इतिहास का एक पाठ
- विजय प्रताप
‘‘यह तब की बात है, जब भारत में अभी क्रांति के 60 साल ही पूरे हुए थे। देश में कई तरह की अलगाववादी शक्तियां अपने पैर जमाने लगी थी। ‘हिंदूलैण्ड लिबरेशन आर्मी’ अलग हिंदूलैण्ड बनाने, ‘मजलिस ए मुस्लिम’ जैसे संगठन अलग मुस्लिमस्तिान बनाने की मांग को लेकर सशस्त्र संघर्ष छेड़े हुए थे। इसके अलावा ‘‘सेव ब्रैहमिनिज्म’’ जैसा गैर सरकारी संगठन सनातनी-मनुवादी परम्परा को बचाए रखने के लिए लड़ रहे थे। लेकिन इन सबसे अलग उस समय देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती थे ‘विकासवादी’। तब देश के प्रधानमंत्री को भी स्वीकार करना पड़ा था कि ‘‘विकासवादी देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुके हैं।’’ समकालीन इतिहास की क्लास में एक प्रोफेसर महोदय, छात्रों को कुछ इस तरह से पढ़ा कम डरा ज्यादा रहे थे।
प्रोफेसर के पढ़ाने व डराने के अंदाज से छात्रों में भी एक सस्पेंस की स्थिति बन गई थी। एक छात्र ने उत्सुकता से पूछा -‘‘सर वो खतरा क्यों बन गए थे, वो तो विकास करना चाहते थे ना।’’ हां, लेकिन उनका विकास एक तरफा था। वह देश के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करने के बाद, बंदूक के रास्ते सत्ता पर भी कब्जा करना चाहते थे। देश के कई इलाकों में उनकी समानान्तर सरकारें चलती थी। उनकी ‘गुरिल्ला विकास आर्मी’ दिनदहाड़े कभी भी जंगलों से आदिवासियों को उजाड़ वहां विकास कर आती। एक तरफ वह घने जंगलों का सफाया कर रहे थे तो दूसरी तरफ नए सिरे से पेड़ लगाने के लिए ‘ग्रीन इंडिया’ का नारा देते। उनके प्रभाव वाले इलाकों में साम्यवादी सरकार पंगु हो गई थी। विकासवादियों का एक ही नारा था - ‘‘विकास का रास्ता बंदूक की नली से होकर गुजरता है’’। प्रोफेसर ने अंतिम वाक्य डराने के अंदाज में मोटी आवाज में कहा। लड़कों ने सवाल किया - ‘लेकिन सर कुछ ऐसा ही नारा चीन के महान क्रांतिकारी माओत्से तुंग ने भी तो दिया था।’ ‘‘हां, लेकिन माओ क्रांति के जरिए पहले सत्ता हासिल करने फिर सामाजवादी विकास की बात करते थे। उनके विकास मॉडल का अगुवा सर्वहारा था। जबकि विकासवादियों के मॉडल की अगुवाई पूंजीवाद कर रहा था।’’ प्रोफेसर ने उनकी उत्सुकता शांत की।
अब वह ब्लैक बोर्ड पर वंषावली नुमा कुछ चित्र बनाने लगे। ‘‘बच्चों विकासवाद एक विचारधारा है। दुनिया के कई देशों में इस विचारधारा को मानने वाली अलग-अलग नामों से कई पार्टियां हैं। उस समय भारत में इसकी अगुवाई भारत की विकासवादी पार्टी (कांग्रेसी) भारत की विकासवादी पार्टी (भाजपाई) और भारत की विकासवादी पार्टी (ना कांग्रेसी-ना भाजपाई) जैसे भूमिगत संगठन कर रहे थे। लड़कों के चेहरों पर उलझन की लकीरें दिखने लगती है। ‘नाम एक जैसा ही है तो ये अलग-अलग पार्टियां क्यों हैं?’ प्रोफेसर उनकी उलझन सहजता से दूर करने का प्रयास करते हैं -‘अरे बच्चों क्रांति से पूर्व भारत में कम्युनिस्ट पार्टियां भी तो कई थी।’’ वह फिर आगे बढ़ते हैं- ‘‘भारत की विकासवादी पार्टी (ना कांग्रेसी-ना भाजपाई) के कई धड़े थे, जो अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग नामों से काम करते थे। मसलन सपा, बसपा, तृणमूल, अकाली, अन्नाद्रमुक। इन सभी की विचारधारा एक थी, लेकिन कार्य पद्धति में थोड़े बहुत अंतर थे। भारत की विकासवादी पार्टी (कांग्रेसी) व भारत की विकासवादी पार्टी (भाजपाई) ज्यादा आक्रामक पार्टियां थी। बाद में इन दोनों के विलय से एक नई पार्टी का गठन होता है, भारत की विकासवादी पार्टी (पूंजीवादी)। यह पार्टी सशस्त्र तरीके से विकास की पक्षधर थी। इसका मानना था कि ‘इस देश के लोग सदा से जंगली रहे हैं। उन्हें सभ्य और विकसित बनाना है, तो सशस्त्र तरीके से उनका जबरदस्ती विकास कर देना होगा।’ भारत की विकासवादी पार्टी (ना कांग्रेसी-ना भाजपाई) के अन्य धड़े चोरी-चोरी, चुपके-चुपके विकास के पक्षधर थे।’’ लड़के जल्दी से इस वंषावली को अपनी कॉपियों में नोट करने लगते हैं।
‘‘तो असली खेल भारत की विकासवादी पार्टी (पूंजीवादी) के गठन के बाद शुरू होता है। यह पार्टी देश के खनिज संपदा वालों राज्यों में तेजी से अपना पैर पसारती है और वहां उनकी समानान्तर सरकारें चलने लगती हैं। उन्हें विदेशो से अन्य पूंजीवादी पार्टियां भी मदद करती है। उनकी शह पर आदिवासी बहुल इलाकों में विदेशी कम्पनियां एक के बाद एक एमओयू साइन कर वहां अपने कारखाने लगाने लगती हैं। जिस तरह अमेरिका पहले अफगानिस्तान-इराक पर हमला करता है, फिर वहां सेना लगाकर विकास करने की बात करता है, उसी तर्ज पर भारतीय विकासवादियों ने भी आदिवासियों पर हमले शुरू कर दिए थे। उनकी ‘गुरिल्ला विकास आर्मी’ ने झारखण्ड व छत्तीसगढ़ के तीन लाख आदिवासियों को उनके प्राकृतिक स्थलों से निकाल कर अपने कैम्पों में बसा दिया था। जल-जंगल-जमीन की तर्ज पर वह कल-कारखाने-पूंजी पर अपना पारम्परिक दावा जताते थे। हर हमले के बाद वह बंदूक के सहारे इन इलाकों की जमीने सेज बनाने व कारखाने लगाने के लिए पूंजीपतियों को सौंप देते। उनकी गुरिल्ला विकास आर्मी पूंजीपतियों के लिए रास्ता साफ करने का माध्यम बन गई थी। इतिहास में कई जगहों पर इसका जबर्दस्त प्रतिरोध भी देखने को मिलता है। नंदीग्राम, लालगढ़, कलिंगनगर में जनता खुद हथियार लेकर उतरती है और उन्हें पीछे हटने पर मजबूर करती है। दरअसल, विकासवादियों का अंतिम लक्ष्य, जबरन विकास के रास्ते इस देश पर पूंजीपतियों की सत्ता कायम करना था। दुनिया के अन्य पूंजीवादी राष्ट्रों ने मसलन अमेरिका व इजरायल ने इन्हें बड़ी मात्रा में हथियार व गोला बारूद की मदद दी, जिसके बल पर वह सीधे भारत की साम्यवादी सरकार से टकराने की स्थिति में आ चुके थे।’’ प्रोफेसर ने आखिरी लाइनें क्लास में चक्कर लगाते हुए फिर से मोटी आवाज में कही।
एक छात्र ने सवाल दागा - ‘सर इनके नेता कौन थे।’ प्रोफेसर जवाब देते हैं- ‘‘वैसे तो उनके पुराने नेताओं में जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी व राजीव गांधी का नाम प्रमुख है, लेकिन उसके बाद भारत की विकासवादी पार्टी (भाजपाई) के अटल बिहारी वाजपेयी ने भी उनके अंडरग्राउंड आंदोलन को तेजी से आगे बढ़ाया। जिस समय प्रधानमंत्री इन्हें देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए खतरा बता रहे थे, उस समय भारत की विकासवादी पार्टी (पूंजीवादी) के अंडरग्राउंड महासचिव थे मनमोहन सिंह। इसके एक नेता को मीडिया में बयान देने का बहुत शौक था। उसका नाम था - पी. चिदम्बरम। उस समय विकासवादी सशस्त्र आंदोलनों की अगुवाई वही कर रहा था। उसने लौह अयस्कों का खनन करने वाली कई कम्पनियों का आधे प्रतिशत से भी कम रॉयल्टी पर खनन का ठेका दे रखा था। अपनी हर कार्रवाई के बाद वह मीडिया में पिछड़े राज्यों में विकास के लिए ‘युद्ध’स्तर पर प्रयास करने की बात करता।’’ इस नेता के बारे में सुनकर पीछे की बेंच से एक लड़के ने उत्साह में सवाल किया - ’’सर जब वह युद्धस्तर पर विकास कर रहे थे, तो साम्यवादी सरकार उनके खिलाफ युद्ध क्यों छेड़े हुए थी। आखिर चीन में भी तो साम्यवादी सरकार है, लेकिन वहां भी तेजी से विकास हो रहा है।’’ लड़का विकासवादियों के बौद्धिक आंदोलन से प्रभावित लग रहा था। प्रोफेसर ने भी उसके रूख को भांप लिया और जोर से डांटा - ‘‘चीन की बात करते हो, कभी चीन गए हो। मैं वहां पांच साल रह कर आया हूं। वहां के विकास का मॉडल शोषण पर नहीं सर्वहारा के विकास पर आधारित है। आने-जाने को एक अक्षर नहीं चीन पर सवाल उठा रहे हैं।’’ प्रोफेसर के रूख से साफ था कि चीन पर सवाल उठाना उन्हें कत्तई पसंद नहीं आया। लड़के के पास चुप-चाप बैठ जाने के अलावा कोई चारा नहीं था। चीन का नमक खा चुके प्रोफेसर साहब बीच में पड़े व्याधान कुछ व्यथित हो गए थे।
दरअसल प्रोफेसर साहब भी उस दौर की पैदाइश हैं, जब देश में क्रांति के बाद युवाओं की एक पूरी की पूरी पीढ़ी बीजिंग, शघाई, वेनेजुएला और क्यूबा में बसने का सपना देखने लगी थी। इसमें बंगाल व केरल का बौद्धिक तबका सबसे आगे था। ठीक उसी तरह जैसे कभी पंजाब के युवा अमेरिका व आस्ट्ेलिया भागा करते थे, बावजूद इसके की वहां उन पर रंगभेदी हमले जारी थे। प्रोफेसर साहब ने भी साम्यवादी सरकार की मदद से अपनी उच्च शिक्षा बीजिंग में पूरी की। लेकिन वहां प्रोफेसर पद पर नियुक्ति के लिए एक कुलपति को रिश्वत देने की पेशकश के बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। वह तीन साल बीजिंग की एक जेल में रहे। बाद में भारत सरकार की ‘विदेशों में सड़ रही भारतीय प्रतिभाओं की घर वापसी अभियान’ के तहत सरकार के अनुरोध पर चीन ने इस प्रतिभाशाली छात्र को वापस भेज दिया। घर वापसी के बाद भी प्रोफेसर साहब की हेरफेर वाली खानदानी आदत नहीं गई और उन्होंने जेल में काटे गए तीन साल को वहां शोध में संलग्न बताकर एक विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हो गए। दरअसल उन्होंने सलेक्शन कमेटी के सामाने शोध का जो फर्जी प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया था वो चीनी भाषा में था, जिसे कमेटी का कोई भी मेम्बर पढ़ नहीं पाया। वैसे भी अपने यहां विदेश से लौट आने वाले छात्र देश पर एहसान होते हैं। उन्हें नौकरी नहीं देने का तो सवाल ही नहीं उठता। उस लड़के के चीन की बात छेड़ देने पर प्रोफेसर साहब को बरबस ही पुराने दिनों की यादों ने घेर लिया।
क्लास में शोरगुल सुन उनकी तंद्रा भंग हुई। लड़कों से ही पूछा - ‘तो हम कहां थे।’ पीछे से एक आवाज आई- ‘चीन’। स्टअप ! जोर से डांटते हुए वह दांत पीसने लगे। आगे की बेंच से उनके निर्देशन में शोध का आकांक्षी एक आज्ञाकारी छात्र ने उन्हें विकासवादियों के आंदोलन की याद दिलाई। सर ने उसे भी डांटते हुए कहा- ‘आंदोलन नहीं समस्या कहो। दोनों में फर्क है।’ वह एक बार फिर पूर्ववत शुरू हो गए -‘‘विकासवादियों की छापामार कार्रवाइयों से चिंतित होकर साम्यवादी सरकार ने उनके सफाए के लिए जन मुक्ति सेना के प्रयोग का निर्णय लिया। जिसके बाद सरकार के मंत्री, मीडिया में यह बयान देने लगे की ‘‘विकासवादियों के खिलाफ जन मुक्ति सेना का प्रयोग नहीं किया जाएगा।’’ मंत्रियों के इस बयान से नाराज सरकारपरस्त मीडिया ने जनमुक्ति सेना का प्रयोग नहीं करने पर सरकार की आलोचना करनी शुरू कर दी। उनके स्टूडियो में व अखबारों के मुख्य पेजों पर जन मुक्ति सेना से रिटायर्ड कमांडरों-एरिया कमांडरों की चीखे सुनाई देनी लगी। वह सरकार पर इस बात के लिए दबाव डालने लगे कि ‘देश की एकता, अखंडता व सम्प्रभुता के लिए खतरा बन चुके विकासवादियों के खिलाफ जन मुक्ति सेना का तत्काल इस्तेमाल किया जाना चाहिए। आखिर कब तक हम आदिवासियों की हत्या व विस्थापन का नंगा खेल देखते रहेंगे।’ तत्कालीन जनपक्षधर मीडिया ने निर्दोष आदिवासियों की हत्या व उन्हें उजाड़े जाने के खिलाफ विकासवादियों के आंतक के खिलाफ जमकर माहौल बनाया। जिसके आलोक में सरकार ने धीरे-धीरे जन मुक्ति सेना को उनसे लड़ने के लिए उतारना शुरू कर दिया।’’
इतना कह कर प्रोफेसर फिर चुप हो गए। लड़के सवाल भरी नजरों से उनका मुंह ताक रहे थे कि ‘आगे क्या हुआ?’ प्रोफेसर ने झल्लाते हुए जवाब दिया- ‘‘आगे अभी नहीं पढ़ा है। एक ही दिन में सारा इतिहास पढ़ लेना चाहते हो।’’ क्लास से निकलने से पूर्व उन्होंने चीन पर सवाल उठाने वाले लड़के को खड़ा करके कहा - ‘‘आइंदा से हमारी क्लास में ये चिदम्बरम के फोटो वाली टी-शर्ट पहनकर मत आना। वरना क्लास से बाहर कर दिए जाओगे।’’ लड़का अपने को बहुत उत्पीड़ित महसूस कर रहा था। उसके मन में बार-बार एक ही सवाल उठ रहा था ‘‘यहां चे ग्वेरा की टी-शर्ट पहन सकते हैं, तो चिदम्बरम की क्यों नहीं?’’
चेतावनी: यह अपने आप में एक अनूठा इतिहास जिसका किसी भी सत्य घटना या व्यक्तियों से कोई लेना देना नहीं है। लेकिन इसे मजाक कत्तई न समझे। जघन्य राष्ट्रवादियों को चेतावनी दी जाती है कि वह इसे न पढ़े। अगर गलती से इसे पढ़ लिया और गुस्सा आ रहा हो तो, कमेन्ट बॉक्स में जाकर अपनी भड़ास निकाल सकते हैं।
2 comments:
????????!!!!!!!
क्या भाई...गज़ब अंदाज़ में गज़ब ढ़ा रहे हो...
पसंद आया...
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