ठेंगे का लोकतंत्र
लोकतंत्र को अंगूठा दिखता एक आन्दोलन
राजीव यादव
द्वापर युग के एकलव्य की कहानी एक बार फिर से सोनांचल में लोकतंत्र के चैकीदारों ने दोहरायी। पूर्वी यूपी के सोनभद्र जिले की राबर्टसगंज लोकसभा सीट पर तेरह दलित-आदिवासी प्रत्याशियों का नामांकन अगंूठा निशान के चलते खारिज कर दिया गया। तो वहीं दूसरी तरफ 2001 की जनगणना के आधर पर हुए नए परिसीमन ने 2003 में अनुसूचित जाति का दर्जा पाने वाली आदिवासी जातियों से उनके चुनाव लड़ने का अधिकार पहले ही छीन लिया था। बहरहाल एकलव्य के वारिसों ने युगों से चली आ रही उनके अंगूठे की साजिश के खिलाफ समानांतर बूथ चलाकर ‘लोकतंत्र के हत्यारों पर चोट है, अंगूठा निशान ही हमारा वोट है’ का सिंघनाद कर चुनावों बहिस्कार कर दिया।
सोनांचल के चुनावी कुरुक्षेत्र में नामांकन खारिज होने के बाद भाकपा माले के ‘अंगूठा लगाओ, लोकतंत्र बचाओ’ समानांतर चुनाव आंदोलन ने अनपढ़ गरीबों को उनके चुने जाने के मौलिक अधिकार से वंचित करने वाले लोकतंत्र विरोधी तंत्र की नीद हराम कर दी है। माले के उम्मीदवार जीतेन्द्र कोल कहते हैं ‘हमारे दोनों महिला प्रस्तावकों ने अंगूठा निशान सहायक निर्वाचन अधिकारी के सामने लगाया था ऐसे में सहायक निर्वाचन अधिकारी की जवाबदेही बनती थी की वे अंगूठा निशान को अभिप्रामिणित करते।’ इस बाबत सोनभद्र के जिला निर्वाचन अधिकारी की भूमिका अदा कर रहे जिलाधिरी पंधारी यादव का कहना है कि खुद उन्हें भी अंगूठा निशान प्रमाणित करवाने के नए प्रावधान की पहले से जानकारी नहीं थी। नामांकन खारिज किए गए प्रत्याशियों ने जब विरोध करते हुए उन्हें जिम्मेदार ठहराया तो पन्धारी यादव ने धमकी भरे लहजे में कहा कि जो करना हो कर लो हाई कोर्ट ही जाओगे न, मेरा कुछ नहीं बिगड़ने वाला। इस स्वीकरोक्ति के बाद जहां होना तो ये चाहिए था कि जिलाधिकारी के विरुद्ध कार्यवाई हो पर उल्टे कार्यवाई प्रत्याशियों का नामांकन खारिज करने की हुई। इस पूरे क्षेत्र में कानूनी-गैरकानूनी का कोई मानक नहीं रह गया है। बगल की मिर्जापुर सीट पर हुए नामांकन में अंगूठा निशान को वैधता दी गयी है। आदिवासियों को सत्ता से दूर रखने की यह कोई नयी कवायद नहीं है। पांच लाख आदिवासी होने के बावजूद यहां कोई सीट आदिवासियों के लिए आरक्षित नहीं है। उत्राखंड के निर्माण के बाद राजनाथ सरकार ने कहा कि जो भी अनुसूचित जन जाति के लोग थे वे चले गए। आदिवासियों के असंतोष को देखते हुए 2003 की मुलायम सरकार ने गोड़, खरवार, चेरो, बैगा, पनिका, भुइया को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दे दिया। जबकि कोल, मुसहर, बियार, धांगर, धरिकार, घसिया जनजाति के आरक्षण की व्यस्था से महरुम रह गए। पिछले 2005 के पंचायत चुनाव में बहुतायत होने के बावजूद एक भी आदिवासी सीट आरक्षित नहीं की गयी थी। इस राजनैतिक चाल के चलते ये सभी जनजातियां चुनाव लड़ने से वंचित कर दी गयीं जिन्हें आदिवासी का दर्जा मिला था। उस दौर में भी समानांतर बूथ आंदोलन चलाकर आदिवासियों ने चुनाव बहिस्कार किया। कई गावों में तो दस-दस वोट पड़े। दुद्धी विधानसभा में बेलस्थी गांव में तो मात्र सात वोट पड़े जिसके आधार पर प्रधान से लेकर बीडीसी चुने गए। बहरहाल वही चाल मौजूदा सरकार भी चल रही है। 2001 की जनगणना के आधार पर 2008 में हुए नए परिसीमन में सुरक्षित सीट के चलते फिर से 2003 में अनुसूचित जनजाति का दर्जा पायी आदिवासी चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। ऐसे में देखा जाय तो अब 2011 की जनगणना के आधार पर 2028 में होने वाले परिसीमन तक ये चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। अब सरकारों की मंशा पर है कि वे कब इन पर ‘मेहरबान’ होंगी और विशेष पहल कर इनके लोकतांत्रिक अधिकारों को सुरक्षित करेंगी। आदिवासियों में सरकार के खिलाफ काफी रोष है कि अगर कोई बाहर से दस्तख़त कर के ले आए तो उसकी जांच नहीं की जाती और उनके लोगों का अंगूठा निशान अधिकारियों के सामने लगाने पर भी नहीं मान्य होता। मगरदहां की पुष्पा कहती हैं ‘जब हम अंगूठा छाप लोगों का वोट सरकार ले सकती है तो फिर हमारे लोगों को चुनाव लड़ने से क्यों रोकती है।’ घोरावल के बागपोखर समानांतर बूथ पर कड़ी लू भरी दुपहरिया में वोट देने आए शीतला गोड़ पूछने से पहले ही झल्लाते हुए कहते हैं कि हमरा अंगूठा लगवाकर हमारे बाप-दादा के जमाने की जमीन-जायदाद हमसे छीनने का अधिकार सरकार के पास है पर वही अंगूठा लगाने पर हमारे नेता का पर्चा खारिज कर देते हैं। साहब अगर अंगूठा निशान गलत है तब हमारे लोगों की जमीन सरकार और हराम खोर सूदखोरों को छोड़ देनी चाहिए। सोनांचल के इस इलाके में जहां-तहां ‘ये जमीन सरकारी है’ के बोर्ड दिख जाएंगे तो वहीं सामंत और सूदखोर मरने के बाद भी अंगूठा लगवा लेते है। जिसका ब्याज पीढ़ी दर पीढ़ी ये आदिवासी चुकाते हैं। पूरे लोकसभा क्षेत्र के तीन सौ से अधिक गांवों में चल रहे समानांतर बूथ आंदोलन के शबाब पर चढ़ते ही पुलिस ने सैकड़ो घरों पर छापेमारी और गिरफ्तारी शुरु कर दी। खरवांव, मगरदहां, तकिया, भवना, समेत दर्जनों गावों में सैकड़ो घरों पर छापेमारी के दौरान पुलिस ने खुलेआम आदिवासियों और दलितों को सरकार के पक्ष में वोट डालने का दबाव बनाया। पर्चा-वर्चा खारिज करना नाटक है कहते हुए मगरदहां के विजय कोल कहते हैं ‘सरकार चाहती है कि उसके पक्ष में वोट पड़े ऐसे में दलित- आदिवासियों के चुनाव लड़ने से उसके वोट बैंक में संेध लग रही थी तो उन्होंने पर्चा खारिज करवा दिया। अब अपने गुण्डों और पुलिस को भेज हमको धमकाया जा रहा है कि हम उनको वोट दें, नहीं तो नक्सलाइट कह कर हमारा एनकाउंटर कर देंगे। इस बात की चर्चा पूरे सोनभद्र में है क्योंकि संासद घूस काण्ड में बसपा के सांसद के पकड़े जाने के बाद हुए उपचुनाव में बसपा मात्र तीन सौ वोटों से जीती थी। जनप्रतिनिधियों और नक्सलवाद के नाम पर हो रही प्रशासनिक लूट के खिलाफ गुस्से को बढ़ता देख सरकार को यह अंदेशा था कि वह चुनाव हार जाएगी। चुनाव के नाम पर ऐसे हथककण्डे अपनाकर सरकार जनता के सवालों पर लड़ने वालों को रास्ते से हटाकर अपने खिलाफ उठ रही आवाजों को नक्सलाइट घोषित कर दमन करने की फिराक में है। सोनांचल में उपजे इस अंगूठा विवाद ने लोकतंत्र के कई स्याह पहलुओ से पर्दा उठाया है और नक्सल उन्मूलन के नाम पर पल-बढ़ रहेे सामंती नौकरशाहों का चेहरा बेनकाब किया है। ओबरा, राबर्टसगंज समेत पूरे क्षेत्र में पिछले दिनों पुलिस वाले गावों-गावों में जाकर आदिवासियों को शिक्षा से लाभ और नक्सलवाद से सचेत रहने का अभियान चलया था, इस अभियान में एसपी राम कुमार भी शामिल थे। ऐसे अभियान कितने कागजी होते हैं यह खुद-ब-खुद सामने आ रहा है कि जो सरकार लोगों को दस्तख़त करना नहीं सिखा सकती वो और क्या करेगी। सरकार के नक्शे में सोनभद्र के 266 गांव नक्सल प्रभावित हैं, जो हर पैकेज और प्रमोशन के बाद बढ़ते ही गए। सबसे हास्यास्पद बात तो ये है कि जिन्हें नक्सलाइट कहा जा रहा है उनका पूरा आंदोलन इसी पर टिका है कि जो पैकेज इस क्षेत्र के विकास के लिए आ रहा है वो कहां गायब हो रहा है। नक्सल उन्मूलन के नाम पर आ रहे पैसों की बंदर-बांट में तमाम सरकारी अधिकारी और नेता लिप्त हैं। बिना किसी जांच के, इनके ऐशो आराम को देख अनुमान लगाया जा सकता है कि आदिवासियों का विकास क्यों नहीं हो रहा है।
दरअसल इस पूरे इलाके में लोकतांत्रिक ढ़ग से चल रही आदिवासियों की जल-जंगल-जमीन की लड़ाई हमारी सरकारों की नजर में ‘देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए खतरनाक है।’ क्योंकि वे किसी भी कीमत पर अपनी जमीन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हवाले नहीं करेंगे। इनकी लंबे समय से मांग है कि गुलामी के दौर के 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून को राष्ट्रीय अपराध घोषित किया जाय। ऐसे में इस शोषित तबके से जब कोई स्वतःस्फूर्त नेतृत्व उभरता है तो वह सरकारों के लिए असहनीय हो जाता है। बहरहाल आदिवासियों का अंगूठा आंदोलन सरकार की हर दबंगई को ठेंगा दिखा रहा है।
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1 comment:
सच लिखा आपने, शोषण की ऐ राजनीति देश प्रदेश के कई हिस्सों में चल रही है। जहां निरिह और भोले-भाले आदिवासियों को छला जा रहा
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