बदलेगी ब्लाग की परिपाटी

शाहनवाज आलम

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने अपने महत्वपूर्ण फैसले में केरल के एक ब्लागर की रिट खारिज कर दी। याचिकाकर्ता ने अपने उपर एक राजनैतिक पार्टी द्वारा लगाए गए अपराधिक धमकी और किसी समुदाय के विश्वास को ठेस पहुचाने जैसे गंभीर आरोपों को खारिज करने की अपील की थी। उसका तर्क था की ब्लाग पर लिखे गए उसके शब्द सार्वजनिक नहीं थे बल्कि ब्लागर समुदाय के लिए लिखे गए थे। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद ब्लागर्स की दुनिया के एक हिस्से में जहां हड़कम्प मच गया है वहीं दूसरी ओर इसकी दिशा और दशा पर भी गंभीर बहस शुरु हो गई है।

दरअसल एक सशक्त वैकल्पिक मीडिया के बतौर उभर सकने वाले जनसंचार के इस नए अवतार पर हमारे यहां शुरु से ही अगंभीर और कुंठित लोगों ने कब्जा जमा लिया था। जिनके लिए ब्लाग सिर्फ अपनी निजी कुंठाएं परोसने और तू तू-मैं मैं करने का मंच बन गया। नहीं तो जिस ब्लागिंग ने अमरीकी साम्राज्यवादी मंसूबों और उसके अफगानिस्तान और इराक के मानव सभ्यता को नष्ट करने की नीति के खिलाफ जनता के बीच सबसे ज्यादा जनमत तैयार किया। यहां तक कि उसे सड़क पर उतरने तक को मजबूर कर दिया। उसमें अपने देश में भी जनता के सरोकारों से जुड़ने की असीम संभावना थी। हालांकि कुछ ब्लागर आम जनता से जुड़े सवालों को अपने यहां जरुर तरजीह देते हैं लेकिन उनके नितान्त व्यक्तिगत और गैरराजनैतिक दृष्टिकोण के चलते वो वैसा राजनैतिक-सामाजिक स्वरुप अख्तियार नहीं कर पा रहे हैं जैसा कि उनके अमरीकी और यूरोप के ब्लागर साथी कर रहे हैं। हालांकि इस समस्या को हम सिर्फ ब्लागिंग की समस्या मान कर इसे नहीं समझ सकते। हमें इसे व्यापक पत्रकारिता के संकटों से ही इसे जोड़ कर देखना होगा। क्योंकि यह उसी की उपज है। ऐसा इस लिए कि आज जितने भी ब्लागर्स हैं उनमें ज्यादातर पेशेवर पत्रकार हैं। जो इस दुहाई के साथ ब्लागिंग शुरु करते हैं कि वे अपने संसथान में मनमुताबिक काम नहीं कर पाते। लेकिन जब वे ब्लागिंग करने बैठते हैं तब भी मुख्यधारा की मीडिया की मनोदशा से बाहर नहीं आ पाते और उनका पूरा लेखन सतही और व्यक्ति केन्द्रित कुण्ठा का नमूना बन जाता है। इसी वजह से आज तक हमारे यहां कोई भी ब्लाग किसी सार्थक बहस की वजह से कभी चर्चा में नहीं आया। उपर से टीआरपी मानसिकता भी उन्हें ब्लागिंग को एक छछले और फूहड़ टैबलाइट के रुप में ही स्थापित करने को प्रेरित करती है। जिसके चलते गंभीर और राजनैतिक महत्व के मुद्दों पर बहस चलाने वाले ब्लागर्स ब्लाग की मुख्यधारा में नहीं आ पाते। वहीं ऐसे लोगों की एक बड़ी जमात अपने को इस फूहड़पने के चलते ब्लाग से दूर रहने में ही अपनी इज्जत समझता है।

इस रोशनी में देखा जाय तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला दूरगामी महत्व का है जिसका भविष्य की पत्रकारिता पर सकारात्मक असर पड़ना तय है। क्यों कि आने वाला दौर वेब मीडिया का ही है जिसकी साख का आधार उसके मुख्यधारा की मीडिया के सतहेपन के समानांतर खड़ा होना ही होगा।

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