमा इसलिए संभव हुआ कि सभी पार्टियां इस नए तरह के सामाजिक-राजनीतिक चेतना को तैयार करने और उसके लिए राष्ट्रभक्ति का प्रतीक गढ़ने पर एकमत हैं। जिसके तहत उन सब ने मिलजुल कर विजय माल्या समेत उन जैसे कई प्रतीकों को बहुत पहले ही संविधान में संशोधन कर पिछले दरवाजे से संसद में बुला लिया है। इस पूरी प्रक्रिया से जो चेतना निर्मित होती है वो घोर अराजनीति और हर मसले के हल के लिए काॅरपोरेट की तरफ निहारने वाली होती है। जिसमें पूरे राजनीतिक व्यवस्था को नकारने की प्रवृत्ति कभी भी वीभत्स रूप अख्तियार कर सकती है। जैसा कि हम मुम्बई के ताज होटल पर हुए आतंकी हमले की प्रतिक्रिया में देख चुके हैं। जब मध्यवर्ग के एक प्रभावशाली तबके ने अपनी असुरक्षाबोध का ठीकरा सरकार पर फोड़ने के बजाय पूरे राजनैतिक ढांचे पर ही प्रश्नचिन्ह् लगाते हुए चुनाव में वोट न डालने की धमकी दे डाली।
विजय माल्या के राष्ट्र उद्धारक बनने की परिघटना इस प्रवृत्ति को और मजबूत करेगी। जिसकी परिणति जैसा कि कई देशों में हुआ है, एक ऐसे राज्य के स्वरूप में होगी जहां यह समझ पाना मुश्किल होगा कि उसे कोई सरकार चली रही है या काॅरपोरेट। दरअसल सरकार और काॅरपोरेट यही चाहते भी हैं।
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