राजीव यादव
कभी हिन्दुस्तान का लेनिनग्राद कहे जाने वाले पूर्वी यूपी में एक बार फिर से लाल झण्डे की ताकतें एक साथ मैदान में दिख रहीं हैं। लम्बे अरसे बाद ही सही कम्युनिस्ट पार्टियों के चुनाव में आ जाने से सांप्रदायिकता और अपराधीकरण से जूझ रही जनता को एक विकल्प मिल गया है। पर सीटों के तालमेल और चुनावी रणनीति को देख ऐसा नहीं लगता की ये अपने पुर्ननिर्माण के लिए आत्मालोचना करने को तैयार हैं। घूम फिर कर वही सवाल कामरेड तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?आगामी लोकसभा चुनाव में भाकपा 8, माकपा 2, भाकपा माले 12, आरएसपी 2 और फारवर्ड ब्लाक ने भी 2 उम्मीदवार अब तक घोषित किए हैं। जनसंघर्ष मोर्चा जिसे कुछ नीतियों और प्रयोगों के मतभेद के आधार पर भाकपा माले से अलग होकर अखिलेन्द्र सिंह ने बनाया था उसने अब तक कोई स्पष्ट उम्मीदवारों की घोषणा नहीं की है। इस बामपंथी गठजोड़ का पहला विवाद घोसी और गाजीपुर सीट को लेकर भाकपा और भाकपा माले के बीच पैदा हुआ। घोसी से अपनी दावेदारी वापस लेते हुए गाजीपुर सीट पर दोस्ताना संघर्ष की बात करते हुए भाकपा माले के पोलित ब्यूरो सदस्य व राज्य प्रभारी रामजी राय कहते हैं कि यूपी के बाहर भी जहां हमने सीटों का ताल-मेल किया है वहां भी कई जगह दोस्ताना संघर्ष की स्थित है जिस पर सभी तैयार हैं। ऐसे में हमें गाजीपुर में दोस्ताना संघर्ष करते हुए यूपी में भी एक साथ रहना चाहिए। दोस्ताना संघर्ष को नकारते हुए भाकपा के पूर्व सांसद विश्वनाथ शास्त्री कहते हैं कि हम जनता में कम्युनिस्ट पार्टियों के आपसी टकराव का कोई संदेश नहीं देना चाहते। और जहां तक गाजीपुर सीट का सवाल है तो वहां कई बार सरजू पाण्डे सांसद रहे और मैं खुद 95 तक यहां से सांसद था।गाजीपुर सीट ने कम्युनिस्टों के पूरे ताल-मेल को बिखेर कर रख दिया है। जहां भाकपा अपने सुनहरे अतीत को लेकर लड़ रही है तो वहीं दूसरी तरफ भाकपा माले अपने वर्तमान को लेकर मैदान में है। तो वहीं राबर्टसगंज और चन्दौली में भाकपा माले और जनसंघर्ष मोर्चा आमने सामने हैं। राबर्टसगंज और चन्दौली जहां नक्सल उन्मूलमन के नाम पर चल रहे दमन के खिलाफ लम्बे अरसे से लाल झण्डे की ताकतें लड़ रहीं थी। इन क्षेत्रों में माकपा और भाकपा का एक बड़ा जनाधार है जो चुनावों में भी दिखता है तो वहीं भाकपा माले ने पिछले एक दशक में अपने लिए यहां जमीन तलाशी है। ऐसे में भाकपा माले से अलग हुए जनसंघर्ष मोर्चा जिसका आधार क्षेत्र भी यही है, के चुनाव में आ जाने से दोनों आमने-सामने हैं। इन दोनों सीटों पर माकपा का जनसंघर्ष मोर्चा को दिए गए समर्थन की वजह से भाकपा माले काफी नाराज दिख रही है। उनका यहां तक मानना है कि अगर माकपा सचमुच लाल झण्डे की एकता चाहती तो वह ऐसा नहीं करती। फिलहाल माकपा इस समर्थन की बात को नहीं मान रही है। इन दोनों ही सीटों के विवाद का असर किसी दूसरी सीट पर नहीं दिख रहा है। माकपा केन्द्रिय कमेटी सदस्य और पूर्व सासंद सुभाषनी अली यूपी में सांम्प्रदायिक, आपराधिक गठजोड़ के खिलाफ वामपंथी एकता की वकालत करती हैं। लम्बे अरसे बाद आजमगढ़ से माकपा ने इसी रणनीति के चलते अरुण कुमार सिंह को मैदान में उतारा है तो वहीं भाकपा माले ने गोरखपुर में राजेश साहनी को मैदान में उतारा है। गोरखपुर के सांसद योगी आदित्य नाथ के खिलाफ लम्बे अरसे बाद प्रत्याशी उतार कर भविष्य में एक वामपंथी विकल्प देने की कवायद को साफ देखा जा सकता है। आजमगढ़ संसदीय सीट से लड़ रहे माकपा प्रत्याशी अरुण कुमार सिंह पूर्वाचल में कम्युनिस्टों के धरातल के खिसकने के लिए पार्टी की नीतियों को ही जिम्मेवार ठहराते हुए आत्मालोचना के अंदाज में कहते हैं कि सपा जैसी पार्टियों के साथ गठबंधन और चुनावों में खुद न लड़ना कम्युनिस्टों के लिए आत्मघाती साबित हुआ। आजमगढ़ जो आतंकवाद को लेकर पिछले दिनों राष्ट्ीय-अंतराष्टीय स्तर पर चर्चा में रहा की छवि को जिस तरह से बिगाड़ा गया वो एक सोची समझी साजिस थी। वे आगे कहते हैं कि जो लोग और जो पार्टियां इसे आतंकगढ़ के रुप में प्रचारित कर रहीं हैं उनको इस चुनाव में हम बेनकाब करेंगे।गौर किया जाय तो इस वामपंथी राजनैतिक गणित में माकपा के रणनीतिकारों ने अपने को काफी समयानुकूल बना लिया है। एक तो उन्होंने कम सीटों का चयन किया, जिससे भाकपा, भाकपा माले, जनसंघर्ष मोर्चा समेत लगभग सभी का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन उसे हासिल है। पर चुनावों में केवल दो सीटों पर ही माकपा प्रत्याशी को उतरना यह सन्देश साफ दे रहा है कि वह यूपी में आगामी लोकसभा चुनावों में अपने पुर्ननिर्माण को लेकर गम्भीर नहीं है और बंगाल के लाल दुर्ग से बाहर आने को बहुत उत्सुक भी नहीं दिखते। भाकपा और भाकपा माले का अधिक से अधिक और महत्वपूर्ण सीटों पर उम्मीदवार उतारना, उनके ठोस और दूरगामी रणनीति को दिखाता है। इस पूरे क्षेत्र में घोसी लोकसभा क्षेत्र कई पहलुओं से काफी महत्वपूर्ण है। यह पूरा क्षेत्र मउ के जिला बनने से पहले आजमगढ़ में ही था। वामपंथी नेता जय बहादुर सिंह और झारखण्डे राय के जमाने में यह लाल दुर्ग अभेद्य था। तकरीबन 62 से लेकर 84 तक इनका एकाधिकार रहा। आजादी के बाद जय बहादुर सिंह ने किसानों, मजदूरों, छात्रों और युवाओं की मजबूत गोलबंदी कर इस पूरे क्षेत्र को हिन्दी पट्टी का तेलंगाना बनाने का निर्णय लिया था। यही वजह है कि यहां की राजनीति ने कभी सांप्रदायिक ताकतों को उभरने का मौका नहीं दिया। जिसकी कोशिश लगातार भगवा ब्रिगेड ने यूपी गुजरात बनेगा, पूर्वांचल शुरुवात करेगा के नारों के साथ कर रहा है जिसे आजमगढ़ और मउ में बखूबी देखा जा सकता है। प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव जय प्रकाश धूमकेतु का कहना है कि चाहे वह आजमगढ़ हो या मउ इस धरती पर लोगों ने इतना वैचारिक कीचड़ होने ही नहीं दिया कि यहां कमल खिल पाए। लखनउ विश्वविद्यालय के चर्चित छात्र संघ अध्यक्ष रहे व घोसी से भाकपा के उम्मीदवार अतुल कुमार अंजान कहते हैं कि दरअसल इस पूरे क्षेत्र की आर्थिक रीढ़ जो बुनकरी पर टिकी है, जिसमें दोनों ही समुदायों के लोग एक दूसरे पर निर्भर है के टूटने से जो बेरोजगारों की फौज उपजी है उसे सांप्रदायिक शक्तियां सांम्प्रदायिक आधार पर मिलिटेंट बना कर राजनीति करना चाहती हैं, जिसकी खिलाफत वामपंथी एकजुटता करेगी। गौरतलब है कि ये पूरा क्षेत्र एक दौर में छात्रों-युवाओं के प्रगतिशील आन्दोलन का गढ़ था, जहां पर विश्वविद्यालयों के पढ़े लिखे उच्च शिक्षित नौजवान अपना कैरियर छोड़कर समाज परिवर्तन के आदर्श के साथ किसानों-मजदूरों के साथ धूल फांकते थे। लेकिन बावजूद इसके इन आन्दोलनों को नेतृत्व देने वाली वामपंथी पार्टियां कुछ तो अपनी रणनीतिक गलतियों और कुछ सांगठनिक कमजोरियों के चलते अपने पूरे जनाधार को कथित समाजवादियों को बटाई पर दे दिया, जिस पर बाद में उन्होंने कब्जा जमा लिया। लेकिन आज फिर से उस राजनैतिक जमीन की कीमत उन्हें समझ में आ रही है। बावजूद इसके अभी भी वो अपने को सांगठनिक रुप से सुदृढ़ करने और जनता से एकाकार होने के बजाय सिर्फ चुनावी दांव पेंच से ही अपनी मिल्कियत साबित करने में लगे हैं।बहरहाल भाकपा जो हाल-फिलहाल के दशकों में पूर्वांचल की जमीन से उखड़ी थी ने अपने ठोस जनाधार जहां वो पिछले चुनावों में ज्यादा लड़ाई में थी वहीं की सीटों का चुनाव उसकी राजनैतिक सूझ-बूझ को भी दर्शाता है। भाकपा माले जिसका आधार क्षेत्र इन्हीं पुरानी कम्युनिस्ट पार्टियों के क्षेत्र में ही है वो सीटों के ताल-मेल में भले एक साथ दिख रही पर वो इस चुनावी गणित में ‘फीलगुड’ नहीं महसूस कर रही है। एक तरफ जनसंघर्ष मोर्चा उसके सर का दर्द बना है तो वहीं दूसरी तरफ जब पुश्तैनी जमीन की बात हावी हो तो उसमें अपने को बनाए रखना भाकपा माले के लिए चुनौती है। इस पूरे वामपंथी चक्रव्यूह में निचले स्तर पर जहां लोग साथ दिखाई दे रहे हैं तो वहीं नेतृत्वकारी भूमिका के नेता इस ताल-मेल को लेकर स्पष्ट नहीं हैं। स्पष्टता न होने के चलते एक सीट को लेकर इस एकता का टूटना दिखाता है कि इस कथित मोर्चे की नींव में लगी ईटों में अभी भी अविश्वास की बहुत दरारें हैं। जिसकी तस्दीक भाकपा के वरिष्ठ नेता डा0 गिरीश करते हुए कहते हैं कि दिल के टुकड़े हजार हुए, कोई यहां धड़क रहा है, कोई वहां धड़क रहा है, जिसे जोड़ने के लिए एक अच्छे सर्जन की जरुरत है।
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