विजय प्रताप
कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पी डी दिनकरण पर आय से अधिक संपत्ति रखने के आरोप ने न्यायापालिका पर एक बार फिर प्रष्नचिन्ह लगा दिया है। इससे पहले गाजियाबाद भविष्य निधि घोटाला मामले में उच्च न्यायालय के दस जजों सहित 32 जजों पर 23 करोड़ रूपए डकार जाने के आरोप लगे थे। हालांकि अभी तक सभी आरोपों पर अंतिम निर्णय आने बाकी हैं, लेकिन इन घोटालों ने आम जनता की नजरों में न्यायापालिका की छवि जरूर धूमिल की है।
भारत में जहां अभी तक लोग न्यायाधीशों को भगवान की तरह मानते थे, पिछले दो दशक में कई ऐसी घटनाओं ने इस अस्था को तोड़ा है। आजादी के बाद देश में जब लोकतंत्र और सहायक संस्थाओं का पुनर्गठन किया जा रहा था, उस समय किसी ने भी नहीं सोचा था कि न्याय करने वाला भी भ्रष्ट हो सकता है। इसीलिए संविधान में कार्यपालिका और विधायिका से जुड़े लोगों से संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करने को कहा गया लेकिन न्यायापालिका को इससे अलग रखा गया। तब से अब तक के सफर में न्यायालयों के निर्णय तो कई बार बदले , एक ही नियम की अलग-अलग तरह से व्याख्या कर निर्णय सुनाए गए लेकिन इसमें कहीं भी यह आरोप नहीं लगा कि पिछला निर्णय किसी के दबाव में लिया गया था। यह सिलसिला नब्बे के दशक में तब टूटा जब पहली बार उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश पर महाभियोग लाने जैसी स्थिति बन गई। जस्टिस वी रामास्वामी जिन पर 1993 में लोकसभा में महाभियोग प्रस्ताव लाया गया उन पर आरोप था कि उन्होंने पंजाब व हरियाणा में मुख्य न्यायाधीश के पद पर रहते हुए सरकार निधि का दुरूपयोग किया। कांग्रेस से उनकी नजदीकियों व दक्षिण भारतीय सांसदों के विरोध के चलते महाभियोग का प्रस्ताव पास नहीं हो सका, लेकिन बाद में रामास्वामी को इस्तीफा देना पड़ा। यह पहली घटना थी जिसने न्यायापालिका की शान पर बट्टा लगाया था। उसके बाद से न्यायापालिका पर ऐसे कई आरोप लग चुके हैं। यहां तक की पूर्व मुख्य न्यायाधीश एस पी भरूच को यह स्वीकार करना पड़ा कि उच्चतम व उच्च न्यायालयों में 20 प्रतिशत जज भ्रष्ट हैं। अब सवाल यह उठता है कि 20 प्रतिशत भ्रष्ट हैं तो क्या 80 प्रतिशत सौ फिसदी खरे हैं। अगर यह हाल उच्चतम व उच्च न्यायालयों का है तो निचली अदालतों का क्या हाल है। न्यायापालिका के गठन के समय उसे दूध का दूध व पानी का पानी करने वाली ईमानदार संस्था मानकर उसे जांच के दायरे से बाहर रखा गया था। न्यायापालिका पर लगातार उठते सवालों के बीच अब लोगों ने यह मांग करनी शुरू कर दी है कि जजों को भी संपत्ति घोषणा के दायरे में लाया जाए। न्यायाविद्ों की माने तो एक न्यायाधीश तभी तक न्यायाधीश होता है जब वह किसी दूसरे के मामले का फैसला कर रहा होता है। अपने मामले में किसी भी जज को फैसला करने का अधिकार नहीं है। जजों को दिया जाने वाला वेतन भी जनता के टैक्स से आता है, ऐसे में जनता को भी पूरा अधिकार है कि वह जान सके कि किस जज ने दूध से मलाई उड़ाई है।
जनता के इसी दबाव व न्यायापालिका की छवि को उज्ज्वल बनाए रखने के लिए सरकार को भी मजबूरन न्यायाधीश संपत्ति घोषणा व उत्तराधिकार अधिनियम 2009 लाना पड़ा। इस अधिनियम में भी सरकार पर अधिकार सम्पन्न जजों का दबाव साफ देखा जा सकता है। अधिनियम के उपनियम-6 में जजों को अपनी संपत्ति की जानकारी सरकार को देने का प्रावधान है। इसे सूचना अधिकार के दायरे से भी बाहर रखा गया है। मतलब साफ है कि सरकार की मंषा साफ नहीं है। यह स्थिति भी तब है जब जजों पर भ्रश्टाचार के आरोपों की सूची लगातार लंबी होती जा रही है। एक तरफ सरकार की यह स्थिति है तो दूसरी तरफ हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने खुद पहल करते हुए जजों की संपत्ति की घोषणा जैसा प्रंशसनीय कदम उठाया है। जरूरत है कि देश के बाकी न्यायालय भी जनता का विश्वास जितने के लिए ऐसे कदम उठाए।
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