जंगल नहीं रहेंगे !

विजय प्रताप
राजस्थान में जंगलों पर गंभीर संकट मंडरा रहा है। एक तरफ़ यहाँ के जंगलों की अंधाधुंध कटाई हो रही है तो दूसरी तरफ़ कई क्षेत्रों में यह खनन माफियाओं की भेट चढ़ रहा है। प्रदेश का कोटा संभाग एसा ही क्षेत्र है जहाँ जंगलों पर अंधाधुंध अतिक्रमण और खनन हो रहा है। कोटा के दरा अभ्यारण्य को कई सालों से राष्ट्रिय उद्यान का दर्जा देने की प्रक्रिया चल रही है। लेकिन दूसरी तरफ़ बड़े पैमाने पर खनन भी हो रहा है. यहाँ के कीमती लाल पत्थरों को राज्य के बाहर भी भेजा जाता है. वन अधिकारीयों की मिलीभगत और स्थानीय नेताओं के संरक्षण में माफिया जंगल को समूल नाश पर तुले हैं. पिछले दिनों इसी मुद्दे पर राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित मेरी एक रिपोर्ट.

कोटा। एक तरफ दरा अभयारण्य को राष्ट्रीय उद्यान बनाने की कवायद चल रही है, दूसरी ओर दरा और आसपास के जंगलों में धडल्ले से अवैध खनन जारी है। खनन माफिया अवैध तरीके से अब तक करोडों रूपए का पत्थर बेच चुके हैं। वन विभाग और जिला प्रशासन इस ओर से आंखे मूंदे बैठे हैं। दरा, कनवास और मंडाना रेंज के तहत घने जंगल में तमाम अवैध खदानें चल रही हैं। यहां रोज दर्जनों ट्रॉली कीमती लाल पत्थर मंडाना और कोटा होते हुए अन्य जिलों में भेजा जा रहा है।
30 फुट गहरी खानें
राष्ट्रीय राजमार्ग-12 पर दरा स्टेशन से 2 किलोमीटर आगे सडक के दोनों ओर घना जंगल है। रोड के बार्ई ओर राजकीय वनक्षेत्र में सौ मीटर दूरी पर करीब आधा दर्जन खदानें में पत्थरों की खुदाई हो रही थी। हर खान में 5 से 7 मजदूर करीब 30 से 40 फुट गहरे गbे में पत्थर तोडते मिले।
हर जगह यही
सूरतदरा स्टेशन से आगे सुंदरपुरा, टीपण्या महादेव, जूनापाली, मशालपुरा, मुरूकलां, मंडाना से आगे रावंठा, रतकांकरा, मांदल्या समेत इलाके के कई गांवों में बडे पैमाने पर अवैध खनन चल रहा है। दरा स्टेशन के भगत कहते हैं, "आप यह पूछो कि जंगल में खनन कहां नहीं हो रहा। ये पूरे जंगल को ही साफ कर देंगे।"

मंदी के बहाने बेनकाब हिंदी मीडिया

अभिषेक श्रीवास्तव

ऐसा शायद भारतीय हिंदी मीडिया के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था. चाहे वे अखबार हों, पत्रिकाएं या खबरिया चैनल, छंटनी का अभियान चारों और धड़ल्‍ले से जारी है. जाहिर है पिछले एक दशक के दौरान भारत ने मीडिया का उभार बड़े पैमाने पर विदेशी पूंजी की खाद के सहारे होते देखा है. वही दौर बाजार में उछाल का गवाह भी रहा है. यह बात कई बार कही जा चुकी है कि उदारीकरण के दौर में जो निजी मीडिया अस्तित्‍व में आया, वह पूरी तरह बाजार से संचालित होता रहा है. लेकिन मीडिया के स्‍वयंभू झंडाबरदार खुद पर सवाल न लगे, इस कारण से इस तथ्‍य को झुठलाते रहे हैं.
अमेरिका के वॉल स्‍ट्रीट से शुरू हुई तथाकथित वैश्विक आर्थिक मंदी ने इस प्रस्‍थापना को सिद्ध कर दिया है कि मुख्‍यधारा का मीडिया पूरी तरह बाजार पर आधारित है और इसके कंटेंट से लेकर रूप तक सब कुछ बाजारू ताकतों के हितों को पुष्‍ट करता है. इस बात को समझने के लिए एक नजर पिछले आठ साल यानी 2000 से लेकर 2008 तक भारत में मुख्‍यधारा के मीडिया के विकास पर डाल लें और उसके बाद पिछले तकरीबन तीन-चार महीनों में यहां हुई छंटनी की वारदातों के बरअक्‍स रख कर देखें.
बात शुरू होती है पिछले साल अक्‍टूबर से, जब 'सियार आया-सियार आया' की तर्ज पर भारत में मंदी के आने का एलान किया गया. किसी को तब तक उम्‍मीद नहीं थी कि विनिर्माण और निर्यात के क्षेत्र को छोड़ कर बहुत बड़ा असर किसी अन्‍य उत्‍पादक या सेवा क्षेत्र पर पड़ेगा. लेकिन कम ही लोग यह समझ पा रहे थे कि तीन-चार साल पहले टाइम्‍स समूह द्वारा प्राइवेट ट्रीटी में निवेश का जो खेला शुरू किया गया था, उसकी मार अब दिखाई देगी. उस वक्‍त तमाम लोगों ने टाइम्‍स समूह के इस कदम की आलोचना की थी कि उसने निजी कंपनियों और निगमों में पूंजी निवेश के लिए एक कंपनी का निर्माण किया है, हालांकि कई ने यह भी कहा था कि भारतीय मीडिया में ट्रेंड सेटर तो यही प्रतिष्‍ठान रहा है और आगे चल कर कई अन्‍य मीडिया प्रतिष्‍ठान इसी की राह पकड़ेंगे. लिहाजा, बड़ी चोट टाइम्‍स समूह के कर्मचारियों को लगी जब टाइम्‍स जॉब्‍स डॉट कॉम और इस समूह के अन्‍य पोर्टल से करीब 500 लोगों से चुपके से इस्‍तीफा लिखवा लिया गया और खबर कानों-कान किसी तक नहीं पहुंची. इसके बाद दिल्‍ली के मीडिया बाजार में हल्‍ला हुआ कि यह समूह 1400 पत्रकारों की सूची तैयार कर रहा है जिनकी छंटनी की जानी है. यह महज शुरुआत थी. तब तक अन्‍य मीडिया प्रतिष्‍ठानों में छंटनी की कोई घटना नहीं हुई थी. अचानक पत्रकारों को नौकरी से निकाले जाने के मामलों की बाढ़ आ गई. अमर उजाला ने पंजाब में कई संस्‍करण बंद कर डाले. एक दिन रोजाना की तरह सकाल टाइम्‍स के करीब 70 कर्मचारी जब दिल्‍ली के आईटीओ स्थित अपने दफ्तर पहुंचे, तो उन्‍हें दीवार पर तालाबंदी की पर्ची चस्‍पां मिली. दैनिक भास्‍कर ने कई पत्रकारों को इधर-उधर कर दिया और जंगल की आग की तरह खबर फैल गई कि सियार आ चुका है. मंदी का सियार नवभारत टाइम्‍स में तब से लेकर अब तक करीब दस पत्रकारों को निगल चुका है. काफी जोश-खरोश से फरवरी 2008 में शुरू किए गए हिंदी के इकनॉमिक टाइम्‍स में आठ लोगों की सूची तैयार कर दी गई और तीन को बख्‍शते हुए पांच को उनके घरों का रास्‍ता दिखा दिया गया. ये सारे ऐसे डेस्‍क पर काम करने वाले नए पत्रकार थे जिनका वेतन शुरुआती पांच अंकों में था।
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साभार रविवार डॉट कॉम

न्यायपालिका के ताबूत में कील

विजय प्रताप

देश की न्यायपालिका पर आम लोगों को काफी विश्वास रहा है। लेकिन यह विश्वास अभी भी बरकरार है यह बात संदेह से परे नहीं कही जा सकती। खुद मैं अपने व्यक्तिगत जीवनचर्या में इस बात को महसूस कर चुका हूं कि धीरे-धीरे ही सही न्यायपालिका के निजीकरण का प्रस्तावना लिखा जाने लगा है। जिसे मैं अपने साथ हुई एक घटना के बाद समझ सका।
मैं रोज सुबह दस बजे घर से आफिस जाने के लिए निकलता हूं और रात करीब साढ।े दस बजे ही घर वापस लौटता हूं। निःसंदेह एक निजी संस्थान का कर्मचारी हूं। एक दिन इसी वक्त घर लौटा तो एक अजीब घटना से दो चार होना पड।ा। नौकरी की वजह से अपने घर से दूर राजस्थान के कोटा शहर में अपनी दीदी व जीजी के साथ रह रहा हूं। उस दिन जब घर लौटा तो दरवाजे पर दस्तक से पहले ही अंदर से कुछ आवाजें सुनाई दी। जैसे कोई महिला रो कर कह रही थी ''यह रोज शराब पीकर मुझे पीटते हैं मैं इनके साथ नहीं रह सकती।'' आवाज कुछ-कुछ मेरी दीदी की तरह ही लग रही थी सो एक अनजानी से घबराहट से घिर गया। मैं इस तरह के घटना की कल्पना भी नहीं कर सकता था। दीदी और जीजा के बीच इस तरह की कभी तकरार भी नहीं हुई। '' आप क्या चाहती हैं। इनके साथ नहीं तो क्या अकेले रहना पसंद करेगी।'' यह एक नई आवाज थी, जिसे पहले कभी नहीं सुना था। यह बात सुन मेरी घबराहट बढ। गई। मैनें तुरंत दरवाजे पर दस्तक दी। दरवाजा खुला तो रोज की तरह का ही नजारा सामने था। हाथ में रिमोट लिए कुछ निंदीयाई सी दीदी सामने खड.ी थी- 'और लेट आते'। रोज की झिड.की जिसे अब अनसुना करने की आदत हो गई है। अंदर देखा तो सारी तकरार टीवी में होते दिखी। दिल को बहुत सुकून मिला क्योंकि मैं हमेशा से ऐसे घरेलू झगड.ों से घबराता रहा हूं।

लेकिन टीवी पर जो नजारा था वो मेरे लिए बिल्कुल नया और एक तरह से सोचनीय भी था। टीवी पर एक कचहरी चल रही थी। पूर्व आईपीएस अधिकारी किरन बेदी जज के रूप में एक कुर्सी पर विराजमान थी। जिस महिला की आवाज मुझे दरवाजे के बाहर सुनाई दे रही थी वह और उसका पति किरन बेदी के सामने खड.े थे। 'आपकी कचहरी' प्रायोजक बाई फलां-फलां। तो कार्यक्रम का नाम था 'आपकी कचहरी'। इसमें आम जन के पारिवारिक व गैर आपराधिक मुकदमों की सुनाई होती है और आम सहमती से हल निकाला जाता है। पीडि.त पक्ष को नया जीवन शुरू करने के लिए कई बार यह कचहरी आर्थिक अनुदान भी देती है।
अब देखिए इस आपकी कचहरी से कितने लोगों को लाभ पहुंच रहा। मध्यवर्ग के लिए इससे अच्छा और क्या हो सकता है कि जहां आधे घंटे में उसके झगड।ों का निपटारा हो जाए और साथ में कुछ अनुदान भी मिले। फिर उसे इससे क्या मतलब कि इसके माध्यम से कार्यक्रम बनानी वाली कंपनी कितना विज्ञापन बटोर रही है। इसके दर्शक वर्ग में ज्यादातर वही मध्यवर्गीय लोग हैं जो अब सास-बहू के बनावटी धारावाहिकों से आजीज आ गए हैं। उन्हें सास-बहू, पति-पत्नी, व बाप-बेटे का झगडा जीवंत देखने को मिल रहे हैं। वैसे पहले से ही यह वर्ग दूसरे के घरों में होने वाले झगड.ों का रसास्वादन करने में आनंद की अनुभूति करता रहा है। कंपनी वाले विज्ञापन के माध्यम से पैसा पीट कर खुश हैं। और सालों से कचहरियों का चक्कर लगाने वाले लोगों के लिए तो यह किसी ऐतिहासिक घटना से कत्तई कम नहीं।

लेकिन ऐसे कार्यक्रम की केवल इतनी ही सच्चाई है कि यहां लोगों को जल्दी न्याय मिल रहा है या इसके पीछे भी कुछ है। आपकी कचहरी प्रसारित होने से पहले की पृष्टभूमि पर नजर डाले तो बातें कुछ ज्यादा स्पष्ट हो जाएगीं। पिछले कई दशकों से कचहरियों व न्यायपालिकाओं में आम लोगों के लिए न्याय मिलना दूर की कौड।ी साबित होता रहा है। गांव के लोग तो पुलिस कचहरी के चक्कर से बच निकले को जन्नत मिलने के बराबर मानते हैं। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है, कि इन संस्थाओं के प्रति लोगों में कैसी धारणाएं हैं। न्यायपालिका के यहां तक के सफर ठीक वैसे ही रहा है जैसे कि सार्वजनिक कार्यपालिका में भ्रष्टाचार। वर्तमान में सरकारी महकमों को बड।े पैमाने पर निजी हाथों में सौंपने की पृष्टभूमि भी कुछ इसी तरह से तैयार की गई थी। पहले भ्रष्टाचार व अफसरशाही को फलने-फूलने दिया गया फिर उससे निजात दिलाने के लिए उसे निजी हाथों में सौंप दिया। सो अब निजी कार्यालय लोगों को कथित रूप से अधिक तेज व आसान सुविधाएं प्रदान कर रहे हैं। लोकतंत्र के एक और महत्वपूर्ण स्तम्भ संसद में भी निजी कंपनियां व उद्योगपति तेजी से निवेश बढ।ा रहे हैं। राजनीति में व्याप्त भ्रश्ट्ाचार व गुंडई को दूर करने के लिए मध्यवर्ग के आदर्ष व्यक्ति राजनीति में कदम रखने लगे हैं या यूं कहें कि अवतार ले रहे हैं। सपा व अमर सिंह जैसे लोगों का गर्भ ऐसे लोगों को पालने के लिए हमेशा से उपलब्ध रहा है। अभी तो टाटा-अंबानी नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनावाने में जुटे हैं, लेकिन उस दिन कि कल्पना भी कोरी नहीं होगी जब नरेन्द्र मोदी जैसे लोग टाटा-अंबानी में देश का प्रधानमंत्री बनने के गुण तलाशेंगे। अपने को चौथा स्तम्भ कहने वाली मीडिया की यहां बात न ही कि जाए तो बेहतर होगा। उसकी बिकाउ दशा से सभी वाकिफ हैं।
ऐसे में न्यायपालिका एकमात्र ऐसी संस्था थी जहां न्याय पाना हमेशा से दूर की कौड.ी रही है लेकिन आम लोगों का विश्वास बना हुआ था। हांलाकि पिछले कुछ फैसलों ने ही तय कर दिया था कि निजी संस्थाओं के कितने दबाव में काम कर रही है। ऐसे में 'आपकी कचहरी' जैसे कार्यक्रम को इस न्यायपालिका के ताबूत में एक अहम कील कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसे भविष्य की निजी कचहरियों का ही एक रूप कहा जा सकता है। और ऐसा हुआ तो लोकतंत्र का एकमात्र मात्र बचा खम्भा भी ढहने को तैयार है।

जिम्मेदारी से मुंह न चुराए सरकार

आनंद प्रधान

राजधानी में रायसीना की पहाçड़यों पर स्थित नॉर्थ ब्लॉक में बैठे वित्त मंत्रालय के आला अधिकारियों को जैसे इस खबर का ही इंतजार था। केंद्रीय सांçख्यकी संगठन (सीएसओ) के अगि्रम अनुमान के अनुसार, चालू वित्त वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 7।1 प्रतिशत रहने की उम्मीद है। इस खबर के साथ ही वित्त मंत्रालय के आला अधिकारियों से लेकर योजना आयोग और प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति में वित्त मंत्रालय का कामकाज देख रहे प्रणब मुखर्जी के चेहरे तक पर खुशी, राहत और निश्चिंतता के भाव साफ देखे जा सकते हैं। वजह साफ है। हालांकि पिछले वित्त वर्ष (2007-08) में जीडीपी की नौ प्रतिशत की वृद्धि दर की तुलना में चालू वित्त वर्ष (2008-09) में 7।1 फीसदी की दर का अनुमान अर्थव्यवस्था की धीमी पड़ती रफ्तार की ओर ही संकेत करता है, लेकिन यूपीए सरकार के आर्थिक मैनेजरों का दावा है कि वैश्विक मंदी और वित्तीय संकट के बीच दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले भारतीय अर्थव्यवस्था का यह प्रदर्शन न सिर्फ संतोषजनक है, बल्कि वह दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। यही नहीं, इन मैनेजरों का यह भी दावा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था इस साल की दूसरी छमाही यानी अगले वित्त वर्ष (09-10) की दूसरी तिमाही से फिर गति पकड़ने लगेगी। इन दावों के पीछे छिपे संदेश स्पष्ट हैं। अर्थव्यवस्था के मैनेजरों का कहना है कि अर्थव्यवस्था के लिए चिंता करने की जरूरत नहीं है। वैश्विक मंदी के कारण अर्थव्यवस्था की रफ्तार कुछ सुस्त जरूर है, लेकिन स्थिति पूरी तरह से नियंत्रण में है। पर हकीकत इसके ठीक उलट है। ऐसे गुलाबी दावे करने के पीछे इन आर्थिक मैनेजरों की मजबूरी समझी जा सकती है। अगले दो-तीन महीनों में आम चुनाव होने हैं और यूपीए सरकार अपने आर्थिक प्रबंधन का ढोल पीटने से पीछे नहीं रहना चाहती। वह जीडीपी वृद्धि दर के ताजा आंकड़ों के आधार पर यह साबित करना चाहती है कि विपरीत और प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद उसने अर्थव्यवस्था को कामयाबी के साथ संभाला है। लेकिन अर्थव्यवस्था को लेकर यूपीए सरकार और उसके आर्थिक मैनेजरों की यह खुशफहमी और निश्चिंतता देश को भारी पड़ रही है। सरकार भले न स्वीकार करे, लेकिन सच यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था लगातार नीचे की ओर लुढ़क रही है। यहां तक कि जीडीपी को लेकर सीएसओ का अगि्रम अनुमान भी कुछ ज्यादा ही आशाजनक दिखाई देता है। रिजर्व बैंक और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अनुमानों को छोड़ दें, तो चालू वित्त वर्ष (2008-09) में जीडीपी की वृद्धि दर को लेकर अधिकांश गैर सरकारी और विश्व बैंक-मुद्रा कोष जैसे संगठनों और एजेंसियों के अनुमान पांच से 6।5 फीसदी के बीच हैं। यही नहीं, अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से आ रहे संकेतों से भी यह स्पष्ट है कि सरकारी दावों के विपरीत हमारी अर्थव्यवस्था न सिर्फ लड़खड़ा रही है, बल्कि गहरे संकट में फंसती दिख रही है। इसका सुबूत यह है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अपने ताजा अनुमान में वर्ष 2009 में भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर के सिर्फ पांच प्रतिशत रहने की आशंका व्यक्त की है। इस आशंका को इस तथ्य से बल मिलता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की तेजी में उल्लेखनीय योगदान करने वाले कई क्षेत्रों, जैसे निर्यात, मैन्युफैक्चरिंग, रीयल इस्टेट, वित्त एवं बीमा, सेवा तथा परिवहन-होटल व्यापार की हालत बहुत पतली है। खासकर मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र पर मंदी की सबसे तगड़ी मार पड़ी है। सीएसओ के अनुसार, चालू वित्त वर्ष में मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की वृद्धि दर पिछले वित्त के 8।2 प्रतिशत से गिरकर आधी 4।1 फीसदी रह जाने की आशंका हैं। ध्यान रहे कि पिछले अक्तूबर में औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर पिछले 13 वर्षों में पहली बार नकारात्मक हो गई थी। हालांकि अगले महीने नवंबर में उसमें मामूली सुधार दर्ज किया गया, लेकिन औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर में भारी गिरावट को जीडीपी की 7।1 प्रतिशत की वृद्धि दर से छिपा पाना मुश्किल है। अगर सरकारी आंकड़े को ही सही मानें, तब भी स्थिति कितनी भयावह है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले वर्ष की आखिरी तिमाही में हर दिन लगभग 5,434 श्रमिकों को छंटनी का शिकार होना पड़ा है। केंद्रीय वाणिज्य सचिव के अनुसार, पिछले साल अगस्त से दिसंबर के बीच 10 लाख श्रमिकों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा है और मौजूदा स्थितियों को देखते हुए मार्च तक पांच लाख और श्रमिकों पर छंटनी की गाज गिर सकती है। अर्थव्यवस्था की दिन पर दिन बदतर हो रही स्थिति का अंदाजा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि एक ओर लाखों श्रमिकों की नौकरियां जा रही हैं, तो दूसरी ओर, नए निवेश न होने के कारण नई नौकरियां पैदा नहीं हो रही हैं। देश में निवेश प्रोजेक्ट्स की निगरानी करने वाले संगठन प्रोजेक्ट्स टुडे के अनुसार, पिछले वर्ष दो लाख नौ हजार करोड़ रुपये से ज्यादा के करीब 420 नए प्रोजेक्ट या तो ठप हो गए या फिर ठंडे बस्ते में डाल दिए गए हैं।यही नहीं, केंद्र सरकार की कर वसूली में पिछले वित्त वर्ष (07-08) की तुलना में अक्तूबर में 13 प्रतिशत, नवंबर में 15 प्रतिशत और दिसंबर में 25 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। अगर इसके बावजूद यूपीए सरकार और उसके आर्थिक मैनेजरों को लगता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन संतोषजनक है और इस साल के उत्तराद्धü तक स्थिति बेहतर हो जाएगी, तो मानना पड़ेगा कि वे न केवल परम आशावादी हैं, बल्कि खालिस खुशफहमी में जी रहे हैं। निश्चिंतता की यह मुद्रा ओढ़ने के पीछे कहीं यह वजह तो नहीं है कि अर्थव्यवस्था की बिगड़ती स्थिति की सचाई स्वीकारने पर सरकार को उससे निपटने के लिए मैदान में उतरना पड़ेगा और जबानी जमाखर्च के बजाय ठोस उपाय करने पड़ेंगे? साफ है कि सरकार अपनी जिम्मेदारी से मुंह चुराने की कोशिश कर रही है। दरअसल, वह अब भी नव उदारवादी अर्थनीति की लक्ष्मण रेखा लांघने को तैयार नहीं है। उसके लिए अब भी मंदी से अधिक महत्त्वपूर्ण वित्तीय घाटे को काबू में रखना है। इसीलिए वह साहस के साथ नई पहलकदमी के लिए तैयार नहीं है और 7।1 फीसदी की वृद्धि दर को लेकर अपनी पीठ ठोंकने में जुटी हुई है।(लेखक आईआईएमसी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)

इजरायली उत्पादों का बहिष्कार करें !


इजराईल के खिलाफ फलस्तीनी जनता का साथ हम इस तरह से भी दे सकते हैं।


आइये इजरायली उत्पादों का बहिष्कार करें !

फलस्तीनी जनता के संघर्ष को धार दे !!

'सरकारी आतंकवाद' के खिलाफ पीयूएचआर ने सौंपी रिपोर्ट

उत्तर प्रदेश में पिछले दिनों आतंकवाद का खूब बोलबाला रहा. आतंकवाद से निपटने के लिए नए कानून लेन की तैयारी भी हो गई लेकिन बाद में मायावती सरकार ने मुसलमानों से रहमदिली दिखाते हुए कानून वापस भी ले लिया. लेकिन इस दौरान आतंकवाद से निपटने के नाम पर उत्तर प्रदेश एसटीएफ ने कई बेक़सूर मुस्लिम युवकों को फर्जी मुठभेड़ में मार गिराया तो कईओं को गिरफ्तार कर लिया. पीपुल्स यूनियन फॉर ह्यूमन राइट्स (पीयूएचआर) ने हर घटनों के बाद उसकी नए सिरे से जांच कर एसटीएफ की कहानियो को चुनौती देनी शुरू कर दिया. उद्देश्य केवल इतना की आतंकवाद का असली चेहरे उजागर हो और 'सरकारी आतंकवाद' बेनकाब. देश में शुरू से ही आतंकवाद से लड़ाई केवल राजनैतिक गुणा गणित का खेल रहा है. पीयूएचआर ने इसमे पिसे जा रहे लोगों के साथ अपनी एकजुटता जाहिर करते हुए अपनी जाँच रिपोर्टों के माद्यम से सरकार पर दबाव बनाए रखा. इन्ही दबावों के चलते पिछले साल मार्च में आजमगढ़ व कुछ अन्य जिलों में पंचायत समितियों के चुनाव के मद्देनजर आजमगढ़ व जौनपुर से उठाए गए तारिक, खालिद और सज्जाद की गिरफ्तारी के लिए जाँच बैठानी पड़ी. सेवानिवृत्त जज आर.डी निमेष को इस जांच का जिम्मा सौंपा गया है. १० फरवरी को पीयूएचआर ने जाँच आयोग के सामने २५० से भी आधिक पन्नों की रिपोर्ट रखी. इसका एक छोटा हिस्सा आप सभी के सामने है.
______________________

समक्ष-
निमेष जाँच आयोग,

सहकारिता भवन,

पंचम तल १४ डी.बी.आर.अम्बेडकर रोड

लखनऊ,उ0प्र0 ।

मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर ह्यूमन राइट्स (पीयूएचआर) की तरफ से हम अपनी जाँच पर आधारित दस्तावेज़ और उसके समर्थन में तथ्य प्रेषित कर रहे हैं कि उ0 प्र0 के कचहरी विस्फोटों में अभियुक्त बनाए गए मो0 तारिक कासमी पु़त्र श्री रियाज़ अहमद ग्राम सम्मोपुर, थाना रानी की सराय, जनपद आजमगढ़ को यूपी0 एसटीएफ ने 12 दिसम्बर 2007 दिन में लगभग साढ़े बारह बजे रानी की सराय, आजमगढ़ से उठाया था जिसे बाद में 22 दिसम्बर 2007 को बाराबंकी रेलवे स्टेशन के पास से सुबह 6।20 पर एसटीएफ ने गिरफ्तार करने का दावा किया है। सम्बन्धित दस्तावेज़ और तथ्य संलग्न तालिका 'अ' के अन्तर्गत है।

ठीक इसी तरह खालिद मुजाहिद पुत्र स्व. जमीर आलम, मोहल्ला महतवाना, कोतवाली मड़ियाहूं, जनपद जौनपुर(उ0 प्र0) को एसटीएफ ने 16 दिसम्बर 2007 को मड़ियाहूं बाजार से शाम 6 से साढ़े 6 बजे के बीच उठाया था। जिन्हें बाद में बाराबंकी रेलवे स्टेशन के पास से सुबह 6 बजकर 20 मिनट पर तारिक कासमी के साथ गिरफ्तार करने का दावा एसटीएफ कर रही है। संबन्धित दस्तावेज व तथ्य संलग्न तालिका 'ब' के अंतर्गत हैं।
तालिका 'स' में मानवाधिकार संगठनों द्वारा इस प्रकरण पर जारी रिपोर्टों, बयानों, पर्चों, व विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में छपी रिपोर्टें

'अ'


1- मो0 तारिक कासमी के दादा अजहर अली पुत्र मो0 अली ग्राम सम्मोपुर, थाना रानी की सराय, जनपद आजमगढ़ द्वारा थाना रानी की सराय आजमगढ़ में तारिक कासमी की गुमशुदगी की रिपोर्ट जो 14 दिसंबर 2007 को दर्ज करायी गयी। छाया प्रति संलग्न है।
2- तारिक कासमी की गुमशुदगी संबंधित पोस्टर जो पूरे जिले में 14 से 18 दिसंबर 07 के बीच लग गए थे। छाया प्रति संलग्न है।
3- तारिक कासमी को 12 दिसंबर 07 को एसटीएफ द्वारा रानी की सराय, शंकरपुर, चेकपोस्ट से थोड़ा आगे से उठाने के चश्मदीद गवाहों मो0 आमिर पुत्र नेसार अहमद, सलाउद्दीन पुत्र जैश, वीरेन्द्र सिंह पुत्र अवधेश सिंह, रामअवध चैरसिया पुत्र शंकर चैरसिया के हलफनामे । छाया प्रति संलग्न है।
4- तारिक कासमी को दिनांक 12.12.2007 को रानी की सराय, शंकरपुर, चेकपोस्ट से एसटीएफ द्वारा उठाए जाने की पुष्टी करने वाले लोगों के नाम व दस्तखत। छाया प्रति संलग्न है।
5- तारिक के दादा अजहर अली पुत्र मो0 अली ग्राम सम्मोपुर थाना रानी की सराय जनपद आजमगढ़ द्वारा माननीय मुख्यमंत्री उ0प्र0 को 14.12.2007 को भेजा गया पत्र। छाया प्रति संलग्न है।
6- तारिक कासमी के ससुर मौलवी असलम पुत्र अब्दुल कुद्दूस द्वारा राष्टिय मानवाधिकार आयोग को 19.12.2007 को भेजा गया पत्र। छाया प्रति संलग्न है।
7- 6 मार्च 2008 को राज्य सभा सदस्य श्री अबू आसिम आजमी द्वारा राज्य सभा में प्रश्नकाल के दौरान तारिक कासमी की फर्जी गिरफ्तारी का सवाल उठाया गया। एमसीएम-एसकेसी/एसक्यू/8-15 में कहा गया कि " उप्र के स्पीकर उसी इलाके के हैं, उनके पास भी लोग गए। स्पीकर साहब ने एसएसपी को फोन किया कि पता लगाओ। इस बारे में डीएम के पास, एसपी के पास, कचहरी में दस दिन तक खूब आंदोलन हुआ तथा अखबार में भी छपा कि उस व्यक्ति की किडनैपिंग हो गई है।" एक नेता ने कहाकि अगर पुलिस ने उसका 23 तारिख तक पता नहीं लगाया तो मैं उसी जगह पर जाकर आत्महत्या कर लूंगा। छाया प्रति संलग्न है।
8- तारिक कासमी के दादा अजहर अली ़द्वारा 18.12.2007 को जिला सूचना अधिकारी आजमगढ़ से माॅंगी गई सूचना कि क्या तारिक का अपहरण हुआ है अथवा पुलिस द्वारा किसी मामले में उठाया गया है।छाया प्रति संलग्न है।
9- 20.12.2007 को अजहर अली द्वारा सीजीएम आजमगढ़ को प्रस्तुत किया गया प्रार्थनापत्र। छाया प्रति संलग्न है।
10- नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी द्वारा 20.12.2007 को तारिक कासमी के अपहरण और पुलिस की निष्क्रियता के खिलाफ दिए गए धरने में माननीय मुख्यमंत्री उ0प्र0 को भेजा गया ज्ञापन। छाया प्रति संलग्न है।
11- 15.12.2007 को हिन्दुस्तान में 'लापता हकीम का तीसरे दिन भी नहीं लग सका कोई सुराग 'शीर्षक से छपी खबर ।छाया प्रति संलग्न है।
12- 17.12.2007 को आजमगढ़ में तारिक के अपहरण और पुलिस निष्क्रियता के खिलाफ चल रहे आंदोलनों की खबरें- अमर उजाला में 'लापता डाक्टर का सुराग नहीं, प्रदर्शन', हिन्दुस्तान में 'कासमी अपहरण काण्ड के खिलाफ नेलोपा का धरना', दैनिक जागरण 'अपहरण जनता सड़क पर।' छाया प्रति संलग्न है।
13- 18.12.2007 को आजमगढ़ में तारिक के अपहरण और पुलिस निष्क्रियता के खिलाफ चल रहे आंदोलनों की खबर हिन्दुस्तान में 'जारी रहेगा धरना।' छाया प्रति संलग्न है।
14- 19.12.2007 को हिन्दुस्तान में ' हकीम तारिक को जमीन निगल गयी या आसमान ' शीर्षक से छपी खबर में लिखा है- विदित हो कि सम्मोपुर निवासी डा.हकीम तारिक पुत्र रियाज का उस समय बदमाशों ने मार्शल गाड़ी से अपहरण कर लिया जब 12 दिस0 को वे अपनी बाइक से सरायमीर जा रहे थे। घटना पहले दिन जहां रहस्यमय बनी रही, वहीं पुलिस व परिजनों की जांच में अपहरण के दौरान प्रत्यक्षदर्शी रही महिलाओं व छात्रों से बातचीत की। अपहरण कर लिए जाने की पुष्टि होते ही परिजनों में हड़कम्प मचा ही साथ ही पुलिस भी हाफने लगी।.....एसओ का कहना है कि टीम गठित की गई है शीघ्र कामयाबी मिलेगी....। छाया प्रति संलग्न है।
15- 20.12.2007 को हिन्दुस्तान में 'हकीम अपहरण काण्डः दूसरी दिशा में घूमी जाॅंच प्रक्रिया' शीर्षक से छपी खबर में लिखा है कि- 'लखनउ की एसटीएफ टीम ने अपहर्ताओं की तलाश न कर अपहर्ता के घर पर बुधवार को छापा मारा।'
16- 21.12.2007 को तारिक अपहरण और पुलिस निष्क्रियता के खिलाफ चल रहे आंदोलनों की खबरें- हिन्दुस्तान 'हकीम अपहरण काण्डः नेलोपा ने कलेक्टी कचहरी पर दिया धरना', दैनिक जागरण 'तारिक की वापसी के लिए नेलोपा ने दिया धरना।' अमर उजाला 'कहाॅं है डाक्टर, पुलिस वाले अब भी पहेली बुझा रहे', 'चिकित्सक की रिहाई को लेकर सर्वदलीय धरना'। छाया प्रति संलग्न है।
उक्त समाचार पत्रों में छपे समाचारों की सत्यता का सत्यापन उनके संवाददाताओं को बुलाकर उनका बयान ले के किया जा सकता है।

'ब'


1- खालिद मुजाहिद के चचा मु0 जहीर आलम फलाही द्वारा 19.12.2007 दोपहर जिलाधिकारी जौनपुर, राष्टी्य मानवाधिकार आयोग, पुलिस महानिदेशक लखनउ व मुख्य न्यायाधीश उच्च न्यायालय को फैक्स द्वारा पत्र भेजा गया। छाया प्रति संलग्न है।
2- मु0 जहीर आलम फलाही द्वारा राष्ट्ीय मानवाधिकार आयोग को 26.06.2007 को भेजा गया पत्र जिसमें एक संदिग्ध व अज्ञात व्यक्ति जो खालिद के बारे में पूछताछ करता था, का जिक्र है । यही संदिग्ध व्यक्ति 18,19 दिसम्बर,2007 की रात यानि खालिद के मडियाहॅंू से उठाये जाने के दो दिन बाद और उसके बाराबंकी से गिरफ्तार दिखाये जाने के तीन दिन पहले पुलिस टीम के साथ खलिद के घर दी गयी दबिश में भी शामिल था। छाया प्रति संलग्न है।
3- खालिद को 16.12.2007 को मडियाहूॅं कें पवन टाकीज के पास मुन्नू चाट की दुकान पर चाट खाते हुए 6.30 बजे के आस पास असलहा धारी लोगों द्वारा उठाये जाने की पुष्टि करने वाले लोगों के नाम व हस्ताक्षर। छाया प्रति संलग्न है।
4- 17.12.2007 को अमर उजाला में 'एसटीएफ ने चाट खा रहे युवक को उठाया', हिन्दुस्तान में 'टाटा सुमो सवार लोगों ने युवक को उठाया' शीर्षक से छपी खबरें। छाया प्रति संलगन है।
5- 18.12.2007 को अमर उजाला वाराणसी संस्करण में छपी खबर 'एस0टी0एफ0 की हिरासत में हूजी के दो आतंकी' में कहा गया है ..... इसी प्रकार जौनपुर जिले के मड़ियाहू स्थित मदरसे में पढाने वाले एक अध्यापक को हिरासत में लिया गया है....। छाया प्रति संलग्न है।
6- 20.12.2007 को हिन्दुस्तान में 'लखनउ धमाकों के वांछित की तलाश,मडियाहूॅं में छापा', अमर उजाला में 'एसटीएफ ने युवक को उठाया', हिन्दुस्तान में 'लखनउ बम विस्फोट के वांॅंछित के तलाश में मड़ियाहूॅं में छापा।' छाया प्रति संलग्न है।
7- 21.12.2007 को हिन्दुस्तान में 'मड़ियाहू का खालिद तीन बार जा चुका है पाकिस्तान!' शीर्षक से छपी खबर भी खालिद को बाराबंकी से गिरफतार किये जाने के दावे को गलत साबित करती है। खबर में लिखा है ......... खालिद के चचा जहीर ने जानकारी दी कि पुलिस 16.12.2007 को ही खालिद को उठा ले गयी थी और जब वह थाने रिपोर्ट दर्ज कराने गये तो बताया गया कि ए0टी0एस0 ले गयी है, रिपोर्ट नहीं लिखी जा सकती है ....... । छाया प्रति संलग्न है।
8- 21.12.2007 अमर उजाला आजमगढ में छपी खबर 'एस0टी0एफ0 ने लिये दो और हिरासत में' भी इस बात की पुष्टि करती है कि खालिद और तारिक दोनों को 22.12.2007 को बाराबंकी से एस0टी0एफ0 ने गिरफ्तार करने का जो दावा किया है, वह गलत है तथा इन्हें मड़ियाहू व आजमगढ़ से ही उठाया गया था। खबर कहती है ........' लखनउ पुलिस ने जौनपुर के मड़ियाहू थाने के मुहल्ला महतवाना निवासी खालिद और आजमगढ के मु0 तारिक कासमी को संदेह के आधार पिछले दिनों हिरासत में लिया था ......। छाया प्रति संलग्न है।
9- 22.12.2007 को अमर उजला 'आतंकियों के संपर्क में था मोैलाना खालिद' शीर्षक से छपी खबर में लिखा है ...... आई0बी0 की रिपोर्ट पर ही एस0टी0एफ0 ने पीछा किया, यह भी कहा जा रहा है कि 16.12.2007 को खालिद को कस्बे की चाट की दुकान से उठाया गया। छाया प्रति संलग्न है।
10- 20.12.2007 को हिन्दुस्तान में 'जनपद में ही मौजूद हैं आतंकी संगठन हूजी के संचालक' शीर्षक से छपी खबर में लिखा है कि .......एसटीएफ कड़ी सुरागरसी के बाद एक सप्ताह पूर्व ही खालिद को कस्बंे से राह चलते उठा लिया था । छाया प्रति संलग्न है।
उक्त समाचार पत्रों में छपे समाचारों की सत्यता का सत्यापन उनके संवाददाताओं को बुलाकर उनका बयान ले के किया जा सकता है।

'स'


1- मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फार ह्यूमन राइटस द्वारा राष्ट्ीय मानवाधिकार आयोग को खालिद मुजाहिद व तारिक कासमी के संबंध में भेजे गये पत्र की प्राप्ति सहित प्रति। छाया प्रति संलग्न है।
2- उ0प्र0 अल्पसंख्यक उत्पीड़न विरोधी कानूनी अधिकार मंच द्वारा केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री श्री श्रीप्रकाश जायसवाल को 06.09.2008 को दिया गया पत्र । छाया प्रति संलग्न है।
3- उ0प्र0 अल्पसंख्यक उत्पीड़न विरोधी अधिकार मंच व इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन की तरफ से 01.06.2008 को हाईकोर्ट परिसर में आयोजित कार्यक्रम का पर्चा जिसमें खालिद व तारिक मामले का जिक्र है । छाया प्रति संलग्न है।
4- पीपुल्स यूनियन फार ह्यूमन राइटस की जाॅंच दल द्वारा तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद के घर व आसपास की गयी गहन छानबीन के बाद अखबारों में छपी बयानों की कतरने। छाया प्रति संलग्न है।
5- पीपुल्स युनियन फार ह्यूमन राइट्स द्वारा उ0प्र0 कचहरी बम धमाकों में निर्दोष व्यक्तियों खालिद व तारिक की गिरफ्तारी के खिलाफ इलाहाबाद में आयोजित जनसुनवाई जिसकी अध्यक्षता इलाहाबाद हाईकोर्ट के सेवा निवृत्त न्यायाधीष श्री रामभूषण मेहरोत्रा ने की थी,की खबरे। छाया प्रति संलग्न है।
6- विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में खालिद और तारिक की फर्जी गिरफतारी के संदर्भ में छपी रिपोर्टे-तहलका,प्रथम प्रवक्ता, दस्तक। छाया प्रति संलग्न है।
उक्त सभी समाचारों का सत्यापन सम्बंधित समाचार पत्रों के संवाददाताओं तथा पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों एव लेखकों के बयान ले कर किया जा सकता है। जिनका पता, पत्र एवं पत्रिकाओं के सम्पादकों से प्राप्त हो पाना संम्भव है।

लखनऊ,
दिनांक- 10 फरवरी 2009

द्वारा-
लक्ष्मण प्रसाद, शाहनवाज आलम, राजीव यादव
सदस्य कार्यकारिणी समीति,उ0 प्र0
पीपुल्स यूनियन फार ह्यूमन राइट्स (पीयूएचआर)
632/13 शंकरपुरी कमता पो0 चिनहट
लखनऊ उ0प्र0

पीयूएचआर की और रिपोर्ट देखें नई पीढी

क्यूबा-कास्त्रो को लाल सलाम !!

क्यूबा की क्रांति के पचास साल ऐसे अहम दौर में पूरे हुए हैं, जबकि पूरी दुनिया में कथित तौर पर मंदी छाई है. पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और उसके पैरोकार एक बार फ़िर मार्क्स की 'पूँजी' के पन्ने पलट रहे हैं. ऐसे दौर में क्यूबा उनके लिए लाइट टॉवर की तरह है. क्यूबा की क्रांति को शिवराम अपना सलाम पेश कर रहे हैं. शिवराम ख़ुद भी बड़े मार्क्सवादी विचारक और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड) के पोलित ब्यूरो सदस्य है. राजस्थान के कोटा शहर के रहने वाले शिवराम एक कुशल संगठनकर्ता के साथ-साथ रंगकर्मी व साहित्यकार भी हैं.

- शिवराम
क्यूबा की क्रांति को 50 वर्ष पूरे हो गए हैं। क्यूबा समाजवादी व्यवस्था की श्रेष्ठता का जीता जागता मिसाल है। समाजवाद की मिसाल तो सोवियत संघ व दूसरे यूरोपीय देशों ने भी बनाई, लेकिन वे इसे कायम नहीं रख सके। पंूजीवादी षडयंत्रों ने उन्हें लील लिया। यद्यपि समाजवादी व्यवस्था की श्रेष्ठता उन्होंने भी सिद्ध की।
क्यूबाई क्रांति के एक साल बाद ही क्यूबा से अशिक्षा नाम की चीज बिल्कुल खत्म हो गई। क्रांति के तुरंत बाद ही प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर तक की शिक्षा मुफ्त कर दी गई। आज क्यूबा में दुनिया के किसी भी देश से प्रति व्यक्ति शिक्षकों की संख्या ज्यादा है। क्यूबा ने क्रांति के ठीक बाद जो जन साक्षरता अभियान चलाया, वह सारी दुनिया के लिए उदाहरण बन गया।क्यूबा की कम्युनिस्ट पार्टी की समझ रही है कि सामाजिक बराबरी के लिए सबसे महत्वपूर्ण औजार शिक्षा है। इसी प्रकार क्यूबा की स्वास्थ्य रक्षा व्यवस्था दुनिया के लिए उदाहरण है।
क्यूबा की क्रांतिकारी सरकार ने शिक्षा व स्वास्थ्य को अपने कार्यक्रम में अहम दर्जा दिया। क्यूबा में हर एक लाख लोगों पर 591 डाॅक्टर हैं। यह दुनिया का सबसे बड।ा अंाकडा है। अमेरिका में यह संख्या एक लाख लोगों पर 256 ही है। 2006 के आंकड़ों के मुताबिक शिशु मृत्यु दर 1000 प्रसवों पर मात्र 5 3 है। अमेरिका में यह दर इससे काफी उॅंचा है। भारत जैसे देषों की तो बात ही छोड़िए। क्यूबा में क्रांति से पूर्व शिशु मृत्यु दर इससे दस गुना ज्यादा था। क्यूबा में औसत आयु 78 वर्ष है। क्रांति से पूर्व यह 58 वर्ष था। दूसरे लैटिन अमेरिकी देशों में आज भी शिशु मृत्यु दर क्यूबा से दस गुना ज्यादा है। महिला सशक्तिकरण क्यूबा क क्रांति की एक और बड़ी सफलता है। क्यूबा की कुल श्रमशक्ति में महिलाओं की संख्या 40 प्रतिशत है। तकनीकी श्रम शक्ति में तो महिलाओं की संख्या 66 प्रतिशत है। क्यूबा की राष्टीय एसेम्बली में 36 प्रतिशत महिलाएं है। खेलकूद और कला संस्कृति की दुनिया में क्यूबा की उपलब्धियां दुनिया भर के लिए इर्ष्या का विषय है।
सोवियत संघ के पतन के बाद क्यूबा-क्रांति को भारी संकट का सामना करना पड़ा। एक ओर साम्राज्यवाद ने नाकेबंदी सहित तमाम षड़यंत्र क्यूबाई क्रांति को नेस्तोनाबूद करने के लिए किए तो दूसरी ओर क्यूबा से पूर्व समाजवादी देशों को बड़े पैमाने पर निर्यात होता था, अब वह भी बंद हो गया। पूरी अर्थव्यवस्था संकट में आ गई। क्यूबा का 85 प्रतिशत व्यापार समाजवादी शिविर देशों से था। 1993 में क्यूबा की अर्थव्यवस्था में 39 प्रतिशत की गिरावट आ गई थी। दुनिया के पूंजीवादी भविष्यवक्ता क्ूयबाई क्रांति का मर्सिया पढ़ने की तैयारी कर रहे थे। लेकिन क्यूबा के श्रमजीवी जन-गण ने अपनी क्रांतिकारी सरकार के नेतृत्व में फिर करिश्मा कर दिखाया।2005 तक क्यूबा की अर्थव्यवस्था वापस अपनी पुरानी स्थिति में लौटने बढ़ने लगी। एक बात जो बहुत महत्वपूर्ण है कि सोविय संघ के पतन के बाद के वर्षों में जब क्यूबा की अर्थव्यवस्था संकट में फंस गई, तब भी क्यूबा की सरकार ने जनता की मूलभूत आवश्यकताएं, जो क्यूबाई क्रांति की चार प्राथमिकताओं के नाम से जानी जाती है जारी रखी। ये हैं- १. मुफ्त स्वास्थ्य सेवा २. मुफ्त शिक्षा ३. सभी के लिए सामाजिक सुरक्षा और ४. सभी के लिए आवास।
क्रांति ने क्यूबा में जो एक और बड़ा काम किया वह है- नस्लवादी विचारों व भावनाओं का खात्मा। क्रांति से पहले क्यूबा में नस्ली पूर्वाग्रह बहुत था। इस क्षेत्र में क्यूबा में दास प्रथा सबसे बाद में समाप्त हुई थी। क्यूबा की क्रांतिकारी सरकार ने क्रांति के फौरन बाद आधारभूत भूमि सुधार लागू किया और आवासविहीन लोगों को आवास उपलब्ध कराए। इस तरह हाशिये पर पड़ी अश्वेत आबादी को सुरक्षाव सम्मान दोनों उपलब्ध कराया। शिक्षा के प्रसार ने हीन बोध से मुक्त किया और उनकी गरिमा स्थापित की। क्यूबा की कम्युनिस्ट पार्टी ने क्रांति के ठीक बाद पूरे देश में नस्लवाद के विरुद्ध विचारधारात्मक अभियान चलाया। उसने अफ्रीकी देशों का भी नस्लवाद उपनिवेशवाद से लड़ने में सहयोग किया। सत्तर व अस्सी के दशक में अफ्रीकी देशों के मुक्ति आंदोलनों तथा प्रगतिशील सरकारों की क्यूबा सरकार व कम्युनिस्ट पार्टी ने महत्वपूर्ण मदद की। अल्जीरिया की मोरक्कों के आक्रमण के समय सैनिक मदद की । कांगो के मुक्ति के योद्धाओं के संघर्ष में तो चेग्वेरा अपने साथियों सहित खुद शामिल हुए । अंगोला, मोजाम्बिक, केप वर्दे व नामीबिया जैसे देशों की आजादी के लिए चले संघर्षों में क्यूबा ने आगे बढ़कर मदद की। उसने दक्षिण अफ्रीका से रंगभेद के खात्मा व विऔपनिवेशिकरण की प्रक्रिया में प्रभावशाली भूमिका निभाई।क्यूबा की क्रांतिकारी सरकार ने सर्वहारा अंतर्राश्ट्ीयतावाद का झंडा जिस मजबूती से थामे रखा वह बेमिसाल है। एशिया, अफ्रीका व खासकर लैटिन अमेरिकी देषों में उसने राश्ट्ीय मुक्ति आंदोलन के लिए प्रेरणास्पद सहयोग किया। अभी भी क्यूबा के 30 हजार से अधिक डाॅक्टर तथा स्वास्थ्यकर्मी लैटिन अमेरिकी व कैरीबियाई देषों में तैनात हैं।
फिदेल कास्त्रों का कहना है कि क्यूबाईयों के लिए यह चमत्कार कर दिखाना इसलिए संभव हुआ ‘‘क्योंकि क्रांति को हमेशा से राष्ट का, एक प्रभावशाली जनता का, जो बड़े पैमाने पर एकजुट, शिक्षित व लड़ाकू हुई है, हमेशा से समर्थन हासिल था और रहेगा।’’ कास्त्रों की हत्या की 600 बार कोशिशें की गई। फिर भी वह जिंदा हैं। क्यूबाई क्रांति को समाप्त करने की हजारों कोशिशें फिर भी वह कास्त्रों की तरह जिंदा है। क्यूबा और कास्त्रों ने पूंजीवादी दुनिया को ठेंगा दिखाते हुए हर क्षेत्र में समाजवाद की श्रेष्ठता को स्थापित किया है। फिदेल कास्त्रों ने सत्ता हस्तान्तरण करके भी एक मिसाल कायम की है। अब जब साम्राज्यवादी पूंजीवाद अर्थव्यवस्था धराषराई है और फिर से सारी दुनिया समाजवादी राजनैतिक अर्थशास्त्र की ओर देखने लगी है। सोवियत संघ व समाजवादी देषों की पहली पीढ़ी के पतन के बाद जो निराषा का माहौल छाया था वह छंटने लगा है। क्यूबा और कास्त्रो ने लाल सितारे की तरह, धू्रव तारे की तरह चमक रहे हैं और दुनिया को अग्रगति का रास्ता दिखा रहे हैं।
क्यूबा और कास्त्रो को लाल सलाम !!
क्यूबाई क्रांति अमर रहे !!
- शिवराम से ०9414939576 या abhiwyakti@gmail.com के जरिए संपर्क किया जा सकता है।

उफ़ ये गलाकाट प्रतिस्पर्धा

ये त्रासदी ही कही जाएगी कि जिस सूचना प्रौद्योगिकी के बल पर हमारी सरकारें भारत को 21 वीं सदी में दुनिया का सिरमौर बनाने का दावा कर रही हैं, वहीं के छात्रों में अपने जीवन को समाप्त कर लेने की प्रवत्ति दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। अभी पिछले दिनों तीन जनवरी को देश के कुल सात सूचना प्रौद्योगिकी संस्थानों में अव्वल माने जाने वाले कानपुर आईआईटी के छात्र जी. सुमन की हास्टल के कमरे में फांसी लगाकर की गयी आत्महत्या इसका ताजा उदाहरण है। आंध्र प्रदेश के नेल्लूर जिले के रहने वाले सुमन एमटेक द्वितीय वर्ष में इलेक्टिकल इंजीनियरिंग के छात्र थे। आईआईटी के निदेशक प्रो0 संजय गोविंद धांडे के अनुसार सुमन कैम्पस में प्लेसमेंट के लिए आयीं बहुरास्ट्रीय कम्पनियों द्वारा चयनित न होने के कारण तनाव में था। गौरतलब है कि सुमन की आत्महत्या पिछले दो सालों में यहाँ की सातवीं घटना है। ये घटनाएं जहाँ इन संस्थानों की शिक्षा पद्धति पर सवालिया निशान खड़ा करती हैं तो वहीं देश के सबसे मेधावी छात्रों के जीवन में झांकने पर भी मजबूर करती हैं। जहां हताशा, तनाव और गला काट प्रतिस्पद्र्धा के कारण हमेशा पिछड़ जाने का डर सालता रहता है। यह अकारण नहीं है कि पिछले 5 नवंबर 07 को यहीं के छात्र अभिलाष ने आत्महत्या से पूर्व सुसाइड नोट में लिखा-‘मैं जीवन से हार चुका हूं, मैं दुनिया और जीवन का सामना नहीं कर सकता। हारने वाले भगोड़े होते हैं और मैं उन्हीं में से एक हॅूं।’ इसी संस्थान के छात्र रहे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय आईटी में मैकेनिकल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर प्रशांत शुक्ल बताते हैं कि "इन परिसरों में एकेडमिक दबाव इतना ज्यादा रहता है कि छात्र एडमिशन के कुछ दिनों बाद ही किसी न किसी तरह के तनाव का शिकार हो जाते हैं और धीरे-धीरे अवसाद की स्थिति में पहंुॅचने लगते हैं।" दरअसल तनाव और अवसाद की स्थिति उत्पन्न होने के अधिकतर कारण इन संस्थानों की आंतरिक संरचना और माहौल में ही मौजूद होते हैं जो छात्रों में जीवन के प्रति नकारात्मक सोच उत्पन्न कर देता है। यहाॅं मेधा का मूल्याकंन इससे होता है कि कौन कितने उॅंचे वेतन पर और किस विकसित देश में काम करता है। ऐसे माहौल के कारण छात्र हमेशा एक काल्पनिक भय मे जीता है कि कहीं वह दूसरों से पिछड़ न जाए। बाजार में अपने आप आपको साबित करने के इस दबाव के कारण ही छात्र समाज की मुख्यधारा से भी कटते जाते हैं और अपनी एक कृत्रिम दुनिया बना लेते हैं जिसका आधार एक दूसरे पर विश्वास और सहयोग करना नहीं बल्कि एक दूसरे से आगे निकलने की प्रतिस्पद्र्धा होती है। इसी प्रतिस्पद्धाॅ में जब कोई छात्र खुद को पिछड़ा हुआ मानने लगता है तब वो आत्महत्या जैसे कदम उठा लेता है। क्योंकि उसकी इस कृत्रिम दुनिया में हारने वालों के लिए कोई जगह नहीं होती। आईआईटी कानपुर में ही मैकनिकल इंजीनियरिंग के प्राध्यापक रहे मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडे कहते हैं कि इन संस्थानों का पूरा माहौल मानवीय मूल्यों के विपरीत होता है। वहां के छात्रों के बीच का रिश्ता शु़द्ध प्रोफेशनल होने के कारण आपस में सुख-दुख बांटने,साथी की मदद करने और किसी समस्या पर सामूहिक रुप से काम करने की मानवीय प्रवृतियों का ह्रास होने लगता हैं। जिसके कारण छात्रों के व्यतित्व में कई तरह की विकृतियां आने लगती हैं। अपने स्कूल के दिनों में सबके साथ सहयोग करने और एक दूसरे का टिफिन छीन कर खाने वाले ये छात्र धीरे-धीरे अकेला महसूस करने लगते हैं जहां वो किसी से अपनी कोई समस्या बांट नहीं पाते। इस अकेलेपन कि साथ ही अपने परिवार वालों को उम्मीदों पर खरे नहीं उतरने और सहपाठियों से पिछड़ जाने के डर के कारण ये छात्र भीतर ही भीतर घुटने लगते हैं। संदीप कहते हैं ‘‘ऐसे माहौल में यदि कोई छात्र आत्महत्या करता है तो आश्चर्यजनक नहीं है।‘’ ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ हमारे देश के सूचना प्रौद्यगिकी का ही संकट है। इस क्षेत्र में सबसे अग्रणी माने जाने वाले अमेरिका में भी आईटी संस्थानों की यही स्थिति है। पिछले दिनों कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय द्वारा इन संस्थानों के छात्रों में बढ़ रहे अवसाद और आत्महत्या की घटनाओं पर किए गए सर्वेक्षण में पाया गया कि ऐसे संस्थाओं में 58 प्रतिशत छात्र नियमित रूप से किसी न किसी तनाव से ग्रस्त हैं। और उनमें आत्महत्या करने की प्रवृति में तेजी से वृद्धि हुई। जो मौजूदा आर्थिक मंदी के दौर में और भी भयावह रुप ले चुका है। दरअसल इन संस्थाओं में आत्महत्या की घटनाएं एक प्रवृति के बतौर पिछले तीन-चार सालों में ही उभरी है।इससे पहले इस तरह की घटनाएं इका-दुका ही हुआ करती थी जिसके कारण अधिकतर व्यतिगत या पारिवारिक समस्याएं ही होती थी। लेकिन इधर जितनी भी घटनायें हुई हैं उनमें मुख्य कारण कैरियर की दौड़ में पिछड़ जाने का डर ही रहा है। देखा जाए तो नयी आर्थिक नीतियों के कारण जिस तरह प्रौघोगिकी के क्षेत्र में संभावनाएं बढ़ी हैं उसी अनुपात में छात्रों पर कैरियरिज्म का दबाव भी बढ़ा है, जिसमें टिके रहना एक सामान्य छात्र के लिए बहुत मुश्किल होता है। प्रो0 प्रशांत शुक्ल कहते हंै ‘ये आत्महत्याएं बाहरी पूंजी द्वारा सामूहिकता और मेलजोल के माहौल में पले-बढ़े हमारे छात्रों पर किए जा रहे निर्मम हमले को दर्शाता है, जिसका सामना सभी नहीं कर पाते।‘ सच्चाई तो यह है कि इन आत्महत्याओं को नई आर्थिक नीतियों से काटकर नहीं समझा जा सकता। जब से ये नीतियां लागू हुई हैं तब से इन कैंपसों में अंदरुनी माहौल में काफी परिवर्तन आया है। अपने दिनों को याद करते हुए संदीप पांडे कहते हैं कि पहले यहां कई सामजिक मंच हुआ करते थे जिसके माध्यम से विज्ञान के सामाजिक उपयोगों पर काम होते थे या सांस्कृतिक जीवन को दर्शाने वाले नाटक इत्यादि होते थे जिससे छात्रों में अध्ययन के साथ-साथ अपने समाज को समझने और उससे एकाकार होने की प्रवृति विकसित होती थी, वहीं वैश्वीकरण के बाद उपजे कैरियरिज्म की होड़ के कारण यह सब बंद हो गया और छात्रों का समाज से कटाव होने लगा। वो आत्मकेंद्रित जीवन जीने को मजबूर होते गए और उनके अंदर किसी भी समस्या को हल करने के सामूहिक प्रयास के मानवीय प्रवृति का भी क्षरण होता गया। इन संस्थानों में छात्र संघों या ऐसे ही किसी छात्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले मंचों का न होना भी अवसाद और अकेलेपन जैसी समस्याओं को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाता है। इनके अभाव में जहां छात्र अपनी व्यतिगत या सामूहिक समस्याओं कों न तो प्रशासन के सामने रख पाते हैं और न ही इन मंचों से जो इनमें सामूहिकता की भावना पनपती है उसी का विकास हो पाता है। बीएचयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष और भारतीय जनसंचार संस्थान के प्रोफेसर आंनद प्रधान कहते हंै कि राजनीति छात्रों कों दुनिया और समाज से जोड़ती है। उनमें दुनिया को बदलने, बेहतर बनाने के सपने बोती है। जिसके कारण छात्रों में व्यतिगत के बजाए सामूहिकता की भावना विकसित होती है और वे आशावादी बनते हैं। लेकिन ऐसे मंचों के अभाव में छात्रों में कोई सामाजिक सपना नहीं विकसित हो पाता और वो बहुत जल्दी निराश और हताश होने लगते हैं। दरअसल इन संस्थानों के इसी शैक्षणिक माहौल और उससे उपजे आत्मकेन्द्रित सोच के कारण ही हम अपनी इन प्रतिभावों के पलायन को भी नहीं रोक पाते और यहां से निकलने वाले ज्यादातर छात्र विदेशों का रुख कर लेते हैं। इन छात्रों के विदेश पलायन की प्रवृति और यहां हो रही आत्महत्याओं में गहरा संबंध है। क्योंकि जो छात्र बाहर नहीं जा पाते उनमें हीनभावना आ जाती है और वो भारत में ही रह जाने को अपनी असफलता मानने लगते हैं। जिसकी परिणति आत्महत्याओं में भी होती है। संदीप पांडेय इन संस्थानों के शिक्षण पद्धति पर ही सवाल उठाते हुए कहते हैं ‘जब यहां देश के सबसे मेधावी छात्र ही आते हैं तब उनका परीक्षण लेने का क्या औचित्य है, ऐसा करके तो हम उनमें एक दूसरे से आगे बढ़ने कर गलाकाट प्रतिस्पद्र्धा को ही बढ़ावा देते हैं, जिसकी परिणति आत्मकेन्द्रित सोच में होती है।‘ वे आगे कहते हैं कि इस प्रतिस्पद्र्धा आधारित परीक्षा के बजाए अगर उनमें सामूहिक रुप से किसी प्रोजेक्ट पर काम करने की प्रवृति को विकसित किया जाए तो ये आत्महत्याऐं भी रुक सकती हैं और विदेश पलायन भी। बहरहाल, सूचना प्रौद्योगिकी को विदेशी म्रुदा देने वानी कामधेनु समझने वाली हमारी सरकारें यहां के छात्रों को उनकी जिंदगी की कीमत पर दुहना छोड़ देंगी इसकी उम्मीद भी कैसे की जा सकती है।
- शाहनवाज़ स्वतंत्र पत्रकार व एक्टिविस्ट हैं। इनसे 09415254919 या shahnawaz.media@gmail.com संपर्क कर सकते हैं

अब भी बेसहारा हैं सहरिया

विजय प्रताप
बारां जिले के सहरिया आदिवासियों को जब पिछले साल यह खबर मिली कि नये वन कानून के अनुसार उन्हें जंगल की ज़मीन पर बने रहने के लिये स्थायी पट्टा मिलेगा तो उन्हें उम्मीद थी कि अब उनके दिन भी फिरेंगे. लेकिन इन सहरिया आदिवासियों को सरकार का यह कानून कोई सहारा नहीं दे सका.
जाहिर है, केन्द्र की यूपीए सरकार ने पिछले साल जब अनुसूचित जनजाति व परंपरागत वन निवासी अधिनियम 2006 यानी वन अधिकारों की मान्यता कानून को मंजूरी दी थी तो सरकार ने यह नहीं सोचा होगा कि यह कानून भी आदिवासियों के शोषण का एक जरिया बन जाएगा. आज हालत ये है कि भारत की आदिम जनजातियों में से एक सहरिया जनजाति के लोगों को इस कानून के तहत अपनी जमीन का पट्टा बनवाने के लिए वकीलों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं. उन्हें बताया जा रहा है कि “ मामला जमीन का है इसलिए खर्च किए बिना कागज कैसे बनेगा.”यह कागज बनवाने के लिए ही बारां जिले के सांवरा को आजकल कुछ ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है. वह एक वकील की फीस के लिए पैसा बचाना चाहता है. कचहरी के एक वकील ने उससे कागज बनाने के लिए तीन सौ रुपए फीस मांगी है. लेकिन रोज की मजदूरी से इतना ही पैसा मिल पाता है कि वह अपने परिवार का पेट पाल सके. उपर से हथकढ़ यानी कच्ची शराब पीने की बुरी लत अलग से है. आखिरकार उसने किशनगंज तहसील के बाहर की एक फोटोस्टेट की दुकान से 15 रुपए में खरीदी गई खाली फार्म को अपनी टापरी में सहेज कर रख दिया है. आज की तारीख में सहरिया जनजाति राजस्थान के दक्षिण पूर्वी भाग के बारां जिले में सिमट कर रह गई हैं. हालांकि यहां उनकी जनसंख्या करीब 75 हजार है, लेकिन आस-पास के जिलों कोटा, बूंदी व झालावाड़ में इनकी संख्या केवल तीन से पांच सौ तक रह गई है. बारां के किशनगंज व शाहाबाद तहसील में इस जाति के लोग बहुतायत हैं. परंपरागत रूप से जंगल में रहने वाली यह जाति वन संपदा पर ही निर्भर है. जंगलों में रहने के कारण ही इन्हें 'सहरिया' कहा जाता है, जिसका अरबी भाषा में अर्थ है, जंगलों में रहने वाला.कई सौ सालों से जंगलों में रहते आ रहे इन लोगों को पिछले साल जब यह बताया गया कि वह जहां रहते हैं, सरकार उस भूमि को हमेशा के लिए उनके नाम करने वाली है; तो इनकी खुशी देखने लायक थी. आखिर हर बार वनों से बेदखल किये जाने की सरकारी धमकी और वन अधिनियम के तहत उनके खिलाफ लादे गये मुकदमों से भी तो उन्हें छुटकारा मिल जाता. लेकिन इस बात से खुश होने वालों को कुछ ही महीनों के भीतर दुख और निराशा ने घेर लिया.
सच तो ये था कि कानून बनने के कई महीनों बाद तक जिले के आला अधिकारियों तक को इसकी ठीक से जानकारी नहीं थी। लोगों ने कुछ एक गैर सरकारी संगठनों के साथ मिलकर इसे लागू कराने के लिए धरना प्रदर्शन शुरु किया, तब कहीं जाकर अधिकारियों को होश आया. किशनगंज के भैरवलाल बताते हैं कि “ असल परेशानी तभी से शुरु हुई.”वन अधिकार कानून के अनुसार प्रत्येक आवेदक को इसके लिए नि:शुल्क फार्म उपलब्ध कराया जाना है. इसके लिए राज्य के जनजाति कल्याण विभाग के निदेशक ने एक आदेश जारी कर हर जिले में ऐसे फार्म छपवा कर नि:शुल्क वितरित करने के आदेश दिए हैं. इसके उलट बारां जिले में प्रशासनिक अधिकारी भी यह स्वीकार करते हैं कि यहां फार्म छपवाया ही नहीं गया.आज भी जिले में यह फार्म कचहरियों के बाहर फोटोस्टेट की दुकानों पर दस से पन्द्रह रुपए लेकर बेचे जा रहे हैं. साथ ही प्रशासन की तरफ से आवेदन पत्र के साथ 5-6 तरीके के अलग से प्रमाण-पत्र संलग्न करने के लिए भी कहा गया है. आखिर में विवश हो कर इन आदिवासियों को वकील और दलालों की शरण में जाना पड़ रहा है.आदिवासियों को इस तरह परेशान किये जाने से नाराज़ एकता परिषद के सौरभ जैन कहते हैं- “ वनअधिकार कानून में यह साफ लिखा है कि ग्राम स्तर की वन अधिकार समिति को केवल सादे कागज पर आवेदन देना है. यह समिति ही मौके पर जाकर पंचनामा तैयार करेगी और उस दावे को खण्डस्तर की वनअधिकार समिति के पास भेजेगी. लेकिन यहां उस कानून की धज्जी उड़ा रही है.”

जैन का कहना है कि सरकारी लोग इस कानून को भी आदिवासियों के शोषण का हथियार बना रहे हैं.वन अधिकार कानून को लेकर कमोबेश ऐसे ही हालात प्रदेष के हर उस जिले में है, जहां वनभूमि पर सदियों से आदिवासी काबिज हैं और जिन्हें दावा पत्र मिलना है. वनवासियों को अधिकार पत्र देने के लिए बना कानून समितियों और नौकरशाही के बीच उलझ कर रह गया है.
अधिनियम के अनुसार 10-15 सदस्यों वाली वनाधिकार समिति में एक तिहाई अनुसूचित जनजाति व इतनी ही महिलाओं को शामिल किया जाना जरुरी है. इसका अध्यक्ष अनुसूचित जनजाति का सदस्य होगा. लेकिन सच्चाई कुछ और ही है. कोटा में वन भूमि पर रह रहे भील जाति के लोगों को मालूम ही नहीं कि वन अधिकार समिति कहां है, कौन लोग इसके सदस्य हैं. वनाधिकार समिति गठित करते समय भी ग्राम पंचायत की कोई औपचारिक बैठक नहीं बुलाई गई. कोटा से बीस किलोमीटर दूर के एक गांव डोल्या की दाखू बाई कहती हैं “ पंचायत की बैठक नहीं बुलाई. हमें यह भी नहीं पता है कि फार्म कहां से मिलेगा.” आदिवासी जनजाति अधिकार मंच के संरक्षक प्रतापलाल मीणा बताते हैं “ कई गांवों में समिति गठित करते समय कोई बैठक नहीं हुई. सरपंच ने खुद ही लोगों के नाम लिख उसे खण्ड स्तर पर भेज दिया. कहीं भी कानून के अनुसार समिति गठित नहीं की गई है. कई सरपंचों ने तो खुद को ही समिति का अध्यक्ष बना लिया है.”हालांकि इलाके के विकास अधिकारी नरेश बडवाना कहते हैं कि यहां सभी आवेदकों को नि:शुल्क फार्म उपलब्ध कराया जाएगा. लेकिन यह कब होगा, यह बताने वाला कोई नहीं है. कई गांवों में जनजाति अधिकार मंच फार्म छपवाकर लोगों से उनका दावा पत्र भरवा रहा है. ऐसे गांवों में आदिवासियों को काफी सहुलियत हो रही है. लेकिन पूरे प्रदेश में हालात ऐसे नहीं हैं.पिछली राज्य सरकार के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में अभी तक 1179 दावों का निस्तारण हुआ है. राज्य के उदयपुर, डूंगरपूर, सिरोही, बासंवाड़ा, भीलवाड़ा, प्रतापगढ़ चित्तौड़गढ़, बारां, बूंदी, कोटा, झालावाड़, पाली, राजसंमद आदि जिलों में ही ऐसे ज्यादातर आदिवासी हैं जो वनभूमि पर काबिज है. उदयपुर संभाग में आदिवासियों के बीच कई गैर सरकारी संगठनों की मौजूदगी के बावजूद वहां अभी तक दावे ही लिए जा रहे हैं.
जनजाति कल्याण विभाग का आकंड़ा बताता है कि उदयपुर में किसी भी आदिवासी के दावे का निस्तारण नहीं हो सका है। ऐसी ही हालात पाली, राजसमंद व कोटा जिलों में भी है. प्रदेश में अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या 12.56 प्रतिशत है. कई बड़े दिग्गज नेता आदिवासी समुदाय से आते हैं. बावजूद इसके अभी तक राज्य भर में इन मुद्दों को उठाने वाला कोई नेता नहीं है. पिछले साल अक्टूबर में राहुल गांधी ने तो बजाप्ता बारां में सहरिया आदिवासियों के साथ रह कर उनकी समस्याओं को जानने की कोशिश की थी. लेकिन वन अधिकार कानून के मामले में वे अपनी सरकार को नहीं जगा पाये.आदिवासी जनजाति अधिकार मंच के प्रतापलाल मीणा का मानना है कि नेता केवल दावे करते हैं लेकिन जमीन हकीकत कुछ और ही है. मीणा कहते हैं- “आदिवासियों को लेकर प्रशासन कभी गंभीर नहीं रहा है, इसलिए बार-बार हमें आंदोलन की राह अख्तियार करनी पड़ती है.”बारां जिले की किशनगंज सुरक्षित सीट से नवनिर्वाचित विधायक निर्मला सहरिया आदिवासियों के साथ ऐसे बर्ताव को स्वीकार करती हैं. वह कहती हैं कि “ बारां में करीब तीन सौ दावा पत्र तैयार हो चुका है, जो जल्द ही वितरित कर दिया जाएगा. साथ इन कार्यों में तेजी लाने के लिए यह बात विधानसभा में भी उठाउंगी.”हालांकि उनके दावे पर यकिन करने वालों की संख्या कम ही है क्योंकि किशनगंज के आदिवासी इससे पूर्व के विधायक हेमराज मीणा के ऐसे दावों को भूले नहीं हैं. देखने लायक बात ये होगी कि ‘अपने समाज’ से विधायक बनाई गईं निर्मला सहरिया कोई नया इतिहास लिखेंगी या फिर वे भी हेमराज मीणा के रास्ते का ही अनुसरण करेंगी.

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